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Friday, February 19, 2010

अघोर साधना के मूल तत्व

भग बिच लिंग, लिंग बिच पारा \


जो राखे सो गुरु हमारा \\ "



इस पूरी धरती में आदिकाल से ही मानव जीवन के प्रति मुख्यतः दो दृष्टिकोण प्राप्त होते हैं । एक तो वे लोग हैं जो जीवन को भोग का अवसर मानकर तद् अनुरुप आचरण करते हैं । वे किसी परमसत्ता के अस्तित्व को, जो धरती पर के समस्त क्रियाकलापों का संचालन करता हो, स्वीकार नहीं करते । उनका तर्क है कि परमसत्ता के अस्तित्व का ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जो सार्वकालिक होने के साथ ही निर्विवाद भी हो । यह लोगों के मन की कल्पना मात्र है । कुछ प्रबुद्धजनों ने अपना हित साधन के उद्देश्य से परमसत्ता के प्रति भय का वातावरण बनाया और अपने मन की कल्पना को जन सामान्य के हृदय में बड़े ही चतुराई से प्रतिस्थापित कर दिया है । दूसरे प्रकार के लोग परमात्म तत्व की सत्ता को न केवल स्वीकार करते हैं वरन् स्वयं को परमात्मा का अंश आत्मन् के रुप में मानकर आत्मा के परमात्मा में मिलन के लिये चेष्टा करते है, जिसे साधना कहते हैं । इसी भित्ती पर संसार के समस्त धर्म, सम्प्रदाय, आदि खड़े हैं ।



भारत में आदिकाल से ही निष्ठा के आधार पर साधकों, श्रद्धालुओं, भक्तों, संतों, महात्माओं को पाँच प्रकार में बाँटा गया है ।



१, शैव, जिनके आराध्य देव शिव जी हैं ।



२, शाक्त, जिनके आराध्य देव शक्ति हैं ।



३, वैष्णव, आराध्य देव श्री विष्णु हैं ।



४, गाणपत्य, जिनके आराध्य देव गणेश हैं ।



५, सौर, जिनके आराध्य देव सूर्य देव हैं ।



जो एकनिष्ठ देव आराधक नहीं हैं उनमें या विशेष प्रयोजनवस पँच देवोपासना भी प्रचलित है ।



अघोरपथ इनमें शामिल नहीं हैं, क्योंकि अघोरियों का कोई एक देवता आराध्य नहीं है । अघोर आश्रमों में सामान्यतः देवी मंदिर के अलावा शिव लिंग, गणेश पीठ, पाये जाते हैं । अघोरेश्वर भगवान राम जी ने विष्णु यज्ञ भी कराया था । सूर्य देव तो प्रत्यक्ष देवता हैं ही ।



इस विषय में अघोरेश्वर भगवान राम जी ने अपने आशीर्वचनों में कहा हैः



" हम लोग शैव और शाक्त दोनों के मत में रहने वाले हैं । हम लोगों का अनुष्ठान शैव और शाक्त के मध्य से चलता है । औघड़ न शाक्त होते हें न शैव होते हैं । इनका मध्यम मार्ग है । शक्ति की भी उपासना करते हैं और रुद्र की भी उपासना करते है । हमारी भगवती जिसकी हम आराधना करते हैं, श्री सर्वेश्वरी, काली, या दुर्गा, इनकी मूर्तियाँ वैदिक युग की नहीं हैं क्योंकि वैदिक युग में शिव के यंत्रों की आकृति है और उसे ही माना गया है । उस युग से पहले की हो सकती है या उस युग में भी हो सकती है । यह ब्राह्मणों के ध्यान की मूर्ति नहीं है । यह योगियों के ध्यान की मूर्ती है । "



अघोरी जाति, वर्ण, धर्म, लिंग, आदि किसी में भेद नहीं करते । अघोर दीक्षा के पश्चात क्रीं कुण्ड स्थल के महंथ बाबा राजेश्वर राम जी ने किशोर अवधूत भगवान राम जी को समझाया था ।



" हमारी कोई जाति नहीं, हम सभी धर्मों के प्रति आदर रखते हैं । हम छूआछूत में विश्वास नहीं करते । हम प्रत्येक मनुष्य को अपना भाई और प्रत्येक स्त्री को माता समझते हैं । मानव मानव में कैसा भेद, कैसा दुराव ? "



अघोरी, औघड़, अवधूत विधि निषेध से परे होते हैं ।



१, शिष्य का अधिकार



अघोर पथ में गुरु का स्थान सर्वोपरी हैं । अध्यात्म के अन्य क्षेत्रों में सामान्यतः शिष्य गुरु बनाता है , लेकिन अघोर पथ में ऐसा नहीं है । श्रद्धालु का , भक्त का, औघड़, अवधूत से निवेदन करने से दीक्षा, संस्कार हो जावे यह अवश्यक नहीं है । यहाँ गुरु शिष्य को चुनता है । हमें यह प्रक्रिया अन्य सिद्धों के मामले में भी दिखाई देती है । पूर्व में लाहिड़ी महाशय का चुनाव उनके गुरु बाबा जी ने किया था और अपने पास बुलाकर उन्हें दीक्षा देकर साधना पथ पर अग्रसर कराया था । स्वामी विवेकानन्द जी का चुनाव रामकृष्ण देव ने किया था । और भी अनेक उदाहरण हैं । स्पष्ठ है कि यह शिष्य के अधिकार की बात है । अनेक जन्मों के संचित सत् संस्कार जब फलीभूत होते हैं तो शिष्य का क्षेत्र , अधिकार, पात्र तैयार हो जाता है और दीक्षादान हेतु गुरु के हृदय में करुणा का संचार हो जाता है । इस प्रकार दीक्षा घटित होती है ।



शिष्य के अधिकार के अनुसार गुरू उसका संस्कार करते हैं ।



२, दीक्षा



पूर्व में दीक्षा संस्कार की चर्चा हो चुकी है । अघोरपथ में गृहस्थों को तथा अधिकार के अनुसार विरक्तों को भी साधक दीक्षा प्रदान होती है । योगी दीक्षा सम्पन्न साधु मुड़िया कहलाते हैं । हम यहाँ दीक्षा के प्रकार की चर्चा एक बार पुनः कर लेते हैं ताकि विषय स्पष्ठ रहे ।



अघोर पथ में दीक्षा दो प्रकार की होती है ।



"अ, योगी दीक्षाः



योगी दीक्षा की प्रक्रिया थोड़ी अलग होती है । योगी की कुण्डलिनी को गुरुदेव दीक्षा के समय ही जगा देते हैं । योगी को कुण्डलिनी शक्ति साकार इष्टदेवता के रुप में प्राप्त हो जाती है, बाद में अपने कर्मों के द्वारा उसकी आराधना शुरु करता है । योगी अधिक सामर्थवान होता है । उसे वासना का त्याग नहीं करना पड़ता । योगी वासनादि को निर्मल बनाकर अपनी निज स्वरुप में नियोजित कर लेता है । वह शरीर से भी इष्टदेवता का दर्शन करने में समर्थ हो जाता है । योगी जब पूर्ण सिद्ध हो जाता है तब उन्हें निर्मल ज्ञान मिलता है या सत्य का साक्षात्कार हो जाता है । वह अलौकिक शक्ति का अधिकारी बन जाता है । इसमें तीन प्रधान शक्तियाँ हैं इच्छा, ज्ञान और क्रिया । ज्ञान शक्ति से वह सर्वज्ञ तथा क्रिया के प्रभाव से सर्वकर्ता बन जाता है । इच्छा शक्ति के प्रभाव से योगी कोई भी कार्य कर सकता है । इस शक्ति के उदय होने से ज्ञान तथा क्रिया की आवश्यकता नही् होती पर योगी के इच्छानुसार कार्य होता है । अघोर पथ में दीक्षा संस्कार के समय गुरु अधिकारी शिष्य की कुण्डलिनी जगाकर तीन चक्र ! मूलाधार, स्वाधिष्टान और मणिपुर तक उठा देते हैं । इसके बाद उस योगी का ईष्ट साकार हो जाता है और फिर शुरु हो जाती है उनकी बिलक्षण आराधना ।"



ब, साधक दीक्षाः



दीक्षादान होने पर गुरुपदिष्ठ बीजमन्त्र साधक के हृदयदेश में स्थापित होता है तथा साधक के द्वारा गोपनीय विधियों के द्वारा शोधित और रक्षित होकर पुष्ट होता रहता है । समयकाल पाकर बीज आकार धारण करता है और बाद में यही सत्ता साकार इष्टदेवता के रुप में प्रकट होता है । योगी दीक्षा और साधक दीक्षा दोनो में ही कुण्डलिनी जागरण होता है । साधक दीक्षा में शक्ति का इतना संचार हो जाता है कि जैसे ही पुरुषाकार का योग होता है कुण्डलिनी जाग जाती है । बाद में गुरु प्रदत्त कर्म के समुचित सम्पादन से उक्त जाग्रत शुद्ध तेज प्रज्वलित होकर साधक के वासना, संस्कार आदि के आवरण को भस्म कर देता है । साधक का विकास होते होते अन्त में सिद्धावस्था आती है जब वासनादि समस्त कल्मशों का सम्पूर्ण रुप से क्षय हो जाता है और कुण्डलिनी शक्ति इष्टदेवता के रुप में प्रकट होती है, पर उस समय साधक का देह नहीं रहता । साधक में सिद्धि के आविर्भाव के साथ साथ देहान्त हो जाता है ।



अघोरपथ में साधना विषयक समस्त बातें गोपनीय होती हैं । दीक्षा की प्रणाली, मन्त्र, बिधि, क्रिया, ओषधि समस्त बातें व्यक्तिनिष्ठ होने के कारण उन तक किसी की भी पहुँच असंभव है । अधिकारी सन्त, महापुरुष जितना अपने प्रवचनों में बतला देते हैं वही ज्ञात हो पाता है । दीक्षा का मूल मन्त्र कहा गया है, अतः कुछ चर्चा मन्त्र की भी आवश्यक हो जाती है ।



३, मन्त्र



भारत में मन्त्र का एक अलग शास्त्र है । मन्त्र विज्ञान इतना उन्नत है कि जीवन के प्रत्येक क्रियाकलाप हेतु अलग अलग मन्त्र हैं । हम मन्त्र के विषय में विशद चर्चा पूर्व में कर चुके हैं अतः उसे दुहराना आवश्यक नहीं है ।



अघोरमन्त्र को समस्त मन्त्रों में सर्वोपरि बतलाया गया है और कहा गया है किः



" ॥ अघोरान्ना परो मन्त्रः नास्ति तत्वं गुरो परम् ॥"



शिष्य को गुरु, उसकी प्रकृति, अधिकार, शक्ति तथा इष्ट के अनुरुप मन्त्र दान करते हैं । इसीलिये गुरु प्रदत्त इस मन्त्र को इष्टमन्त्र या गुरुमन्त्र भी कहते हैं । यह मन्त्र शिष्य के हृदय देश में स्थापित होकर उसकी सिद्धी तथा मुक्ति का वाहक बनता है । इष्ट मन्त्र के अलावा प्रयोजन के अनुसार साधक अन्य अनेक मन्त्रों का भी प्रयोग करता है ।



अघोरेश्वर भगवान राम जी ने मन्त्र के विषय में बतलाया हैः



" मन्त्रों में किसी का नाम नहीं दिया गया है । ॠषियों ने उन मन्त्रों का दर्शन किया है, और उस दर्शन में उन शब्दों का, जिससे उसमें आकर्षण होता है । वह द्रवित होता है, और वह उस महान आत्मा की तरफ झुकता है । और उस महान आत्मा की तरफ झुक कर इतना तेज, इतना काँति, बल, पौरुष पा जाता है । उसके शरीर की रश्मियाँ, उसके शरीर की वह दिव्य, तेजोमय कान्तियाँ, जिसके शरीर में वह छोड़ता है, यह सब कुछ देता है । "



४, क्रिया



इस शरीर से विधिपूर्वक निश्चित उद्देश्य से किये गये काम को क्रिया कहते हैं । जप, हवन, तर्पण आदि कार्य इसके अन्तर्गत शुमार होते हैं । यह एक विशद विषय है । अघोरपथ में क्रियाएँ गुरु प्रदान करते हैं ।



५, औषधि



फूल, फल, दूब, पत्र, दुधुवा आदि औषधि के भीतर गिनी जाती हैं । हर एक वस्तु का अपना प्रयोजन है । मदिरा या दुधुवा का प्रयोग साधना की उच्चावस्था में कतिपय मानसिक दुर्बलताओं पर विजय पाने के लिये किया जाता रहा है, परन्तु अघोरेश्वर भगवान राम जी ने मदिरा का सेवन निषिद्ध कर दिया है ।
बदल गई बीजेपी ?




आखिर ये क्या हो गया है बीजेपी को, लगातार दो लोकसभा चुनावों में मात खाने के बाद बदले बदले से क्यों नजर आ रहे हैं पार्टी के तेवर । संघ के पसंदीदा नए नवेले अध्यक्ष नितिन गडकरी तो मुसलमानों को साथ लाने की अपील कर रहे हैं वो कह रहे हैं कि मुसलमान भाई आगे आएँ और सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल कायम करते हुए विवादित स्थल पर एक भव्य राम मंदिर बननें दें । राम मंदिर आंदोलन के हीरो कहलाने वाले आडवाणी के सामने ही मंच पर दिल बड़ा करते हुए वो ये भी कहते हैं कि अगर बगल की कोई जगह मिल गई तो बीजेपी एक भव्य मस्जिद का भी निर्माण करवाने में पूरा सहयोग करेगी। वाकई जमीन आसमान का फर्क नजर आ रहा है बीजेपी की चाल ढाल में बात भले ही घुमा फिरा कर वही की गई हो पर इस बार पार्टी नेताओं के बयान में 'मंदिर वहीं बनाएंगे ' का उग्र हिंदुवाद नदारद है। वो उग्र हिंदुवाद जो आज भी देश के एक समुदाय को डराता है। वो उग्र हिंदुवाद जो अक्सर खुद को देश के कानून से ऊपर समझ बैठता है और जोश में होश खोकर 6 दिसंबर 1992 को देश के गौरवमई लोकतंत्र में एक काला अध्याय जोड़ देता है। हिंदुवादी पार्टी से धर्मनिरपेक्ष पार्टी बनने की दिशा में ये बीजेपी का पहला कदम है। उसे इस बात का देर से ही सही अहसास हो गया है कि देश के 14 करोड़ मुसलमान भी इस देश का अहम हिस्सा हैं और बिना उनको साथ लिए पार्टी का कल्याण मुमकिन नहीं है।



लेकिन अपसोस होता है ये जानकर कि सादगी का नाटक कर पांचसितारा तंबुओं में इतने दिनों की माथापच्ची करने के बाद भी पार्टी मंदिर-मस्जिद से ऊपर नहीं उठ पाई । इतने दिनों के चिंतन के बाद भी बीजेपी के नेता सिर्फ इस नतीजे पर पहुंच पाए कि जनता को एक मंदिर के साथ साथ मस्जिद का भी एक लॉलीपॉप पकड़ा देना चाहिए । आप ही बताइए क्या बढ़ती मंहगाई और मंदी का मार झेल रही देश की जनता को इस बात से कोई वास्ता है , जिस देश की आधी आबादी युवा हो वो देश के विकास, बेहतर शिक्षा व्यवस्था और बेरोजगारी से निजात दिलाने की फ्यूचर प्लानिंग को तवज्जो देगी या एक ऐसी पार्टी पर भरोसा करेगी जो आज भी 1989 की अपनी 21 साल पुरानी सोच से उबर पाने में नाकाम है । क्या वो कभी एक ऐसी पार्टी का साथ देगी जो खुद को बदलना भी नहीं चाहती और बदला हुआ नजर भी आना चाहती है ।



जरा सोचिए इससे पहले क्या हमारे देश का विपक्ष कभी इतना कमजोर रहा कि सरकार की गलत नीतियों का माकूल जवाब भी न दे पाए। ऐसे वक्त में जब देश में पिछले 6 सालों से कांग्रेस लेड यूपीए की सरकार हो और महंगाई ने देश के हर आमो खास की कमर तोड़ रखी हो बीजेपी इस मुद्दे को क्या इमानदारी से उठा पाई । देश की जनता को क्या ये बता पाई कि एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री बढ़ती इनफ्लेशन रेट को रोक पाने में इतने लाचार क्यों नजर आते हैं । नहीं....बिल्कुल नहीं ,क्योंकि काफी दिनों से सत्ता सुख का आनंद न भोगने वाली बीजेपी शायद अब जनता की नब्ज पकड़ना भी भूल गई है । और यही वजह है कि इन तमाम ज्वलंत मुद्दों को छोड़ , आरएसएस के कट्टर हिंदुवादी चेहरे से कभी खुद को करीब और कभी दूर साबित करने के अंतर्द्वद में फंसे पार्टी के नेता अब धर्मनिरपेक्ष होने का दिखावा कर रहे हैं... थोड़ा डरते हुए क्योंकि आडवाणी का जिन्ना प्रकरण और धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढने की जो कीमत उन्होंने चुकाई वो कोई भी अपने जेहन से निकाल नहीं पाया है।



उम्मीद तो थी कि एसी टेंट में ही सही लेकिन प्रकृति के थोड़े करीब आकर , नए युवा अध्यक्ष की अगुवाई में ये नेता कुछ नया सोचकर एक नई शुरूआत करेंगे पर बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि पार्टी की नेशनल एक्जेकेटिव में सुबह शाम चले मंथन के बाद भी ये नेता अपनी पार्टी के लिए अमृत नहीं निकाल पाए

Wednesday, February 17, 2010

नई दिल्ली से प्रकाशित एक प्रतिष्ठित सप्ताहिक ‘इंडिया टुडे’ ने हाल के अंक में कुछ दिनों पहले दिवंगत हुए पुराने कांग्रेसी नेता और मुस्लिम विचारक डा. रफीक जकारिया को उद्धृत करते हुए मोटे अक्षरों में लिखा कि इतिहास में कोई ऐसा साक्ष्य नहीं है कि जो सिद्ध कर सके कि किसी मुस्लिम ने कोई हिन्दू मंदिर तोड़ा हो। यही बात इतिहासकार डा. इरफान हबीब और रोमिला थापर भी दूसरे संदर्भ में कह चुके हैं। यह भी कहा गया है कि मुस्लिम आक्रमणकारी सिर्फ धन-संपत्ति की लूट के उद्देश्य से आक्रांता के रूप में भारत आते रहे और बस यही उनका मन्तव्य था। भारत के पिछले एक हजार साल के इतिहास को झुठलाते हुए हर छोटे-बड़े शहरों के सैकड़ों पुराने भग्नावशेषों को नकारते हुए जिसमें मुस्लिम आक्रमणों के बर्बर ध्वंस की निशानियाँ आज भी मौजूद हैं। इस तरह की दुष्प्रचारित की जा रही राजनीतिक टिप्पणियाँ हमें अनायास आहत कर आक्रोश से भर सकती है। कभी-कभी लगता है कि हम स्वयं इस बात के गुनाहगार हैं कि अपनी तटस्थता की आड़ में हम ऐसी टिप्पणियों का प्रतिरोध नहीं करते हैं। मेरे विचार में राजनीति प्रेरित दिग्भ्रमित करने वाले ऐसे लेखक इतिहास व पुरातत्व के अनुशासन से गिरकर सिर्फ असत्य के अलावा कुछ नहीं बोल सकते हैं।




कहते हैं कि झुठ की अनेक किस्में होती है – बुरा झूठ, सफेद झूठ, काला झूठ, आकड़ों का झूठ, राजनीतिक झूठ, आदि-आदि। पर यदि अपनें चारों ओर गौर से देखें तो पाएंगे कि एक चौथे प्रकार का झूठ भी होता है जिसकी प्रकृति उपर्युत्त प्रकार के झूठ से कई गुना भयानक होती है। इसे हम गजब का झूठ कह सकते हैं। जहाँ तक देश के इतिहास का संदर्भ है, झूठ बोलना उनकी फितरत में दाखिल है, लगता है, नस-नस में बस गया है।



मुस्लिम शासकों के स्वयं अपने इतिहासकार व वृत्तांत लेखक ,मध्य युग में भारत-भ्रमण के लिए आए विदेशी यात्री व स्वयं ब्रिटिश इतिहासकार सभी ने सदियों तक हिंदू मंदिरों के ध्वंस के बारे में जो लिखा है उसके बाद भी विकृत सोच द्वारा जो दुष्प्रचार हमारी पत्र-पत्रिकाओं में फैलाया जा रहा है वह अक्षम्य है। पुराने इतिवृत्त जैसे आज का पूर्वी अफगानिस्तान शैवपंथी था। उत्तरी पूर्वी सीमांत से लगे अनेक देश अपवा जहाँ हमारे मूल देश की सभ्यता की उपशाखाएं विद्यमान थीं उनको कैसे नेस्तनाबूद किया गया, यह भुला भी दिया जाए, पर आज भी देश के दूरदराज के हर कोने में स्वयं आप जाकर भग्न मंदिर या खण्डित मूर्तियां देख सकते हैं। मात्र एक छोटा सा उदाहरण है, चाहे आप जबलपुर के चौसठ योगिनी मंदिर जाएं या भेजपुर का शिव मंदिर अथवा हांपी, आपका हृदय विदीर्ण हुए बिना नहीं रह सकता। सोमनाथ, मथुरा, काशी या अयोध्या की बात ही क्या करना जिसका विनाश इस्लाम के विस्तार के लिए मनोवैज्ञानिक रूप कितना अपरिहार्य था। आज के पलायनवादी, तटस्थ शिक्षित हिन्दू की संवेदनशीलता मरती जा रही है और इसलिए वह इसे समझ नहीं सकता है।



क्या आप इसे घृणित मार्क्सवादी व्याख्या नहीं कहेंगे जिसे बार-बार हमारे अंग्रेजी अखबार प्रचारित करने से नहीं चूकते हैं कि हिन्दू मंदिरों में अपार स्वर्णराशि व सम्पत्ति इकट्ठा कर हिंदुओं ने जो एक अपराध किया था उससे इस्लामी आक्रमणकारियों का आकर्षित होना स्वाभाविक था। पर उसका यह फायदा भी हुआ कि उन्हाेंने भारतीय समाज में एक क्रांति भी लाई, जो एकात्मवाद को बढ़ावा देने के साथ जाति-व्यवस्था के विरुध्द भी जनमत तैयार कर सकी।



अत्यंत संक्षेप में, सन् 632 में भारत में इस्लाम के आगमन के बाद से किस तरह हजारों मंदिरों का ध्वंस हुआ इसको आज के मीडिया को साक्ष्यों से परिचित कराना जरूरी है जिससे वे हमारे ही देश में बहुसंख्यकों को बरगलान सकें। फ्रेंच इतिहासकार एलेन डेनिलू ने लिखा है कि प्रारम्भ से ही इस्लाम का इतिहास भारत के लिए विनाश, रक्तपात, लूट और मंदिरों के विध्वंस के लिए एक भूकं प की तरह सिध्द हुआ था। सन 1018 से लेकर सन 1024 तक मथुरा, कन्नौज, कालिंजंर और बनारस के साथ-साथ सोमनाथ के मंदिर क्रूरता से नष्ट किए गए। प्रसिध्द पत्रकार एम. वी. कामथ ने कुछ दिनों पहले 18 वीं शताब्दी के एक ब्रिटिश यात्री को उद्धृत करते हुए लिखा कि सूरत से दिल्ली तक के बीच उसने एक भी हिंदू मंदिर नहीं देखा क्योंकि वे सब नष्ट किए जा चुके थे। इस्लामी इतिहासकारों ने सैकड़ों साल पहले गर्व से लिखा है कि सल्लतनत और मुगल शासकों के समय उनकी सरकार का ‘मंदिर तोड़ने का विभाग ” कितना कुशलता और दक्षता से यह काम करता था।



सोमनाथ का मंदिर पहली बार महमूद गजनवी द्वारा 1024 में लूटा गया था और शिवलिंग तोड़ डाला गया था। मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार इस विशाल देवालय को नष्ट करने के बाद सोमनाथ के शिवलिंग के टुकड़े गजनी की जुम्मा मस्जिद की सॣढ़ियों में जड़े गए थे जिससे इस्लाम के अनुयाई उन्हें पैरों से रौंदें। वह सन् 1191 का समय था जब मुस्लिम आक्रांता मोहम्मद गोरी मध्य एशिया से अपने तुर्की घुड़सवारों की सेना के साथ भारत आया था। पहले पृथ्वीराज चौहान ने उसे तराईन के पहले युद्ध में मात दी और उसे क्षमादान भी दिया। पर 1192 में उसने पृथ्वीराज को पराजित करने के बाद विशाल लालकोट को कब्जा करने के बाद जलाकर धरती में मिला दिया। आज भी कु व्वतुल इस्लाम भारत की पहली मस्जिद के रूप में खड़ी है जिसे उस समय के 67 हिंदू मंदिरों के पत्थरों और मलवे को प्रयुक्त कर बनाया गया था। इस तरह पहली बार यह आस्था ध्वंस के प्रतीक के रूप में दिल्ली पहुची थी। स्वयं अनेक मुस्लिम इतिहासकारों ने इसका विस्तृत रूप से वर्णन किया है।



”तारीखे-फीरोजशाही” के इतिहासकार के अनुसार सुल्तान अल्तुतमिस (1210-1236)ने अपने मारवाड़ के आक्रमण के दौरान अनेक बड़े मंदिरों की मूर्तियों को लाकर दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढ़ियों में चुनवाया था। इसी तरह जलालुद्दीन खिलजी (1290-1296) ने रणथंभौर के आक्रमण के बाद किया था। दो अन्य मुस्लिम इतिहासकारों ने स्वतंत्र रूप से पुष्टि की है कि अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316) हर अभियान के बाद मूर्तियों को दिल्ली लाकर सीढ़ियों पर चुनवाने का एक धार्मिक कृत्य मानता था। बाद तक दर्जनों शासकों ने यह चाहे दिल्ली में हो या बहमनी, मालवा, बरार या दक्षिण के राज्य हों, यही दोहराया। इन अभिलेखित साक्ष्यों के बाद भी यदि आज के कुछ सेकुलर कहलाने वाले दुराग्रही और हठधर्मी इतिहासकार अथवा पत्रकार रट लगाते रहें कि मंदिर कभी ध्वस्त नहीं किए गए, कभी बलात धर्मांतरण नहीं हुआ तो यह मात्र कुटिल मानसिकता ही मानी जा सकती है।



हमारे देश में अपने अतीत के प्रति अधिकांश शिक्षित वर्ग इतना उदासीन है कि विद्रूषीकरण के साथ-साथ घोर सतही और असत्य वक्तव्य भी बिना किसी प्रतिरोध के छापे जा सकते हैं। कदाचित इसीलिए नोबेल पुरस्कार विजेता वी.एस. नागपाल ने कुछ दिनों पहले एक साक्षात्कार में रोमिला थापर को ‘फ्रॉड’ तक कह डाला था।



आज हिंदू हीनताग्रंथिवश अपनी सभ्यता की प्रमुखता को भी अभिव्यक्त करने की स्थिति में नहीं हैं और कदाचित इतिहास की बाध्यताओं व उसके सही अनुशासन को नहीं समझ पाते हैं। उसके मन में कूट-कूटकर भर दिया गया है कि उनका अपना अतीत, आज की नजरों में, सांप्रदायिक इतिहास है।

Sunday, February 14, 2010

एक और आतंकी घटना और पिछली घटनाओं की भांति संदेह के घेरे में सर्वप्रथम मुसलमान। नाम मोहसिन चैधरी। मात्र एक घण्टे के अन्दर ए0टी0एस0 मुम्बई ने आतंकी घटना के मोहरे को ढूँढ़ निकाला, जबकि घटना आर0एस0एस0 के गढ़ में हुई, जहाँ मालेगाँव व अन्य विस्फोटों के आरोपी कर्नल पुरोहित ने अभिनव भारत नाम के संगठन का गठन किया था, और जहाँ आचार्य रजनीश का ओशो आश्रम व अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर आतंक के जन्मदाता यहूदी समुदाय का भी प्रार्थना स्थल ‘खबाद’ मौजूद है। अमरीकी खुफिया संगठन सी0आई0ए0 व बाद में आई0एस0आई0 पाकिस्तान से जुड़ा रहा जासूस डेविड कोलीन हेडली का भी इन्हीं स्थानों पर बराबर आना जाना रहा।


पूणे के जर्मन बेकरी रेस्टोरेन्ट में शनिवार की शाम लगभग 7.30 बजे एक धमाका हुआ। पहले पुलिस की ओर से यह समाचार आया कि यह बेकरी के किचन में फटे गैस सिलण्डर के कारण हुआ है, परन्तु बाद में वहाँ पहुँची ए0टी0एस0 व बम निरोधक दस्ते ने जानकारी दी कि एक पीठ पर टाँगने वाले बैग में रखी गई विस्फोटक सामग्री ने इस घटना को अंजाम दिया है, और यह एक आतंकी घटना है। इस घटना में प्रारम्भिक तौर पर जो समाचार प्राप्त हुए हैं, उसके मुताबिक लगभग एक दर्जन व्यक्ति हलाक हो गये और 40 व्यक्ति जख्मी हुए। मरने वालों में एक विदेशी नागरिक भी है जिसकी नागरिकता और उसकी खुद की शिनाख्त होनी अभी बाकी है।

गौरतलब बात यह है कि यह घटना तब घटी जब पूरे महाराष्ट्र में सम्प्रादायिक्ता व अलगाववाद की बात करने वाले संगठनों की थू-थू हो रही थी, और ‘‘माई नेम इज खान’’ के हीरो शाहरूख खान की जय जयकार। यानि धर्म निरपेक्ष ताकतों की फतह और सम्प्रदायिक शक्तियों की शिकस्त। यह घटना पाकिस्तान से होने वाली हमारे देश की वार्ता से मात्र 12 दिन पूर्व हुई है जब पाकिस्तान से वार्ता करने का विरोध हिन्दुवादी संगठन कर रहे थे। वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान अपने एजेण्डे यानि कश्मीर के मुद्दे को भी वार्ता में शामिल करने की बात पर अड़ा हुआ था। उसे आतंकवाद के मुद्दे को भी बातचीत में शामिल करने पर एतराज था। यह घटना उस समय घटी है, जब भले ही राजनीतिक आवश्यकता के कारण ही सही, बाटला हाउस एनकाउण्टर पर कांग्रेस की ओर से ही अंगुलियाँ उठने लगी थीं, और जामा मस्जिद दिल्ली के पेश ईमाम अहमद बुखारी भी एक बयान के साथ बयानबाजी के मैदान में कूद पड़े थे।

घटना के मात्र एक घण्टे उपरान्त ही देश की सुरक्षा व खुफिया एजेन्सियों ने घटना के सूत्रधार व उसके संगठन को ढूंढ़ निकाला। इण्डियन मुजाहिदीन व लश्करे तोएबा नाम के आतंकी संगठनों का नाम सामने आया साथ में मोहसिन चैधरी नाम के एक कथित आतंकवादी का फोटो राष्ट्रीय चैनलों पर उभर कर सामने आ गया उसके शेष साथियों की तलाश, और आजमगढ़ से पकड़े गये तथाकथित आतंकवादी शहजाद से उसके तार जोड़ने की कवायद प्रारम्भ हो गई।

घटनास्थल के पास विश्व प्रसिद्ध ओशो आश्रम है जहाँ विदेशी सैलानियों का सिलसिला कायम रहता है फिर यहूदियों का प्रार्थना स्थल खबाद भी यहाँ से चन्द कदम की दूरी पर है। इसके अतिरिक्त सूर्या होटल भी यहीं है, जहाँ अमरीकी-पाकिस्तानी जासूस डेविड हेडली आकर रुकता था। बावजूद इसके शक के दायरे में किसी विदेशी का नाम पहले ए0टी0एस0 की जुबान पर नही आया। स्मरण रहे कि 26/11 की मुम्बई घटना स्थल के पास भी यहूदियों की काॅलोनी नारीमन हाउस थी और यहाँ भी खबाद के रूप में यहूदियों की उपस्थिति।

महाराष्ट्र प्रान्त का यह नगर

पुणे स्वतंत्रता संग्राम से भी पहले से हिन्दूवादी संगठनों का मुख्यालय रहा है और मालेगाँव बम काण्ड के जनक लेफ्टीनेन्ट कर्नल पुरोहित का अपने संगठन अभिनव भारत के कारसेवकों की ‘‘तरबियतगाह’’ भी इसी नगर में रही है। इनमें से किसी का नाम पहले जुबान पर नहीं आया मुसलमान का नाम पहले आया। शायद इस कारण कि राम मंदिर आन्दोलन के नायक भाजपा के वरिष्ठ लीडर लालकृष्ण आडवाणी के शब्दों में Every muslim is not terrorist but, the terrorist who is being caught is aways Muslim .

तुष्टिकरण की यह कैसी राजनीति

रविवारीय मंथनकाठियावाड़ा (गुजरात) के मोहनदास करमचंद गांधी जी को देश ने महात्मा कहकर संबोधित किया, उन्हें भारत रत्न क्यों नहीं? यह सवाल इन दिनों बार-बार पूछा जा रहा है। इसका जवाब क्यों नहीं आ रहा? निजी बातचीत में सत्तारूढ़ नेता फुसफुसा देते हैं कि यह जिम्मेदारी तो आजादी के बाद पं. जवाहरलाल नेहरु की सरकार की ही थी। ब्रिटिश शासकों के चंगुल से देश को आजादी दिलाने वाले और फिर 6 माह के अंदर आजाद हिन्दुस्तान के एक हिन्दू की गोली खाकर शहीद हो जाने वाले महात्मा को तो प्रथम भारत रत्न से सम्मानित किया जाना चाहिए था। पंडित नेहरु तो महात्मा के प्रिय शिष्य थे। कांग्रेस पार्टी सहित पूरा देश महात्मा गांधी का ऋणी था। सैंकड़ों वर्षों की गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले महात्मा गांधी को पार्टी या सरकार कैसे भूल गई? पिछले दिनों शासकीय अलंकरणों पर उठे कतिपय विवादों के बीच उस बिंदु पर महात्मा की उपेक्षा को लेकर सवाल पूछे जा रहे हैं। चूंकि पिछले 6 दशक से सत्ता की ओर से इस सवाल का जवाब नहीं आया, अब उम्मीद करना बेकार है। तो क्या सवाल को अनुत्तरित छोड़ देना चाहिए? देश की जिज्ञासा को मौत देने के पक्ष में हम नहीं।सत्तापक्ष के मौन से विस्मित समीक्षक अपने अनुमान के लिए स्वतंत्र हैं। इस प्रक्रिया में संभावित गलतियों के लिए दोषी उन्हें नहीं ठहराया जा सकता। कहते हैं कि आजादी के बाद देश के कर्णधारों ने जिस धर्म निरपेक्षता को संविधान में शामिल किया वह सत्तापक्ष का चुनावी हथियार बन गया। सत्तापक्ष इस हथियार को सुरक्षित रखना चाहते थे। गांधी की हत्या का सच यह था कि उनके हत्यारे हिन्दू थे। विभाजन की शर्तों व वायदों सेे पीछे हटते हुए नेहरु की सरकार ने पाकिस्तान को न केवल तयशुदा राशि देने से इंकार कर दिया था बल्कि पाकिस्तान को सैन्य सामग्री की आपूर्ति भी बंद कर दी। इससे नाराज महात्मा गांधी ने अनिश्चितकालीन अनशन की घोषणा कर दी थी। नेहरु की सरकार जहां इससे परेशान हुई, देश चकित था। उन्हीं दिनों अफवाह फैली कि गांधी चाहते हैं कि पाकिस्तान से हिन्दुस्तान आए लगभग 70 लाख शरणार्थी वापस पाकिस्तान अपने घरों को लौट जाएं ताकि जो मुसलमान पाकिस्तान चले गए वे वापस हिन्दुस्तान लौटकर हिन्दुओं के साथ शांतिपूर्वक रहे। वह काल एक अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण काल के रूप में इतिहास में दर्ज हुआ। गांधी, जो महात्मा बन चुके थे, देश के रक्षक थे, स्वतंत्रता सेनानी थे, संत थे और जो कभी कुछ गलत नहीं कर सकते थे, अचानक शरणार्थियों की नजरों में हिन्दुओं के प्रति घृणा करने वाले और मुसलमानों को प्यार करने वाले बन गए। रोटी और छत की तलाश में जब पाकिस्तान से आए हिन्दू शरणार्थी दिल्ली की गलियों में भटकते रहे थे तब उन्होंने विस्मित नेत्रों से बड़ी संख्या में अल्पसंख्यकों को साधिकार मोहल्लों में रहते देखा। उन दिनों सत्ता में, व्यवसाय में, सरकारी कार्यालयों में प्रभावशाली अल्पसंख्यक मौजूद थे। गांधी उन शरणार्थी शिविरों में स्वयं जाकर अल्पसंख्यकों को प्रोत्साहित करते थे। गांधी ने तब नेहरु और पटेल पर दबाव डाला था कि हिन्दुओं और सिखों को हथियारों से वंचित कर दिया जाए ताकि अल्पसंख्यक मुस्लिम निर्भय वहां रह सकें। महात्मा गांधी की हत्या का एक बड़ा कारण अल्पसंख्यकों के खिलाफ उत्पन्न आक्रोश था। तो क्या वर्ग विशेष की नाराजगी के भय से देश के नवशासकों ने महात्मा गांधी को भारत रत्न से अलंकृत नहीं किया। तुष्टिकरण व वोट की राजनीति पर आज चिल्ल-पों करने वाले इतिहास के इन पन्नों पर गौर करें। इस 'राजनीतिÓ के जन्म को याद रखें। जब महात्मा गांधी को इस 'राजनीतिÓ का शिकार बनाने से शासक नहीं चूके तब औरों की क्या बिसात! आजाद भारत की कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति बदले हुए स्वरूप में आज भी देश, समाज को बांट रही है। तुष्टिकरण का बेशर्म खेल चुनावी राजनीति का खतरनाक किंतु मजबूत हथियार बन गया है। बाल ठाकरे ने शाहरुख खान को निशाने पर इसलिए नहीं लिया कि शाहरुख ने पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाडिय़ों के हक में दो शब्द बोले थे, ठाकरे की परेशानी का सबब वह 'खानÓ शब्द बना जो पूरे संसार में अचानक लोकप्रिय बन बैठा। फिल्म में किरदार शाहरुख गर्व से कहते हैं कि हां, मेरा नाम खान है, किन्तु मैं आतंकवादी नहीं। पूरे संसार में संदेश गया कि सभी मुस्लिम आतंकवादी नहीं हैं। मुस्लिम विरोध की सांप्रदायिक राजनीति करने वाले बाल ठाकरे को भला यह कैसे बर्दाश्त होता? यह वोट की ही राजनीति है, जिसमें सत्ता पक्ष को शाहरुख का बचाव करना पड़ा। यही आज की राजनीति का कड़वा सच है। और यही कारण है राजनीति के प्रति सभ्य-शिक्षित युवा वर्ग की घृणा का। किसी ने ठीक कहा है कि मछली पकडऩे और राजनीति करने में कोई फर्क नहीं है। ------------------------

Tuesday, February 2, 2010

अमेरिका की डाक टिकटों प़र छपेंगी हिन्दू देवी देवताओ के फोटो . जी हा भारत में भले ही टिकटों प़र देवी देवताओ की फोटो न छपती हो लेकिन अमेरिका में पहली बार अटलांटा की एक कम्पनी ने देवी देवताओ प़र स्टाम्प जारी किये है . कम्पनी का प्रमुख भारतीय मूल का अमेरिकी नागरिक है. यु एस ए - पोस्टेज डाट काम इन डाक ' ने टिकटों का पहला सेट जनवरी में पेश किया . इनकी कीमत बीस रूपए है . अमेरिका में करीब १५ लाख हिन्दू है . स्नातं धर्म के अनुयाइयो के लिए बड़ी खुशखबरी है ये . अब विदेश में जाने प़र अपनी संस्कृति कमजोर नही मज़बूत होगी . क्या भारत में भी इस तरह की पहल होनी चाहिए डी युनाईतेद स्टेट पोस्टल सर्विस की छह वर्ष पुराने एक नियम में धार्मिक मान्यताओं सम्बन्धी टिकेट जारी करने की अनुमति के बाद पहली बार अमेरिका में यह टिकेट जारी किये गये है

कलर्स चैनल के कुछ धारावाहिक सच्चाई से दूर

भाइयो कलर्स का कोई भी धारावाहिक हो पहले कुछ लिखा आता है ' हम इन बुराइयों के खिलाफ है ' हमारा किसी जाती विशेष ' से इस धारावाहिक का कोई सम्बन्ध नही . लेकिन जो लोग इन धारावाहिकों को देखते है वे भली भांति जानते है किस तरह की छवि प्रस्तुत की जा रही है . अब देखिये एक धारावाहिक १० बजकर ३० मिनट प़र ' न आना इस देश लाडो ' शुरू होता है . उस धारावाहिक में एक किरदार है अम्मा जी जिनकी बोली हरियाणवी है . अब जो इस धारावाहिक को देखता होगा तो उसके मन में हरयाणा की क्या छवि उतरती होगी . हरयाणा एक भारत का प्रान्त है जहा गाव की लड़की के पती को पूरा गाव दामाद मानता है . लेकिन इस धारावाहिक में अम्मा जी अपनी भतीजी को एक सरकारी अपसर को सोपती दिखाई जाती है . हरयाणा में बड़े ही स्वाभिमानी लोग रहते है लेकिन ये सब उट पटांग बटे हरयाणा की कोन सी छवि पर्स्तुत करते है

kya bharat me deshbhakto ki kami hai

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एक २२ साल का युवा जिसे देशभक्ति की सोच हासिल है तभी आर्मी ज्वाइन करने की चाह जगी लेकिन फिजिकल में असफल होने के बाद वापस पढ़ रहा है और अब एक नई सोच नेवी ज्वाइन करने की शोक लिखना ,पढना और सोच की गह्रइयो में ख़ुद को झोककर मोती निकाल लाना और इसमें सफल होने की चाह