केन्द्र और राज्य सरकारों की मिलीजुली महती योजना है मध्यान्ह भोजन योजना। जैसा कि सभी जानते हैं कि इस योजना के तहत सरकारी प्राथमिक शालाओं में बच्चों को मध्यान्ह भोजन दिया जाता है, ताकि गरीब बच्चे पढ़ाई की ओर आकर्षित हों और उनके मजदूर / मेहनतकश/ ठेले-रेहड़ी वाले/ अन्य छोटे धंधों आदि में लगे माँ-बाप उनके दोपहर के भोजन की चिंता से मुक्त हो सकें। इस योजना के गुणदोषों पर अलग से चर्चा की जा सकती है क्योंकि इस योजना में कई तरह का भ्रष्टाचार और अनियमिततायें हैं, जैसी कि भारत की हर योजना में हैं। फ़िलहाल बात दूसरी है…
जाहिर है कि उज्जैन में भी यह योजना चल रही है। यहाँ इस सम्पूर्ण जिले का मध्यान्ह भोजन का ठेका “इस्कॉन” को दिया गया है। “इस्कॉन” यानी अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ को जिले के सभी स्कूलों में मध्यान्ह भोजन (रोटी-सब्जी-दाल) बनाने और पहुँचाने का काम दिया गया है। इसके अनुसार इस्कॉन सुबह अपनी गाड़ियों से शासकीय स्कूलों में खाना पहुँचाता है, जिसे बच्चे खाते हैं। चूँकि काम काफ़ी बड़ा है इसलिये इस हेतु जर्मनी से उन्होंने रोटी बनाने की विशेष मशीन बुलवाई है, जो एक घंटे में 10,000 रोटियाँ बना सकती है। (फ़िलहाल इस मशीन से 170 स्कूलों हेतु 28,000 बच्चों का भोजन बनाया जा रहा है) (देखें चित्र)
जबसे इस मध्यान्ह भोजन योजना को इस्कॉन को सौंपा गया है, तभी से स्थानीय नेताओं, सरपंचों और स्कूलों के पालक-शिक्षक संघ के कई चमचेनुमा नेताओं की भौंहें तनी हुई हैं, उन्हें यह बिलकुल पसन्द नहीं आया है कि इस काम में उन्हें “कुछ भी नहीं” मिल रहा। इस काम को खुले ठेके के जरिये दिया गया था जिसमें जाहिर है कि “इस्कॉन” का भाव सबसे कम था (दो रुपये साठ पैसे प्रति बच्चा)। हालांकि इस्कॉन वाले इतने सक्षम हैं और उनके पास इतना विदेशी चन्दा आता है कि ये काम वे मुफ़्त में भी कर सकते थे (इस्कॉन की चालबाजियों और अनियमितताओं पर एक लेख बाद में दूँगा)। अब यदि मान लिया जाये कि दो रुपये साठ पैसे प्रति बच्चे के भाव पर इस्कॉन जिले भर के शासकीय स्कूलों में रोटी-सब्जी “नो प्रॉफ़िट-नो लॉस” के स्तर पर भी देता है (हालांकि इस महंगाई के जमाने में यह बात मानने लायक नहीं है), तो विचार कीजिये कि बाकी के जिलों और तहसीलों में चलने वाली इस मध्यान्ह भोजन योजना में ठेकेदार (जो कि प्रति बच्चा चार-पाँच रुपये के भाव से ठेका लेता है) कितना कमाता होगा? कमाता तो होगा ही, तभी वह यह काम करने में “इंटरेस्टेड” है, और उसे यह कमाई तब करनी है, जबकि इस ठेके को लेने के लिये उसे जिला पंचायत, सरपंच, स्कूलों के प्रधानाध्यापक, पालक-शिक्षक संघ के अध्यक्ष और यदि बड़े स्तर का ठेका हुआ तो जिला शिक्षा अधिकारी तक को पैसा खिलाना पड़ता है। जाहिर सी बात है कि इस्कॉन को यह ठेका मिलने से कईयों के “पेट पर लात” पड़ गई है (हालांकि सबसे निरीह प्राणी यानी पढ़ाने वाले शिक्षक इससे बहुत खुश हैं, क्योंकि उनकी मगजमारी खत्म हो गई है), और इसीलिये इस योजना में शुरु से ही “टाँग अड़ाने” वाले कई तत्व पनपे हैं। मामले को ठीक से समझने के लिये लेख का यह विस्तार जरूरी था।
“टाँग अड़ाना”, “टाँग खींचना” आदि भारत के राष्ट्रीय “गुण” हैं। उज्जैन की इस मध्यान्ह भोजन योजना में सबसे पहले आरोप लगाया गया कि इस्कॉन इस योजना को चलाने में सक्षम नहीं है, फ़िर जब इस्कॉन ने इस काम के लिये एक स्थान तय किया और वहाँ शेड लगाकर काम शुरु किया तो जमीन के स्वामित्व और शासन द्वारा सही/गलत भूमि दिये जाने को लेकर बवाल मचा दिया गया। जैसे-तैसे इससे निपट कर इस्कॉन ने काम शुरु किया, 10000 रोटियाँ प्रति घंटे बनाने की मशीन मंगवाई तो “भाई लोगों” ने रोटी की गुणवत्ता पर तमाम सवाल उठाये। बयानबाजियाँ हुई, अखबार रंगे गये, कहा गया कि रोटियाँ मोटी हैं, अधपकी हैं, बच्चे इसे खा नहीं सकते, बीमार पड़ जायेंगे आदि-आदि। अन्ततः कलेक्टर और जिला शिक्षा अधिकारी को खुद वहाँ जाकर रोटियों की गुणवत्ता की जाँच करनी पड़ी, न कुछ गड़बड़ी निकलना थी, न ही निकली (इस्कॉन वालों की सेटिंग भी काफ़ी तगड़ी है, और काफ़ी ऊपर तक है, ये छुटभैये नेता कहाँ लगते उसके आगे)। लेकिन ताजा आरोप (वैसे तो आरोप काफ़ी पुराना है) ज्यादा गंभीर रूप लिये हुए है, क्योंकि इसमें “धर्म” का घालमेल भी कर दिया गया है।
असल में शुरु से ही शासकीय मदद प्राप्त मदरसों ने मध्यान्ह भोजन योजना से भोजन लेने से मना कर दिया था। “उनके दिमाग में किसी ने यह भर दिया था” कि इस्कॉन में बनने वाले रोटी-सब्जी में गंगाजल और गोमूत्र मिलाया जाता है और फ़िर उस भोजन को भगवान को भोग लगाकर सभी दूर भिजवाया जाता है। काजियों और मुल्लाओं द्वारा विरोध करने के लिये “गोमूत्र” और “भगवान को भोग” नाम के दो शब्द ही काफ़ी थे, उन्होंने “धर्म भ्रष्ट होने” का आरोप लगाते हुए मध्यान्ह भोजन का बहिष्कार कर रखा था। इससे मदरसों में पढ़ने वाले गरीब बच्चे उस स्वादिष्ट भोजन से महरूम हो गये थे। कहा गया कि मन्दिर में पका हुआ और गंगाजल मिलाया हुआ भोजन अपवित्र होता है, इसलिये मदरसों में मुसलमानों को यह भोजन नहीं दिया जा सकता (जानता हूँ कि कई पाठक मन ही मन गालियाँ निकाल रहे होंगे)। कलेक्टर और इस्कॉन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने मदरसों में जाकर स्थिति स्पष्ट करने की असफ़ल कोशिश भी की, लेकिन वे नहीं माने। इस तथाकथित अपवित्र भोजन की शिकायत सीधे मानव संसाधन मंत्रालय को कर दी गई। तुरत-फ़ुरत अर्जुनसिंह साहब ने एक विशेष अधिकारी “श्री हलीम खान” को उज्जैन भेजा ताकि वे इस्कॉन में बनते हुए भोजन को खुद बनते हुए देखें, उसे चखें और शहर काजी तथा मदरसों के संचालकों को “शुद्ध उर्दू में” समझायें कि यह भोजन “ऐसा-वैसा” नहीं है, न ही इसमें गंगाजल मिला हुआ है, न ही गोमूत्र, रही बात भगवान को भोग लगाने की तो उससे धर्म भ्रष्ट नहीं होता और सिर्फ़ इस कारण से बेचारे गरीब मुसलमान बच्चों को इससे दूर न रखा जाये। काजी साहब ने कहा है कि वे एक विशेषाधिकार समिति के सामने यह मामला रखेंगे (जबकि भोजन निरीक्षण के दौरान वे खुद भी मौजूद थे) और फ़िर सोचकर बतायेंगे कि यह भोजन मदरसे में लिया जाये कि नहीं। वैसे इस योजना की सफ़लता और भोजन के स्वाद को देखते हुए पास के देवास जिले ने भी इस्कॉन से आग्रह किया है कि अगले वर्ष से उस जिले को भी इसमें शामिल किया जाये।
वैसे तो सारा मामला खुद ही अपनी दास्तान बयाँ करता है, इस पर मुझे अलग से कोई कड़ी टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन फ़िर भी यदि मध्यान्ह भोजन योजना में हो रहे भ्रष्टाचार और इसके विरोध हेतु धर्म का सहारा लेने पर यदि आपको कुछ कहना हो तो कहें…
Saturday, January 30, 2010
दीर्घकाल तक इस्लाम की आंधी से हिन्दुस्थान ने टक्कर ली है। इस प्रक्रिया में जहां एक ओर हिंदू समाज को मर्मांतक पीड़ा मिली और उसका सामाजिक एवं आर्थिक जीवन बुरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया वहीं इस्लाम को भी हिंदुत्व के उदात्त विचारों ने अपने रंग में गहरे रंग देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। भक्ति आंदोलन को अगर इस रूप में देखें तो उस कालखण्ड में एक बार ऐसा लगने लगा था कि इस्लाम का असहिष्णु जीवन प्रवाह भक्ति की महान सुरसरिता में समाहित हो जाएगा।
संतों के निर्मल और साधनापूर्ण जीवन ने देश में हमेशा सभी को प्रभावित किया। उनके चिंतन, आदर्श व्यवहार, सेवाभाव, त्यागमय जीवन और भगवद्भक्ति ने एक ओर जहां हिंदुओं में कोई भेदभाव नहीं माना वहीं इस्लाम को मानने वाले भी इसके आकर्षण में खिंचे चले आए। इन संतों के सत्संग, भजन, कीर्तन, प्रवचन आदि कार्यक्रमों में ऐसी रसधारा बहती थी कि जो इसके निकट आया वही उस में सराबोर हो गया। भक्ति को कभी कोई भेदभाव स्वीकार नहीं था। इसी के प्रभाव में आकर बहुत से मुसलमान भी हिंदू संतों के शिष्य बन गए और संतों के समान ही जीवन जीने लगे। मध्यकाल में हम देखें तो पाएंगे कि ऐसे हजारों मुस्लिम संत थे जिन्होंने हिंदुत्व के अमर तत्व को अपने इस्लाम मतावलंबियों के बीच बांटना शुरू कर दिया था। यहां हम कबीर, संत रज्जब, संत रोहल साहेब और संत शालबेग के अतिरिक्त ऐसे संतों की चर्चा करेंगे जिन्होंने भारतीय इस्लाम को एक नवीन चेहरा दिया। इस्लाम के परंपरागत असहिष्णु चेहरे से कहीं अलग भक्ति के मधुर रस से आप्लावित और सभी को आनंद देने वाला यह चेहरा था।
सोलहवीं सदी में रसखान दिल्ली के समृद्ध पठान परिवार से ताल्लुक रखते थे। लेकिन उनका सारा जीवन ही कृष्ण भक्ति का पर्याय बन गया। लोकपरंपरा में कथा आती है कि एक बार वे गोवर्धनजी में श्रीनाथ जी के दर्शन को गए तो द्वारपार ने उन्हें मुस्लिम जानकर मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया। भक्त रसखान तीन दिनों तक बिना कुछ खाए-पिए मंदिर के पास पड़े रहे और कृष्ण भक्ति के पद गाते रहे। बाद में लोगों को पता चला कि ये तो कृष्ण को अनन्य भक्त हैं। गोस्वामी विट्ठलनाथ जो को रसखान की कृष्णभक्ति के बारे में पता चला तो उन्होंने उन्हें बाकायदा गोविन्द कुण्ड में स्नान कराकर दीक्षा दी। रसखान ने भी अपना अगला जन्म भी प्रभु के श्रीचरणों में ही पाने की प्रार्थना गाई।
मानुस हों तो वही रसखान, बसौं बृज गोकुल गांव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहां बस मेरौ, चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरौ करों, नित कालिंदी कूल कदंब की डारन।।
मथुरा में यमुनातट पर रमणरेती में निर्मित इस महान कृष्ण भक्त की समाधि आज भी करोड़ों कृष्ण भक्तों के ह्दयों को लुभाती और आनन्दमय प्रवाह से भर देती है।
ऐसे ही थे बाबा फरीद। पंजाब के कोठिवाल नामक ग्राम के रहने वाले। भक्त फरीद भक्ति में तल्लीन अपनी प्रार्थना में कहते हैं- हे काग अर्थात कौवे, तू मेरा सारा शरीर चुन-चुन कर खा लेना किंतु मेरी दो आंखें मत खाना क्योंकि मुझे ईश्वर के दर्शन करने हैं- कागा सब तन खाइयो, मेरा चुन-चुन मांस। दो नैना मत खाइयो, मोहि पिया मिलन की आस।।
राजस्थान के अलवर में सोलहवीं सदी में पैदा हुए संत लालदास भी मुसलमान थे। उनका जन्म मेव मुस्लिम जाति में हुआ था। लकड़हारे के रूप में उनका प्रारंभिक जीवन व्यतीत हुआ। और इसी जीवन के कारण वे साधुओं की संगत में आ गए, मुसलमान से भक्त लालदास होगए। ऊंच-नीच और हिंदू-मुस्लिम के भेद को तो उन्होंने अपने जीवन में जाना तक नहीं। कब उन्होंने मांस खाना छोड़ा और नमाज भुला दी, ये भी उन्हें पता न चला। गांव-गांव हरि का सुमिरन करने का उपदेश करने लगे। हिरदै हरि की चाकरी पर, घर कबहुं न जाए। ऐसे पद गाते हुए उन्होंने लालपंथ की नींव रखी और भरतपुर क्षेत्र के नगला ग्राम में उनकी समाधि आज भी लालदासी पंथियों की प्रमुख दर्शन स्थली है।
भक्ति आंदोलन और मुस्लिम राजवंश
हिंदू भक्ति आंदोलन ने सामान्य मुस्लिमों से लेकर मुस्लिम सम्राटों तक के परिजनों को हिलाकर रख दिया। रहीम, अमीर खुसरो और दारा शिकोह इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। और केवल पुरूष ही नहीं मुस्लिम शहजादियां भी भक्ति के रंग में रंग गईं। इसी कड़ी में औरंगजेब की बेटी जैबुन्निसां बेगम तथा भतीजी ताज बेगम का नाम बहुत आदर से लिया जाता है।
इनमें ताज़बीबी के कृष्णभक्ति के पदों ने तो पूरी मुस्लिम सियासत में ही हलचल मचा दी। ताज़ दोनों हाथ ऊंचे कर भावविभोर होकर जिस तरह से कृष्णभक्ति के पद गाती थी, उसकी तुलना मीरा के साथ सहज ही की जा सकती है। ताज़बीबी का एक प्रसिद्ध पद है-
छैल जो छबीला, सब रंग में रंगीला
बड़ा चित्त का अड़ीला, कहूं देवतों से न्यारा है।
माल गले सोहै, नाक-मोती सेत जो है कान,
कुण्डल मन मोहै, लाल मुकुट सिर धारा है।
दुष्टजन मारे, सब संत जो उबारे ताज,
चित्त में निहारे प्रन, प्रीति करन वारा है।
नन्दजू का प्यारा, जिन कंस को पछारा,
वह वृन्दावन वारा, कृष्ण साहेब हमारा है।।
सुनो दिल जानी, मेरे दिल की कहानी तुम,
दस्त ही बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं।
देवपूजा ठानी मैं, नमाज हूं भुलानी,
तजे कलमा-कुरान साड़े गुननि गहूंगी मैं।।
नन्द के कुमार, कुरबान तेरी सुरत पै,
हूं तो मुगलानी, हिंदुआनी बन रहूंगी मैं।।
तो कृष्णभक्ति में विह्वल ताज़ मुगल सल्तनत से जुड़ी होने के बावजू़द हिंदुवानी रौ में बहने की प्रतिज्ञा करती है। ताज़ ने बाद में गोस्वामी विट्ठलनाथ से विधिवत् वैष्णव मत की दीक्षा ली।
ऐसे ही थे भक्त कारे बेग जिनका पुत्र मरणासन्न हो गया तो उसे मंदिर की देहरी पर लिटाकर वह आंसू बहाते हुए कृष्ण से कहने लगे-
एहौं रन धीर बलभद्र जी के वीर अब।
हरौं मेरी पीर क्या, हमारी बेर-बार की।।
हिंदुन के नाथ हो तो हमारा कुछ दावा नहीं,
जगत के नाथ हो तो मेरी सुध लिजिए।
काशी में जन्मे थे कबीर से कमाल। कमाल साहेब का अड़ोस-पड़ोस और सगे-संबंधी मुसलमान थे लेकिन कबीर साहेब के कारण उन्हें घर में बचपन से अलग माहौल मिला था। बचपन में ही भक्ति की धार उनमें प्रबल हो गई और राम के प्रति वे अति आसक्त हो गए। गाने लगे-
राम नाम भज निस दिन बंदे और मरम पाखण्डा,
बाहिर के पट दे मेरे प्यारे, पिंड देख बह्माण्डा ।
अजर-अमर अविनाशी साहिब, नर देही क्यों आया।
इतनी समझ-बूझ नहीं मूरख, आय-जाय सो माया।
मराठवाड़ा क्षेत्र में जन्में कृष्णभक्त शाही अली कादर साहेब ने तो गजब भक्तिपूर्ण रचनाएं की हैं। उन्हीं की सुप्रसिद्ध पदावली है- चल मन जमुना के तीर, बाजत मुरली री मुरली री।।
दाराशिकोह का नाम भला किसने नहीं सुना। मुगलिया सल्तनत के उत्तराधिकार संघर्ष में उन्हें अपने प्राणों का बलिदान करना पड़ा। वे शाहजहां के ज्येष्ठ पु्त्र थे लेकिन उनमें हिंदुत्व के उदात्त विचारों ने इतना ज्यादा प्रभाव डाला कि वे वेदों और उपनिषदों का अध्ययन करने लगे। उपनिषदों का ज्ञान फारसी में अनुदित हुआ तो इसके पीछे दारा शिकोह की तपस्या थी जो उन्होंने प्रयाग और काशी में गंगा तट पर रहते हुए की थी। उनके हिंदुत्व प्रेम के कारण ही औरंगजेब ने उनका वध करवा डाला।
अकबर के नवरत्नों में एक अब्दुर्ररहीम खानखाना को भी जहांगीर ने इसी कारण परेशान किया। अपने जीवन की संझाबेला में वे चित्रकूट आ गए और भगवान राम की भक्ति करने लगे। चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवधनरेश, जा पर विपदा परत है, सो आवत एहि देश।
राम और कृष्ण दोनों के प्रति ही रहीम के मन में गहरा अनुराग था। वे मुसलमान थे लेकिन उन्होंने सच्चे अर्थों में भारत की सहिष्णु परंपरा का अवगाहन किया। मुगलिया सल्तनत में एक समय उनका प्रभाव वर्तमान प्रधानमंत्री और केबिनेट सचिव जैसा हुआ करता था। लेकिन उनका निर्मल मन सदा ही राजनीति के छल-प्रपंचों से दूर भगवद्दभक्ति में रमता था। यही कारण है कि जो पद, दोहे और रचनाएं वह कर गए वह हमारी महान और समृद्ध विरासत का सुंदर परिचय है।
भारतीय जीवनदर्शन और मूल्यों को रहीम ने व्यक्तिगत जीवन में न सिर्फ जिया वरन् उसे शब्द देकर हमेशा के लिए अमर कर दिया। एक बार किसी ने रहीम से पूछा कि यह हाथी अपने सिर पर धूल क्यों डालता है तो रहीम ने उसे उत्तर दिया- यह उस रजकण को ढूंढता फिरता है जिसका स्पर्श पाकर अहिल्या तर गई थी।
धूर धरत निज सीस पर, कहु रहीम केहि काज।
जेहि रज मुनिपत्नी तरी, सो ढूंढत गजराज।
गुरू नानक के शिष्य मरदाना, संत रविदास के शिष्य सदना, महाराष्ट्र के संत लतीफ शाह, अमेठी के पास जायसी ग्राम के मलिक मोहम्मद जायसी, नर्मदा तट पर रमण करने वाले संत बाबा मलेक, गुजरात के ही भक्त बाबा दीन दरवेश, दरिया साहेब, अनाम जैसे संत यारी साहेब, ग्वालियर के संत बुल्ला शाह, मेहसाणा के रामभक्त मीर मुराद, नज़ीर अक़बराबादी, बंगाल के संत मुर्तजा साहेब, और तो और सम्राट शाहजहां तक के जीवन में भक्ति आंदोलन ने ऐसी लहर पैदा की इनके पग भक्ति के महान पथ पर चल पड़े।
यह भक्ति की भावना सभी को आत्मसात करने वाली थी। आज़ भी जब हम डागर बंधुओं से ध्रुवपद सुनते हैं तो हमें उस भक्ति परंपरा का अनायास स्मरण हो उठता है जिसने इस्लाम के तूफान को गंगा की लहरों के सामने नतमस्तक होने पर मजबूर कर दिया था।
यही कारण था कि इस्लाम के हिंदुत्व के साथ बढ़ते तादात्मीकरण ने कट्टरपंधी मुल्लाओँ की नींद हराम कर दी। मौलाना हाली ऐसे ही एक कट्टरपंथी मुसलमान थे जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम समन्वय के इस महान कार्य पर चिंता जताई। उन्होंने कहा-
वो दीने हिजाजी का बेबाक बेड़ा,
निशां जिसका अक्साए आलम में पहुंचा,
मज़ाहम हुआ कोई खतरा न जिसका,
न अम्मां में ठटका, न कुलज़म में झिझका,
किए पै सिपर जिसने सातों समंदर,
वो डुबा दहाने में गंगा के आकर।।
यानी मौलाना हाली दुःख प्रकट करते हुए कहते हैं कि इस्लाम का जहाज़ी बेड़ा जो सातों समुद्र बेरोक-टोक पार करता गया और अजेय रहा, वह जब हिंदुस्थान पहुंचा और उसका सामना यहां की संस्कृति से हुआ तो वह गंगा की धारा में सदा के लिए डूब गया।
मुस्लिम समाज़ पर हिंदू तथा मुस्लिम संतों की भगवद्भक्ति का इतना प्रभाव बढ़ता गया कि इस्लामी मौलवी लोगों को लगने लगा कि इस प्रकार तो हिंदुत्व इस्लाम को निगल जाएगा। इस कारण प्रतिक्रिया में आकर भारतीय मुसलमान संतों पर मौलवियों ने कुफ्र अर्थात नास्तिकता के फतवे ज़ारी कर दिये। मौलानाओं ने साधारण मुसलमानों को सावधान किया-
हमें वाइजों ने यह तालीम दी है।
कि जो काम दीनी है या दुनियावी है,
मुखालिफ़ की रीस उसमें करनी बुरी है,
निशां गैरते दीने हक का यही है,
न ठीक उसकी हरगिज़ कोई बात समझो,
वह दिन को कहे दिन तो तुम रात समझो।।
तो इस प्रकार अठारहवीं सदी आते आते हिंदु-मुस्लिम समन्वय की महान भक्ति परंपरा पर कट्टरपंथियों का ग्रहण लगना तेज़ हो गया। धूर्त और चालाक अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुस्लिमों में पनप रहे प्रेम को भी अपने लिए गंभीर खतरा माना। येन-केन-प्रकारेण वे मुसलमानों को उन हिंदुओं से सांस्कृतिक तौर पर भी अलग करने में सफल हो गए जिन हिंदुओं के साथ मुसलमानों का नाभि-नाल का सम्बंध था। आज यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि यदि अंग्रेज़ भारत में न आए होते तो निर्मल भक्ति, प्रेम तथा संतों के पवित्र एवं त्यागमयी आचरण के दैवीय आकर्षण से करोड़ों मुसलमान अपने पुरखों की संस्कृति, धर्म और परंपरा से उसी भांति जुड़ जाते और आनन्द मानते जैसे एक बच्चा अपनी मां की गोदी में सुख का अनुभव करता है।
लेखक: डॉ.
संतों के निर्मल और साधनापूर्ण जीवन ने देश में हमेशा सभी को प्रभावित किया। उनके चिंतन, आदर्श व्यवहार, सेवाभाव, त्यागमय जीवन और भगवद्भक्ति ने एक ओर जहां हिंदुओं में कोई भेदभाव नहीं माना वहीं इस्लाम को मानने वाले भी इसके आकर्षण में खिंचे चले आए। इन संतों के सत्संग, भजन, कीर्तन, प्रवचन आदि कार्यक्रमों में ऐसी रसधारा बहती थी कि जो इसके निकट आया वही उस में सराबोर हो गया। भक्ति को कभी कोई भेदभाव स्वीकार नहीं था। इसी के प्रभाव में आकर बहुत से मुसलमान भी हिंदू संतों के शिष्य बन गए और संतों के समान ही जीवन जीने लगे। मध्यकाल में हम देखें तो पाएंगे कि ऐसे हजारों मुस्लिम संत थे जिन्होंने हिंदुत्व के अमर तत्व को अपने इस्लाम मतावलंबियों के बीच बांटना शुरू कर दिया था। यहां हम कबीर, संत रज्जब, संत रोहल साहेब और संत शालबेग के अतिरिक्त ऐसे संतों की चर्चा करेंगे जिन्होंने भारतीय इस्लाम को एक नवीन चेहरा दिया। इस्लाम के परंपरागत असहिष्णु चेहरे से कहीं अलग भक्ति के मधुर रस से आप्लावित और सभी को आनंद देने वाला यह चेहरा था।
सोलहवीं सदी में रसखान दिल्ली के समृद्ध पठान परिवार से ताल्लुक रखते थे। लेकिन उनका सारा जीवन ही कृष्ण भक्ति का पर्याय बन गया। लोकपरंपरा में कथा आती है कि एक बार वे गोवर्धनजी में श्रीनाथ जी के दर्शन को गए तो द्वारपार ने उन्हें मुस्लिम जानकर मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया। भक्त रसखान तीन दिनों तक बिना कुछ खाए-पिए मंदिर के पास पड़े रहे और कृष्ण भक्ति के पद गाते रहे। बाद में लोगों को पता चला कि ये तो कृष्ण को अनन्य भक्त हैं। गोस्वामी विट्ठलनाथ जो को रसखान की कृष्णभक्ति के बारे में पता चला तो उन्होंने उन्हें बाकायदा गोविन्द कुण्ड में स्नान कराकर दीक्षा दी। रसखान ने भी अपना अगला जन्म भी प्रभु के श्रीचरणों में ही पाने की प्रार्थना गाई।
मानुस हों तो वही रसखान, बसौं बृज गोकुल गांव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहां बस मेरौ, चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरौ करों, नित कालिंदी कूल कदंब की डारन।।
मथुरा में यमुनातट पर रमणरेती में निर्मित इस महान कृष्ण भक्त की समाधि आज भी करोड़ों कृष्ण भक्तों के ह्दयों को लुभाती और आनन्दमय प्रवाह से भर देती है।
ऐसे ही थे बाबा फरीद। पंजाब के कोठिवाल नामक ग्राम के रहने वाले। भक्त फरीद भक्ति में तल्लीन अपनी प्रार्थना में कहते हैं- हे काग अर्थात कौवे, तू मेरा सारा शरीर चुन-चुन कर खा लेना किंतु मेरी दो आंखें मत खाना क्योंकि मुझे ईश्वर के दर्शन करने हैं- कागा सब तन खाइयो, मेरा चुन-चुन मांस। दो नैना मत खाइयो, मोहि पिया मिलन की आस।।
राजस्थान के अलवर में सोलहवीं सदी में पैदा हुए संत लालदास भी मुसलमान थे। उनका जन्म मेव मुस्लिम जाति में हुआ था। लकड़हारे के रूप में उनका प्रारंभिक जीवन व्यतीत हुआ। और इसी जीवन के कारण वे साधुओं की संगत में आ गए, मुसलमान से भक्त लालदास होगए। ऊंच-नीच और हिंदू-मुस्लिम के भेद को तो उन्होंने अपने जीवन में जाना तक नहीं। कब उन्होंने मांस खाना छोड़ा और नमाज भुला दी, ये भी उन्हें पता न चला। गांव-गांव हरि का सुमिरन करने का उपदेश करने लगे। हिरदै हरि की चाकरी पर, घर कबहुं न जाए। ऐसे पद गाते हुए उन्होंने लालपंथ की नींव रखी और भरतपुर क्षेत्र के नगला ग्राम में उनकी समाधि आज भी लालदासी पंथियों की प्रमुख दर्शन स्थली है।
भक्ति आंदोलन और मुस्लिम राजवंश
हिंदू भक्ति आंदोलन ने सामान्य मुस्लिमों से लेकर मुस्लिम सम्राटों तक के परिजनों को हिलाकर रख दिया। रहीम, अमीर खुसरो और दारा शिकोह इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। और केवल पुरूष ही नहीं मुस्लिम शहजादियां भी भक्ति के रंग में रंग गईं। इसी कड़ी में औरंगजेब की बेटी जैबुन्निसां बेगम तथा भतीजी ताज बेगम का नाम बहुत आदर से लिया जाता है।
इनमें ताज़बीबी के कृष्णभक्ति के पदों ने तो पूरी मुस्लिम सियासत में ही हलचल मचा दी। ताज़ दोनों हाथ ऊंचे कर भावविभोर होकर जिस तरह से कृष्णभक्ति के पद गाती थी, उसकी तुलना मीरा के साथ सहज ही की जा सकती है। ताज़बीबी का एक प्रसिद्ध पद है-
छैल जो छबीला, सब रंग में रंगीला
बड़ा चित्त का अड़ीला, कहूं देवतों से न्यारा है।
माल गले सोहै, नाक-मोती सेत जो है कान,
कुण्डल मन मोहै, लाल मुकुट सिर धारा है।
दुष्टजन मारे, सब संत जो उबारे ताज,
चित्त में निहारे प्रन, प्रीति करन वारा है।
नन्दजू का प्यारा, जिन कंस को पछारा,
वह वृन्दावन वारा, कृष्ण साहेब हमारा है।।
सुनो दिल जानी, मेरे दिल की कहानी तुम,
दस्त ही बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं।
देवपूजा ठानी मैं, नमाज हूं भुलानी,
तजे कलमा-कुरान साड़े गुननि गहूंगी मैं।।
नन्द के कुमार, कुरबान तेरी सुरत पै,
हूं तो मुगलानी, हिंदुआनी बन रहूंगी मैं।।
तो कृष्णभक्ति में विह्वल ताज़ मुगल सल्तनत से जुड़ी होने के बावजू़द हिंदुवानी रौ में बहने की प्रतिज्ञा करती है। ताज़ ने बाद में गोस्वामी विट्ठलनाथ से विधिवत् वैष्णव मत की दीक्षा ली।
ऐसे ही थे भक्त कारे बेग जिनका पुत्र मरणासन्न हो गया तो उसे मंदिर की देहरी पर लिटाकर वह आंसू बहाते हुए कृष्ण से कहने लगे-
एहौं रन धीर बलभद्र जी के वीर अब।
हरौं मेरी पीर क्या, हमारी बेर-बार की।।
हिंदुन के नाथ हो तो हमारा कुछ दावा नहीं,
जगत के नाथ हो तो मेरी सुध लिजिए।
काशी में जन्मे थे कबीर से कमाल। कमाल साहेब का अड़ोस-पड़ोस और सगे-संबंधी मुसलमान थे लेकिन कबीर साहेब के कारण उन्हें घर में बचपन से अलग माहौल मिला था। बचपन में ही भक्ति की धार उनमें प्रबल हो गई और राम के प्रति वे अति आसक्त हो गए। गाने लगे-
राम नाम भज निस दिन बंदे और मरम पाखण्डा,
बाहिर के पट दे मेरे प्यारे, पिंड देख बह्माण्डा ।
अजर-अमर अविनाशी साहिब, नर देही क्यों आया।
इतनी समझ-बूझ नहीं मूरख, आय-जाय सो माया।
मराठवाड़ा क्षेत्र में जन्में कृष्णभक्त शाही अली कादर साहेब ने तो गजब भक्तिपूर्ण रचनाएं की हैं। उन्हीं की सुप्रसिद्ध पदावली है- चल मन जमुना के तीर, बाजत मुरली री मुरली री।।
दाराशिकोह का नाम भला किसने नहीं सुना। मुगलिया सल्तनत के उत्तराधिकार संघर्ष में उन्हें अपने प्राणों का बलिदान करना पड़ा। वे शाहजहां के ज्येष्ठ पु्त्र थे लेकिन उनमें हिंदुत्व के उदात्त विचारों ने इतना ज्यादा प्रभाव डाला कि वे वेदों और उपनिषदों का अध्ययन करने लगे। उपनिषदों का ज्ञान फारसी में अनुदित हुआ तो इसके पीछे दारा शिकोह की तपस्या थी जो उन्होंने प्रयाग और काशी में गंगा तट पर रहते हुए की थी। उनके हिंदुत्व प्रेम के कारण ही औरंगजेब ने उनका वध करवा डाला।
अकबर के नवरत्नों में एक अब्दुर्ररहीम खानखाना को भी जहांगीर ने इसी कारण परेशान किया। अपने जीवन की संझाबेला में वे चित्रकूट आ गए और भगवान राम की भक्ति करने लगे। चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवधनरेश, जा पर विपदा परत है, सो आवत एहि देश।
राम और कृष्ण दोनों के प्रति ही रहीम के मन में गहरा अनुराग था। वे मुसलमान थे लेकिन उन्होंने सच्चे अर्थों में भारत की सहिष्णु परंपरा का अवगाहन किया। मुगलिया सल्तनत में एक समय उनका प्रभाव वर्तमान प्रधानमंत्री और केबिनेट सचिव जैसा हुआ करता था। लेकिन उनका निर्मल मन सदा ही राजनीति के छल-प्रपंचों से दूर भगवद्दभक्ति में रमता था। यही कारण है कि जो पद, दोहे और रचनाएं वह कर गए वह हमारी महान और समृद्ध विरासत का सुंदर परिचय है।
भारतीय जीवनदर्शन और मूल्यों को रहीम ने व्यक्तिगत जीवन में न सिर्फ जिया वरन् उसे शब्द देकर हमेशा के लिए अमर कर दिया। एक बार किसी ने रहीम से पूछा कि यह हाथी अपने सिर पर धूल क्यों डालता है तो रहीम ने उसे उत्तर दिया- यह उस रजकण को ढूंढता फिरता है जिसका स्पर्श पाकर अहिल्या तर गई थी।
धूर धरत निज सीस पर, कहु रहीम केहि काज।
जेहि रज मुनिपत्नी तरी, सो ढूंढत गजराज।
गुरू नानक के शिष्य मरदाना, संत रविदास के शिष्य सदना, महाराष्ट्र के संत लतीफ शाह, अमेठी के पास जायसी ग्राम के मलिक मोहम्मद जायसी, नर्मदा तट पर रमण करने वाले संत बाबा मलेक, गुजरात के ही भक्त बाबा दीन दरवेश, दरिया साहेब, अनाम जैसे संत यारी साहेब, ग्वालियर के संत बुल्ला शाह, मेहसाणा के रामभक्त मीर मुराद, नज़ीर अक़बराबादी, बंगाल के संत मुर्तजा साहेब, और तो और सम्राट शाहजहां तक के जीवन में भक्ति आंदोलन ने ऐसी लहर पैदा की इनके पग भक्ति के महान पथ पर चल पड़े।
यह भक्ति की भावना सभी को आत्मसात करने वाली थी। आज़ भी जब हम डागर बंधुओं से ध्रुवपद सुनते हैं तो हमें उस भक्ति परंपरा का अनायास स्मरण हो उठता है जिसने इस्लाम के तूफान को गंगा की लहरों के सामने नतमस्तक होने पर मजबूर कर दिया था।
यही कारण था कि इस्लाम के हिंदुत्व के साथ बढ़ते तादात्मीकरण ने कट्टरपंधी मुल्लाओँ की नींद हराम कर दी। मौलाना हाली ऐसे ही एक कट्टरपंथी मुसलमान थे जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम समन्वय के इस महान कार्य पर चिंता जताई। उन्होंने कहा-
वो दीने हिजाजी का बेबाक बेड़ा,
निशां जिसका अक्साए आलम में पहुंचा,
मज़ाहम हुआ कोई खतरा न जिसका,
न अम्मां में ठटका, न कुलज़म में झिझका,
किए पै सिपर जिसने सातों समंदर,
वो डुबा दहाने में गंगा के आकर।।
यानी मौलाना हाली दुःख प्रकट करते हुए कहते हैं कि इस्लाम का जहाज़ी बेड़ा जो सातों समुद्र बेरोक-टोक पार करता गया और अजेय रहा, वह जब हिंदुस्थान पहुंचा और उसका सामना यहां की संस्कृति से हुआ तो वह गंगा की धारा में सदा के लिए डूब गया।
मुस्लिम समाज़ पर हिंदू तथा मुस्लिम संतों की भगवद्भक्ति का इतना प्रभाव बढ़ता गया कि इस्लामी मौलवी लोगों को लगने लगा कि इस प्रकार तो हिंदुत्व इस्लाम को निगल जाएगा। इस कारण प्रतिक्रिया में आकर भारतीय मुसलमान संतों पर मौलवियों ने कुफ्र अर्थात नास्तिकता के फतवे ज़ारी कर दिये। मौलानाओं ने साधारण मुसलमानों को सावधान किया-
हमें वाइजों ने यह तालीम दी है।
कि जो काम दीनी है या दुनियावी है,
मुखालिफ़ की रीस उसमें करनी बुरी है,
निशां गैरते दीने हक का यही है,
न ठीक उसकी हरगिज़ कोई बात समझो,
वह दिन को कहे दिन तो तुम रात समझो।।
तो इस प्रकार अठारहवीं सदी आते आते हिंदु-मुस्लिम समन्वय की महान भक्ति परंपरा पर कट्टरपंथियों का ग्रहण लगना तेज़ हो गया। धूर्त और चालाक अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुस्लिमों में पनप रहे प्रेम को भी अपने लिए गंभीर खतरा माना। येन-केन-प्रकारेण वे मुसलमानों को उन हिंदुओं से सांस्कृतिक तौर पर भी अलग करने में सफल हो गए जिन हिंदुओं के साथ मुसलमानों का नाभि-नाल का सम्बंध था। आज यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि यदि अंग्रेज़ भारत में न आए होते तो निर्मल भक्ति, प्रेम तथा संतों के पवित्र एवं त्यागमयी आचरण के दैवीय आकर्षण से करोड़ों मुसलमान अपने पुरखों की संस्कृति, धर्म और परंपरा से उसी भांति जुड़ जाते और आनन्द मानते जैसे एक बच्चा अपनी मां की गोदी में सुख का अनुभव करता है।
लेखक: डॉ.
Friday, January 29, 2010
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» अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने, हों बड़े,
एक पत्र-छाँह भी माँग मत, माँग मत, माँग मत!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
तू न थकेगा कभी!
तू न थमेगा कभी!
तू न मुड़ेगा कभी!-कर शपथ! कर शपथ! कर शपथ!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
यह महान दृश्य है-
चल रहा मनुष्य है
अश्रु-स्वेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
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यह महान दृश्य है-
चल रहा मनुष्य है
अश्रु-स्वेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
Wednesday, January 27, 2010
हमारे समाज में ब्लागिंग के बारे में बहुत गलतफहमियां हैं , लोग ऐसा मानते हैं कि हमलोग व्यर्थ में अपना समय जाया करते हैं, पर मुझे ऐसा नहीं महसूस होता। आज हिन्दी ब्लॉगिंग में किसी क्षेत्र के विशेषज्ञों की संख्या नाममात्र की है , फिर भी मुझे ब्लोगरों के अनुभवो का पढना अच्छा लगता है। जहां एक ओर उनका आलेख आम जरूरतों से जुडा होता है , वहीं कई प्रकार की टिप्पणियां भी पोस्ट के हर पक्ष को उजागर करने में समर्थ होती है। यही कारण है कि पत्र पत्रिकाओं की तुलना में ब्लॉग की प्रविष्टियों को पढना मुझे अच्छा लगता है।कौन कहता है कि हम सारे ब्लॉगर मिलकर समाज को , देश को , राष्ट्र को नहीं बदल सकते , हमारे हिंदी ब्लॉग जगत में आज के भारतवर्ष की सबसे बडी समस्या सांप्रदायिक मनमुटाव को दूर कर सौहार्द बनाने की कोशिश में इतने पोस्ट लिखे गए हैं, सभी लेखकों को शुभकामनाएं !!
परमजीत बाली जी की पोस्ट
कितने धर्म है मेरे देश में ,
पर हम अकेले अधर्म को
नहीं हरा पा रहे हैं।
क्यूंकि यहां सभी अपनी अपनी ढपली बजा रहे हैं।
अपनी अपनी खिचडी पका रहे हैं।।
लोकसंघर्ष की पोस्ट
हिन्दी में दलित-साहित्य का इतिहास साहित्य की जनतांत्रिक परम्परा तथा भाषा के सामाजिक आधार के विस्तार के साथ जुड़ा हुआ है। इसे सामंती व्यवस्था के अवसान, जो निश्चित ही पुरोहितवाद के लिए भी एक झटका साबित हुआ तथा समाज में जनतांत्रिक सोच के उदय, भले ही रूढ़िग्रस्त ही क्यों न हो, के साथ ही प्रजातांत्रिक शासन-व्यवस्था के एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में भी देखा जा सकता है।
आर.के.भारद्वाज जी की कहानी : मसखरा
हमारे गांव में सभी धर्मों के लोग थे, हिन्दू मुस्लिम, सिक्ख ईसाई जैन एक इंग्लैण्ड की वासी मेम भी थी । पूरा गांव उसे मेम के नाम से ही जानता था असली नाम कम से कम मुझे तो पता नहीं है । हरिजन भी थे, सफाई कर्मी भी थे कभी किसी के साथ न तो हमने कोई झगडा सुना न देखा । कहना अतिशयोक्ति न होगी कि हमारा गांव एक आदर्श गांव था ।
कवि राजेश चेतन जी का तीन रंग
हिन्दु मुस्लिम सिक्ख ईसाई
एक ट्रक पर सवार
कर रहे थे तिरंगे झण्डे पर विचार
हिन्दु ने कहा -
हम हैं गाँधी के बेटे लायक
अहिंसा के नायक
वन्देमातरम् के गायक
छोड़ चुके हैं केसर की घाटी
क्योंकि हमको प्यारी है भारत की माटी
हम हैं भारत पर कुरबान
इसलिये ये रंग केसरिया हमारी शान।
डॉ संत कुमार टंडन रसिक जी का आलेख 'संत मलूक दास'
हिन्दी के संत कवियों की परंपरा में कदाचित् अंतिम थे बाबा मलूक दास , जिनका जन्म 1574 (वैशाख वदी 5 संवत 1631) कडा , इलाहाबाद , अब कौशाम्बी जनपद में कक्कड खत्री परिवार में हुआ था। मलूक दास गृहस्थ थे , फिर भी उन्होने उच्च संत जीवन व्यतीत किया। सांप्रदायिक सौहार्द के वे अग्रदूत थे। इसलिए हिन्दू और मुसलमान दोनो इनके शिष्य थे .. भारत से लेकर मकका तक। धार्मिक आडंबरों के आलोचक संत मलूकदास उद्दांत मानवीय गुणों के पोषक थे और इन्हीं गुणों को लौकिक और पारलौकिक जीवन की सफलता का आधार मानते थे। दया, धर्म , सेवा , परोपकार यही उनके जीवन के आदर्श थे।
शालिनी नारंग जी का मेरे जीवन में धर्म का महत्व
जहाँ तक जीवन में धर्म के महत्व का प्रश्न है तो मैं यह मानती हूँ कि धर्म से ज्यादा अध्यात्म जीवन के लिए जरुरी है।
भारत में हिन्दु, मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख धर्म और फिर इन धर्मों से जुड़ी हुई अनेक शाखाएँ हैं। भारत में चार हजार भाषाएँ हैं, जातियाँ हैं तो धर्म भी इतने ही हो सकते हैं क्योंकि धर्म का जाति से चोली-दामन का रिश्ता है। कैसे हैं ये धर्म? संकीर्ण विचारों से ग्रस्त, अनेकानेक मनगढ़न्त मान्यताओं व धारणाओं में कैद तथा सिर्फ अपने धर्माचरण के नियमों के प्रति प्रतिबद्ध। कार्ल मार्क्स ने सही कहा है कि “धर्म अफीम का नशा है”।
राजश्री जी की कविताएं 'हमारा भारत'
हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई,
हम सब है यहाँ भाई-भाई,
इसलिए अनेकता में लोगों,
ने एकता यहाँ है पाई।
पर अब न जाने भारत को,
किसकी लगी है बुरी नज़र,
चारों ओर भारत के प्रांतों में,
मचा हुआ है अब कहर।
रत्नाकर मिश्रा जी के द्वारा भारत के रोचक तथ्यों के बारे में लिखा संग्रह
- भारत के इतिहास के अनुसार, आखिरी 100000 वर्षों में किसी भी देश पर हमला नहीं किया है।
- जब कई संस्कृतियों 5000 साल पहले ही घुमंतू वनवासी थे, भारतीय सिंधु घाटी (सिंधु घाटी सभ्यता) में हड़प्पा संस्कृति की स्थापना की।
- भारत का अंग्रेजी में नाम ‘इंडिया’ इंडस नदी से बना है, जिसके आस पास की घाटी में आरंभिक सभ्यताएं निवास करती थी। आर्य पूजकों में इस इंडस नदी को सिंधु कहा।
- पर्शिया के आक्रमकारियों ने इसे हिन्दु में बदल दिया। नाम ‘हिन्दुस्तान’ ने सिंधु और हीर का संयोजन है जो हिन्दुओं की भूमि दर्शाता है।
महाशक्ति समूह का 'जय गुरू नानकदेव'
गुरू नानक जी को पंजाबी, संस्कृत, एवं फारसी का ज्ञान था। बचपन से ही इनके अंदर आध्यत्म और भक्ति भावना का संचार हो चुका था। और प्रारम्भ से ही संतों के संगत में आ गये थे। विवाह हुआ तथा दो संतान भी हुई, किन्तु पारिवारिक माह माया में नही फँसे। वे कहते थे “जो ईश्वर को प्रमे से स्मरण करे, वही प्यारा बन्दा”। हिन्दू मसलमान दोनो ही इनके शिष्य बने। देश-विदेश की यात्रा की, मक्का गये। वहॉं काबा की ओर पैर कर के सो रहे थे।
नीशु जी की पोस्ट 'हर आतंकी मुसलमान क्यों ???????'
हर मुसलमान आतंकवादी है क्या ? यहां पर आतंक को धर्म से जोड़ते है बहुत से लोग और मैंनें इस बात को कभी समर्थन नहीं किया है कि मुसलमान ही केवल आतंकवादी है .............कई लोगों का प्रश्न है कि फिर क्यों हर आतंकवादी मुसलमान क्यों है ? इसका सीधा सा उत्तर यह है कि हमारा नजरिया।।। हम क्या देखना चाहते हैं और क्या समझना चाहते हैं । बात मैं कश्मीर से जुड़ी हुई करता हूँ कि वहां पर मरने वाला मुसलमान क्या आतंकवादी होता है ? शायद इसका जवाब आप के पास हो ।
पोफेसर अश्विनी केशरवानी जी का 'प्राचीन ग्रंथों में राष्ट्रीय एकता'
भारत विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों और सम्प्रदायों का संगम स्थल है। यहां सभी धर्मों और सम्प्रदायों को बराबर का दर्जा मिला है। हिंदु धर्म के अलावा जैन, बौद्ध और सिक्ख धर्म का उद्भव यहीं हुआ है। अनेकता के बावजूद उनमें एकता है। यही कारण है कि सदियों से उनमें एकता के भाव परिलक्षित होते रहे हैं। कदाचित् हमारा दृष्टिकोण उदारवादी है। हम सत्य और अहिंसा का आदर करते हैं। हमारे मूल्य समयातीत हैं जिन पर हमारे ऋषि-मुनियों और विचारकों ने बल दिया है। हमारे इन मूल्यों को सभी धर्मग्रंथों में स्थान मिला है। चाहे कुरान हो या बाइबिल, गुरू ग्रंथ साहिब हाक या गीता, हजरत मोहम्मद, ईसा मसीह, जोरोस्त्र, गुरूनानक, बुद्ध और महावीर, सभी ने मानव मात्र की एकता, सार्वभौमिकता और शांति की महायात्रा पर जोर दिया है। भारत के लोग चाहे किसी भी मजहब के हों, अन्य धर्मों का आदर करना जानते हैं। क्यों कि सभी धर्मों का सार एक ही है। इसीलिए हमारा राष्ट्र धर्म निरपेक्ष है।
पं डी के शर्मा वत्स जी द्वारा प्रेषित आलेख
सृ्ष्टि में जल प्रलय की ऐतिहासिक घटना तो संसार की समस्त सभ्यताओं में पाई जाती है। भाषा के बदलावों और लम्बे कालखंड के चलते भी आज तक इस घटना में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। सनातन धर्म में राजा मनु की यही कथा यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में "हजरत नूह की नौका" नाम से वर्णित की जाती है।
जावा, मलेशिया,इंडोनेशिया, श्रीलंका आदि विभिन्न देशों के लोगों ने अपनी लोक परम्पराओं में गीतों के माध्यम से इस घटना को आज भी जीवंत बनाए रखा है। इसी तरह धर्मग्रंथों से अलग हटकर भी इस घटना की जानकारी हमें विश्व के सभी देशों की लोक परम्पराओं के माध्यम से जानने को मिल जाती है।
सत्यजीत प्रकाश जी लिखित 'मैं हिन्दू क्यूं हूं'
मैं घोषणा करता हूं कि मैं एक हिंदू हूं, हिंदू इसलिए कि यह हमें स्वतंत्रता देता है, हम चाहें जैसे जिए. हम चाहें ईश्वर को माने या ना माने. मंदिर जाएं या नहीं जाएं, हम शैव्य बने या शाक्त या वैष्णव. हम चाहे गीता का माने या रामायण को, चाहे बुद्ध या महावीर या महात्मा गांधी मेरे आदर्श हों, चाहे मनु को माने या चार्वाक को. यही एक धर्म है जो एक राजा को बुद्ध बनने देता है, एक राजा को महावीर, एक बनिया को महात्मा, एक मछुआरा को वेदव्यास. मुझे अभिमान है इस बात का कि मैं हिंदू हूं. लेकिन साथ ही मैं घोषणा करता हूं कि मुस्लिम धर्म और ईसाई धर्म भी मेरे लिए उतने ही आदरणीय हैं जितना हिंदू धर्म. पैगम्बर मोहम्मद और ईसा मसीह मेरे लिए उतने पूज्य हैं जितने कि राम
वैदिक धर्म के द्वारा लिखा गया आलेख
मत, पन्थ या सम्प्रदाय: यह मनुष्य का अपना बनाया हुआ 'मत' है जिसे हम मत, मज़हब, पन्थ तथा सम्प्रदाय आदि कह सकते हैं परन्तु इन को 'धर्म' समझना अपनी ही मूर्खता का प्रदर्शन करना है। हिन्दू, मुस्िलम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौध, इत्यादि सब मत, मज़हब, सम्प्रदाय हैं और जो लोग (तथाकथित साधु, सन्त, पीर, फ़कीर, गुरु, आचार्य, महात्मादि) मतमतान्तरों पर 'धर्म' की मुहर लगाकर लागों के समक्ष पेश करते हैं और प्रचार-प्रसार करते हैं वे बहुत बड़ी ग़लती करते हैं तथा पाप के भागी बनते हैं।
पाखण्ड क्या है? धर्म की दृष्िट में झूठ और फ़रेब का दूसरा नाम पाखण्ड है। जो वेद विरुद्ध है, सत्य के विपरीत है और प्रकृति नियमों के विपरीत है – ऐसी बातें करना या मानना पाखण्ड है। धर्म के नाम पर अधर्म फैलाना या धर्म की आढ़ में, ऐषणाओं (पुत्रेषणा, वित्तेषणा और लोकेषणा) की पूर्ति के लिये, दूसरों से ढौंग करना/कराना, फरेब करना/कराना, धोखाधड़ी करना/कराना, अपने शर्मनाक कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिये पूजा के योग्य देवी-देवताओं तथा महापुरुषों (भगवानों) के शुद्ध-पवित्र जीवन को कलंकित करना और स्वरचित मनघड़त कहानियों के माध्यम से उनकी लाज उछालना और कलंकित करना आदि - इत्यादि 'पाखण्ड' या 'पोपलीला' कहाता है। उपरोक्त के अतिरिक्त धर्म का ग़लत ढंग से प्रचार-प्रसार करना तथा स्वार्थ पूर्ति हेतु जन-साधारण की भावनाओं से खिलवाड़ कर उन्हें ग़लत मार्ग दिखाना भी 'पाखण्ड' है। 'मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र' का अनर्थ कर, ग़लत अर्थ निकालकर एवं ग़लत प्रयोग कर भोली-भाली जनता को लूटना आदि पाखण्ड की श्रेणी में आते हैं।
गौरव अवस्थी जी की रचना 'बस करता रहूंगा कर्म'
आज मैंने सोचा
क्यों न कर लिया जाय धर्म परिवर्तन !
परिवर्तित कर लेने से धर्म
सफल हो सकता है जीवन ।
हिंदू धर्म में मज़ा नही है ,
देवी देवताओं का पता नही है!
कितने यक्ष हैं कितने देवता ,
इनकी तो कोई थाह नही है !
कॉलेज की किताबें कम नही ,
फिर वेद पुराण पढने का समय कहाँ ?
ब्रह्मचर्य का पालन कर के
बनना नहीं है मुनिदेव !
पंकज उपकरे जी की सामाजिक समता और हिन्दू
हिन्दु कौन है ? हिन्दु शब्द की व्याख्या क्या है ? इस पर अनेक बार काफी विवाद खड़े किये जाते हैं, ऐसा हम सभी का सामान्य अनुभव है। हिन्दु शब्द की अनेक व्याख्यायें हैं, किन्तु कोई भी परिपूर्ण नहीं है। क्योंकि हरेक में अव्याप्ति अथवा अतिव्याप्ति का दोष है। किन्तु कोई सर्वमान्य व्याख्या नहीं है, केवल इसीलिये क्या हिन्दु समाज के अस्तित्व से इन्कार किया जा सकेगा ? मेरी यह मान्यता है कि हिन्दु समाज है और उस नाम के अन्तर्गत कौन आते हैं, इस सम्बन्ध में भी सभी बन्धुओं की एक निश्चित व सामान्य धारणा है, जो अनेक बार अनेक प्रकारों से प्रकट होती है। कुछ वर्ष पूर्व सरकार ने 'हिन्दु कोड' बनाया। उसे बनाने में पं. नेहरू तथा डॉ. आम्बेडकर आदि अगुवा थे। यहां के बहुसंख्य समुदाय के लिये यह कोड लागू करने के विचार से अन्ततोगत्वा उन्हें इस कोड को 'हिन्दु कोड' ही कहना पड़ा तथा वह किन लोगों को लागू होगा, यह बताते समय उन्हें यही कहना पड़ा कि मुसलमान, ईसाई, पारसी तथा यहुदी लोगों को छोड़कर अन्य सभी के लिये-अर्थात् सनातनी, आर्य समाजी, जैन, सिक्ख, बौद्ध-सभी को यह लागू होगा। आगे चलकर तो यहां तक कहा है कि इनके अतिरिक्त और जो भी लोग होंगे, उन्हें भी यह कोड लागू होगा। 'हमें यह लागू नहीं होता' यह सिद्ध करने का दायित्व भी उन्हीं पर होगा।
हाँ....मैं, सलीम खान हिन्दू हूँ !!!
हिंदू शब्द अपने आप में एक भौगोलिक पहचान लिए हुए है, यह सिन्धु नदी के पार रहने वाले लोगों के लिए इस्तेमाल किया गया था या शायेद इन्दुस नदी से घिरे स्थल पर रहने वालों के लिए इस्तेमाल किया गया था। बहुत से इतिहासविद्दों का मानना है कि 'हिंदू' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अरब्स द्वारा प्रयोग किया गया था मगर कुछ इतिहासविद्दों का यह भी मानना है कि यह पारसी थे जिन्होंने हिमालय के उत्तर पश्चिम रास्ते से भारत में आकर वहां के बाशिंदों के लिए इस्तेमाल किया था इसी कारण भारत के कई विद्वानों और बुद्धिजीवियों का कहना है कि 'हिन्दु शब्द' के इस्तेमाल को धर्म के लिए प्रयोग करने के बजाये इसे सनातन या वैदिक धर्म कहना चाहिए. स्वामी विवेकानंद जैसे महान व्यक्ति का कहना है कि "यह वेदंटिस्ट धर्म" होना चाहिए
इस प्रकार भारतवर्ष में रहने वाले सभी बाशिंदे हिन्दू हैं, भौगोलिक रूप से! चाहे वो मैं हूँ या कोई अन्य
अनिल पुसादकर जी की पोस्ट
अगर मेरे शहर मे आग लगेगी तो जलूंगा मै और मेरे भाई लोग्।सबकी चिता की राख पर रोने वाले रूदाली लोग उसकी आंच पर अपनी राजनैतिक रोटी सेकेंगे।उस समय किसी को बचाने के लिये कथित धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदार और कथित मानवाधिकारवादी नही होंगे।बाद मे हम अपने हाथ देखेंगे तो उस पर लगे खून के निशान हम तमाम उम्र जीने नही देंगे।तब मुझे सत्तार उर्फ़ रज़्ज़ू जो हमारे लिये राजेन्द्र है माफ़ नही करेगा?उसकी बहन मेरी कलाई पर राखी बांधने से पहले मेरा हाथ काट लेने को सोचेगी।मै ये सब कहानी किस्से नही गढ रहा हूं।कभी भी आना रायपुर की मौधापारा मस्ज़िद के ठीक सामने रहता है आप लोगो का सत्तार।उसके घर जाकर आवाज़ लगाना राजेन्द्र ,राजेन्द्र। अगर अम्मा घर पर हुई तो अन्दर से ही कहेगी नही है बेटा राजेन्द्र घर पर्।सभी पाठको से क्षमा चाह्ते हुये कि इस घटिया मामले पर मैने पोस्ट क्यो लिख दी।
ये हैं एक ऐसे इंसान जो हिन्दु के साथ हैं मुसलमान
अपने देश में आजादी के बाद से हिन्दु और मुसलमान को लेकर विवाद होता रहा है। हर कोई बस अपने धर्म को ही बेहतर बताने की कोशिश में बरसों से लगा है। ऐसे में अपने देश में ही ऐसी कर्इं मिसालें सामने आती रहतीं हैं जो सर्वधर्म सद्भाव के लिए एक मील का पत्थर होती हैं। ऐसी ही एक मिसाल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भी देखने का मिलती है। ये मिसाल है एक ऐसे इंसान जीवन लाल साहू की जो पैदा तो हिन्दु धर्म में हुए हैं और हिन्दु हैं भी। लेकिन इनको जितना प्यार अपने हिन्दु धर्म से है उतना ही मुस्लिम धर्म ही नहीं बल्कि ईसाई और सिख धर्म से भी है। जीवन लाल जहां नवरात्रि में 9 दिनों तक उपवास रखते हैं, वहीं तीस दिनों का न सिर्फ रोजा रखते हैं बल्कि नमाज अदा करने के साथ-साथ ईद भी मनाते हैं। अभी बकरीद पड़ी तो वे अपने फिल्म सी शूटिंग छोड़कर
बकरीद मनाने अपने घर रायपुर आए गए।
हिन्दुओं पर सांप्रदायिकता का आरोप क्या सही है ??
कोई भी धर्म देश और काल के अनुरूप एक आचरण पद्धति होता है। हर धर्म के पांच मूल सिद्धांत होते हैं, सत्य का पालन ,जीवों पर दया , भलाई , इंद्रीय संयम , और मानवीय उत्थान की उत्कंठा। लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि पूजा , नमाज , हवन या सत्संग कर लेने से उनका उत्थान नहीं होनेवाला। धर्म निरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों और ईसाईयों के मुद्दे पर देश में अनावश्यक हंगामा खडा किया जाना और राम मंदिर तथा बाबरी मस्जिद जैसे सडे प्रसंगों को तूल देना हमारा धर्म नहीं है।
आज इस राजनीतिक वातावरण के परिप्रेक्ष्य में 'हिन्दू' शब्द की जितनी परिभाषा राजनेताओं की ओर से दी जा रही हैं , उतनी परिमार्जित परिभाषा तो विभिन्न धर्म सुधारकों , विद्वानों , तथा चिंतकों ने कभी नहीं की होगी।
आखिर कुछ मुसलमान भारतीयता को स्वीकार क्यों नही करते!
हमारे गांव के सभी मुसलमान काका, चाचा और दादा किसी भी आंतकवादी संगठन को नही जानते और न ही वह रेडियों तेहरान, बगदाद या कराची सुनते है। और न तो वह इस्लाम के प्रसार-प्रचार या कट्टरता की बात करते है, वे सिर्फ़ अपने खेतों की, मवेशियों की, गांव की और अपने सुख व दुख की बात करते है। वो गंगा स्नान भी जाते है और धार्मिक आयोजनों में भी शरीक होते है, और ऐसा हिन्दू भी करते है, हम तज़ियाओं में शामिल होते है, उनके हर उतसव में भी और उनके पूज्यनीय मज़ारों पर भी फ़ूल चढ़ाते है। यकीन मानिए ये सब करते वक्त हम दोनों कौमों के किसी भी व्यक्ति को ये एहसास नही होता कि हम अलाहिदा कौमों से है और यही सत्य भी है। हमारे पूर्वज एक, भाषा एक, घर एक, गांव एक और एक धरती से है, जो हमारा पोषण करती है। इसलिए मेरा अनुरोध है इन दोनों कौमों के कथित व स्वंभू लम्बरदारों से कि कृपया जहरीली बातें न करे और गन्दे इतिहास की भी नही जो हमारा नही था । सिर्फ़ चन्द अय्यास राजाओं और नवाबों और धार्मिक बेवकूफ़ों का था वह अतीत जिसके बावत वो अपनी इबारते लिखवाते थे और कुछ बेवकूफ़ इतिहासकार उसी इतिहास के कुछ पन्नों की नकल कर अपनी व्यथित और बीमार मनोदशा के तमाम तर्क देकर समाज़ में स्थापित होना चाहते है।
परमजीत बाली जी की पोस्ट
कितने धर्म है मेरे देश में ,
पर हम अकेले अधर्म को
नहीं हरा पा रहे हैं।
क्यूंकि यहां सभी अपनी अपनी ढपली बजा रहे हैं।
अपनी अपनी खिचडी पका रहे हैं।।
लोकसंघर्ष की पोस्ट
हिन्दी में दलित-साहित्य का इतिहास साहित्य की जनतांत्रिक परम्परा तथा भाषा के सामाजिक आधार के विस्तार के साथ जुड़ा हुआ है। इसे सामंती व्यवस्था के अवसान, जो निश्चित ही पुरोहितवाद के लिए भी एक झटका साबित हुआ तथा समाज में जनतांत्रिक सोच के उदय, भले ही रूढ़िग्रस्त ही क्यों न हो, के साथ ही प्रजातांत्रिक शासन-व्यवस्था के एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में भी देखा जा सकता है।
आर.के.भारद्वाज जी की कहानी : मसखरा
हमारे गांव में सभी धर्मों के लोग थे, हिन्दू मुस्लिम, सिक्ख ईसाई जैन एक इंग्लैण्ड की वासी मेम भी थी । पूरा गांव उसे मेम के नाम से ही जानता था असली नाम कम से कम मुझे तो पता नहीं है । हरिजन भी थे, सफाई कर्मी भी थे कभी किसी के साथ न तो हमने कोई झगडा सुना न देखा । कहना अतिशयोक्ति न होगी कि हमारा गांव एक आदर्श गांव था ।
कवि राजेश चेतन जी का तीन रंग
हिन्दु मुस्लिम सिक्ख ईसाई
एक ट्रक पर सवार
कर रहे थे तिरंगे झण्डे पर विचार
हिन्दु ने कहा -
हम हैं गाँधी के बेटे लायक
अहिंसा के नायक
वन्देमातरम् के गायक
छोड़ चुके हैं केसर की घाटी
क्योंकि हमको प्यारी है भारत की माटी
हम हैं भारत पर कुरबान
इसलिये ये रंग केसरिया हमारी शान।
डॉ संत कुमार टंडन रसिक जी का आलेख 'संत मलूक दास'
हिन्दी के संत कवियों की परंपरा में कदाचित् अंतिम थे बाबा मलूक दास , जिनका जन्म 1574 (वैशाख वदी 5 संवत 1631) कडा , इलाहाबाद , अब कौशाम्बी जनपद में कक्कड खत्री परिवार में हुआ था। मलूक दास गृहस्थ थे , फिर भी उन्होने उच्च संत जीवन व्यतीत किया। सांप्रदायिक सौहार्द के वे अग्रदूत थे। इसलिए हिन्दू और मुसलमान दोनो इनके शिष्य थे .. भारत से लेकर मकका तक। धार्मिक आडंबरों के आलोचक संत मलूकदास उद्दांत मानवीय गुणों के पोषक थे और इन्हीं गुणों को लौकिक और पारलौकिक जीवन की सफलता का आधार मानते थे। दया, धर्म , सेवा , परोपकार यही उनके जीवन के आदर्श थे।
शालिनी नारंग जी का मेरे जीवन में धर्म का महत्व
जहाँ तक जीवन में धर्म के महत्व का प्रश्न है तो मैं यह मानती हूँ कि धर्म से ज्यादा अध्यात्म जीवन के लिए जरुरी है।
भारत में हिन्दु, मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख धर्म और फिर इन धर्मों से जुड़ी हुई अनेक शाखाएँ हैं। भारत में चार हजार भाषाएँ हैं, जातियाँ हैं तो धर्म भी इतने ही हो सकते हैं क्योंकि धर्म का जाति से चोली-दामन का रिश्ता है। कैसे हैं ये धर्म? संकीर्ण विचारों से ग्रस्त, अनेकानेक मनगढ़न्त मान्यताओं व धारणाओं में कैद तथा सिर्फ अपने धर्माचरण के नियमों के प्रति प्रतिबद्ध। कार्ल मार्क्स ने सही कहा है कि “धर्म अफीम का नशा है”।
राजश्री जी की कविताएं 'हमारा भारत'
हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई,
हम सब है यहाँ भाई-भाई,
इसलिए अनेकता में लोगों,
ने एकता यहाँ है पाई।
पर अब न जाने भारत को,
किसकी लगी है बुरी नज़र,
चारों ओर भारत के प्रांतों में,
मचा हुआ है अब कहर।
रत्नाकर मिश्रा जी के द्वारा भारत के रोचक तथ्यों के बारे में लिखा संग्रह
- भारत के इतिहास के अनुसार, आखिरी 100000 वर्षों में किसी भी देश पर हमला नहीं किया है।
- जब कई संस्कृतियों 5000 साल पहले ही घुमंतू वनवासी थे, भारतीय सिंधु घाटी (सिंधु घाटी सभ्यता) में हड़प्पा संस्कृति की स्थापना की।
- भारत का अंग्रेजी में नाम ‘इंडिया’ इंडस नदी से बना है, जिसके आस पास की घाटी में आरंभिक सभ्यताएं निवास करती थी। आर्य पूजकों में इस इंडस नदी को सिंधु कहा।
- पर्शिया के आक्रमकारियों ने इसे हिन्दु में बदल दिया। नाम ‘हिन्दुस्तान’ ने सिंधु और हीर का संयोजन है जो हिन्दुओं की भूमि दर्शाता है।
महाशक्ति समूह का 'जय गुरू नानकदेव'
गुरू नानक जी को पंजाबी, संस्कृत, एवं फारसी का ज्ञान था। बचपन से ही इनके अंदर आध्यत्म और भक्ति भावना का संचार हो चुका था। और प्रारम्भ से ही संतों के संगत में आ गये थे। विवाह हुआ तथा दो संतान भी हुई, किन्तु पारिवारिक माह माया में नही फँसे। वे कहते थे “जो ईश्वर को प्रमे से स्मरण करे, वही प्यारा बन्दा”। हिन्दू मसलमान दोनो ही इनके शिष्य बने। देश-विदेश की यात्रा की, मक्का गये। वहॉं काबा की ओर पैर कर के सो रहे थे।
नीशु जी की पोस्ट 'हर आतंकी मुसलमान क्यों ???????'
हर मुसलमान आतंकवादी है क्या ? यहां पर आतंक को धर्म से जोड़ते है बहुत से लोग और मैंनें इस बात को कभी समर्थन नहीं किया है कि मुसलमान ही केवल आतंकवादी है .............कई लोगों का प्रश्न है कि फिर क्यों हर आतंकवादी मुसलमान क्यों है ? इसका सीधा सा उत्तर यह है कि हमारा नजरिया।।। हम क्या देखना चाहते हैं और क्या समझना चाहते हैं । बात मैं कश्मीर से जुड़ी हुई करता हूँ कि वहां पर मरने वाला मुसलमान क्या आतंकवादी होता है ? शायद इसका जवाब आप के पास हो ।
पोफेसर अश्विनी केशरवानी जी का 'प्राचीन ग्रंथों में राष्ट्रीय एकता'
भारत विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों और सम्प्रदायों का संगम स्थल है। यहां सभी धर्मों और सम्प्रदायों को बराबर का दर्जा मिला है। हिंदु धर्म के अलावा जैन, बौद्ध और सिक्ख धर्म का उद्भव यहीं हुआ है। अनेकता के बावजूद उनमें एकता है। यही कारण है कि सदियों से उनमें एकता के भाव परिलक्षित होते रहे हैं। कदाचित् हमारा दृष्टिकोण उदारवादी है। हम सत्य और अहिंसा का आदर करते हैं। हमारे मूल्य समयातीत हैं जिन पर हमारे ऋषि-मुनियों और विचारकों ने बल दिया है। हमारे इन मूल्यों को सभी धर्मग्रंथों में स्थान मिला है। चाहे कुरान हो या बाइबिल, गुरू ग्रंथ साहिब हाक या गीता, हजरत मोहम्मद, ईसा मसीह, जोरोस्त्र, गुरूनानक, बुद्ध और महावीर, सभी ने मानव मात्र की एकता, सार्वभौमिकता और शांति की महायात्रा पर जोर दिया है। भारत के लोग चाहे किसी भी मजहब के हों, अन्य धर्मों का आदर करना जानते हैं। क्यों कि सभी धर्मों का सार एक ही है। इसीलिए हमारा राष्ट्र धर्म निरपेक्ष है।
पं डी के शर्मा वत्स जी द्वारा प्रेषित आलेख
सृ्ष्टि में जल प्रलय की ऐतिहासिक घटना तो संसार की समस्त सभ्यताओं में पाई जाती है। भाषा के बदलावों और लम्बे कालखंड के चलते भी आज तक इस घटना में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। सनातन धर्म में राजा मनु की यही कथा यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में "हजरत नूह की नौका" नाम से वर्णित की जाती है।
जावा, मलेशिया,इंडोनेशिया, श्रीलंका आदि विभिन्न देशों के लोगों ने अपनी लोक परम्पराओं में गीतों के माध्यम से इस घटना को आज भी जीवंत बनाए रखा है। इसी तरह धर्मग्रंथों से अलग हटकर भी इस घटना की जानकारी हमें विश्व के सभी देशों की लोक परम्पराओं के माध्यम से जानने को मिल जाती है।
सत्यजीत प्रकाश जी लिखित 'मैं हिन्दू क्यूं हूं'
मैं घोषणा करता हूं कि मैं एक हिंदू हूं, हिंदू इसलिए कि यह हमें स्वतंत्रता देता है, हम चाहें जैसे जिए. हम चाहें ईश्वर को माने या ना माने. मंदिर जाएं या नहीं जाएं, हम शैव्य बने या शाक्त या वैष्णव. हम चाहे गीता का माने या रामायण को, चाहे बुद्ध या महावीर या महात्मा गांधी मेरे आदर्श हों, चाहे मनु को माने या चार्वाक को. यही एक धर्म है जो एक राजा को बुद्ध बनने देता है, एक राजा को महावीर, एक बनिया को महात्मा, एक मछुआरा को वेदव्यास. मुझे अभिमान है इस बात का कि मैं हिंदू हूं. लेकिन साथ ही मैं घोषणा करता हूं कि मुस्लिम धर्म और ईसाई धर्म भी मेरे लिए उतने ही आदरणीय हैं जितना हिंदू धर्म. पैगम्बर मोहम्मद और ईसा मसीह मेरे लिए उतने पूज्य हैं जितने कि राम
वैदिक धर्म के द्वारा लिखा गया आलेख
मत, पन्थ या सम्प्रदाय: यह मनुष्य का अपना बनाया हुआ 'मत' है जिसे हम मत, मज़हब, पन्थ तथा सम्प्रदाय आदि कह सकते हैं परन्तु इन को 'धर्म' समझना अपनी ही मूर्खता का प्रदर्शन करना है। हिन्दू, मुस्िलम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौध, इत्यादि सब मत, मज़हब, सम्प्रदाय हैं और जो लोग (तथाकथित साधु, सन्त, पीर, फ़कीर, गुरु, आचार्य, महात्मादि) मतमतान्तरों पर 'धर्म' की मुहर लगाकर लागों के समक्ष पेश करते हैं और प्रचार-प्रसार करते हैं वे बहुत बड़ी ग़लती करते हैं तथा पाप के भागी बनते हैं।
पाखण्ड क्या है? धर्म की दृष्िट में झूठ और फ़रेब का दूसरा नाम पाखण्ड है। जो वेद विरुद्ध है, सत्य के विपरीत है और प्रकृति नियमों के विपरीत है – ऐसी बातें करना या मानना पाखण्ड है। धर्म के नाम पर अधर्म फैलाना या धर्म की आढ़ में, ऐषणाओं (पुत्रेषणा, वित्तेषणा और लोकेषणा) की पूर्ति के लिये, दूसरों से ढौंग करना/कराना, फरेब करना/कराना, धोखाधड़ी करना/कराना, अपने शर्मनाक कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिये पूजा के योग्य देवी-देवताओं तथा महापुरुषों (भगवानों) के शुद्ध-पवित्र जीवन को कलंकित करना और स्वरचित मनघड़त कहानियों के माध्यम से उनकी लाज उछालना और कलंकित करना आदि - इत्यादि 'पाखण्ड' या 'पोपलीला' कहाता है। उपरोक्त के अतिरिक्त धर्म का ग़लत ढंग से प्रचार-प्रसार करना तथा स्वार्थ पूर्ति हेतु जन-साधारण की भावनाओं से खिलवाड़ कर उन्हें ग़लत मार्ग दिखाना भी 'पाखण्ड' है। 'मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र' का अनर्थ कर, ग़लत अर्थ निकालकर एवं ग़लत प्रयोग कर भोली-भाली जनता को लूटना आदि पाखण्ड की श्रेणी में आते हैं।
गौरव अवस्थी जी की रचना 'बस करता रहूंगा कर्म'
आज मैंने सोचा
क्यों न कर लिया जाय धर्म परिवर्तन !
परिवर्तित कर लेने से धर्म
सफल हो सकता है जीवन ।
हिंदू धर्म में मज़ा नही है ,
देवी देवताओं का पता नही है!
कितने यक्ष हैं कितने देवता ,
इनकी तो कोई थाह नही है !
कॉलेज की किताबें कम नही ,
फिर वेद पुराण पढने का समय कहाँ ?
ब्रह्मचर्य का पालन कर के
बनना नहीं है मुनिदेव !
पंकज उपकरे जी की सामाजिक समता और हिन्दू
हिन्दु कौन है ? हिन्दु शब्द की व्याख्या क्या है ? इस पर अनेक बार काफी विवाद खड़े किये जाते हैं, ऐसा हम सभी का सामान्य अनुभव है। हिन्दु शब्द की अनेक व्याख्यायें हैं, किन्तु कोई भी परिपूर्ण नहीं है। क्योंकि हरेक में अव्याप्ति अथवा अतिव्याप्ति का दोष है। किन्तु कोई सर्वमान्य व्याख्या नहीं है, केवल इसीलिये क्या हिन्दु समाज के अस्तित्व से इन्कार किया जा सकेगा ? मेरी यह मान्यता है कि हिन्दु समाज है और उस नाम के अन्तर्गत कौन आते हैं, इस सम्बन्ध में भी सभी बन्धुओं की एक निश्चित व सामान्य धारणा है, जो अनेक बार अनेक प्रकारों से प्रकट होती है। कुछ वर्ष पूर्व सरकार ने 'हिन्दु कोड' बनाया। उसे बनाने में पं. नेहरू तथा डॉ. आम्बेडकर आदि अगुवा थे। यहां के बहुसंख्य समुदाय के लिये यह कोड लागू करने के विचार से अन्ततोगत्वा उन्हें इस कोड को 'हिन्दु कोड' ही कहना पड़ा तथा वह किन लोगों को लागू होगा, यह बताते समय उन्हें यही कहना पड़ा कि मुसलमान, ईसाई, पारसी तथा यहुदी लोगों को छोड़कर अन्य सभी के लिये-अर्थात् सनातनी, आर्य समाजी, जैन, सिक्ख, बौद्ध-सभी को यह लागू होगा। आगे चलकर तो यहां तक कहा है कि इनके अतिरिक्त और जो भी लोग होंगे, उन्हें भी यह कोड लागू होगा। 'हमें यह लागू नहीं होता' यह सिद्ध करने का दायित्व भी उन्हीं पर होगा।
हाँ....मैं, सलीम खान हिन्दू हूँ !!!
हिंदू शब्द अपने आप में एक भौगोलिक पहचान लिए हुए है, यह सिन्धु नदी के पार रहने वाले लोगों के लिए इस्तेमाल किया गया था या शायेद इन्दुस नदी से घिरे स्थल पर रहने वालों के लिए इस्तेमाल किया गया था। बहुत से इतिहासविद्दों का मानना है कि 'हिंदू' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अरब्स द्वारा प्रयोग किया गया था मगर कुछ इतिहासविद्दों का यह भी मानना है कि यह पारसी थे जिन्होंने हिमालय के उत्तर पश्चिम रास्ते से भारत में आकर वहां के बाशिंदों के लिए इस्तेमाल किया था इसी कारण भारत के कई विद्वानों और बुद्धिजीवियों का कहना है कि 'हिन्दु शब्द' के इस्तेमाल को धर्म के लिए प्रयोग करने के बजाये इसे सनातन या वैदिक धर्म कहना चाहिए. स्वामी विवेकानंद जैसे महान व्यक्ति का कहना है कि "यह वेदंटिस्ट धर्म" होना चाहिए
इस प्रकार भारतवर्ष में रहने वाले सभी बाशिंदे हिन्दू हैं, भौगोलिक रूप से! चाहे वो मैं हूँ या कोई अन्य
अनिल पुसादकर जी की पोस्ट
अगर मेरे शहर मे आग लगेगी तो जलूंगा मै और मेरे भाई लोग्।सबकी चिता की राख पर रोने वाले रूदाली लोग उसकी आंच पर अपनी राजनैतिक रोटी सेकेंगे।उस समय किसी को बचाने के लिये कथित धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदार और कथित मानवाधिकारवादी नही होंगे।बाद मे हम अपने हाथ देखेंगे तो उस पर लगे खून के निशान हम तमाम उम्र जीने नही देंगे।तब मुझे सत्तार उर्फ़ रज़्ज़ू जो हमारे लिये राजेन्द्र है माफ़ नही करेगा?उसकी बहन मेरी कलाई पर राखी बांधने से पहले मेरा हाथ काट लेने को सोचेगी।मै ये सब कहानी किस्से नही गढ रहा हूं।कभी भी आना रायपुर की मौधापारा मस्ज़िद के ठीक सामने रहता है आप लोगो का सत्तार।उसके घर जाकर आवाज़ लगाना राजेन्द्र ,राजेन्द्र। अगर अम्मा घर पर हुई तो अन्दर से ही कहेगी नही है बेटा राजेन्द्र घर पर्।सभी पाठको से क्षमा चाह्ते हुये कि इस घटिया मामले पर मैने पोस्ट क्यो लिख दी।
ये हैं एक ऐसे इंसान जो हिन्दु के साथ हैं मुसलमान
अपने देश में आजादी के बाद से हिन्दु और मुसलमान को लेकर विवाद होता रहा है। हर कोई बस अपने धर्म को ही बेहतर बताने की कोशिश में बरसों से लगा है। ऐसे में अपने देश में ही ऐसी कर्इं मिसालें सामने आती रहतीं हैं जो सर्वधर्म सद्भाव के लिए एक मील का पत्थर होती हैं। ऐसी ही एक मिसाल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भी देखने का मिलती है। ये मिसाल है एक ऐसे इंसान जीवन लाल साहू की जो पैदा तो हिन्दु धर्म में हुए हैं और हिन्दु हैं भी। लेकिन इनको जितना प्यार अपने हिन्दु धर्म से है उतना ही मुस्लिम धर्म ही नहीं बल्कि ईसाई और सिख धर्म से भी है। जीवन लाल जहां नवरात्रि में 9 दिनों तक उपवास रखते हैं, वहीं तीस दिनों का न सिर्फ रोजा रखते हैं बल्कि नमाज अदा करने के साथ-साथ ईद भी मनाते हैं। अभी बकरीद पड़ी तो वे अपने फिल्म सी शूटिंग छोड़कर
बकरीद मनाने अपने घर रायपुर आए गए।
हिन्दुओं पर सांप्रदायिकता का आरोप क्या सही है ??
कोई भी धर्म देश और काल के अनुरूप एक आचरण पद्धति होता है। हर धर्म के पांच मूल सिद्धांत होते हैं, सत्य का पालन ,जीवों पर दया , भलाई , इंद्रीय संयम , और मानवीय उत्थान की उत्कंठा। लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि पूजा , नमाज , हवन या सत्संग कर लेने से उनका उत्थान नहीं होनेवाला। धर्म निरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों और ईसाईयों के मुद्दे पर देश में अनावश्यक हंगामा खडा किया जाना और राम मंदिर तथा बाबरी मस्जिद जैसे सडे प्रसंगों को तूल देना हमारा धर्म नहीं है।
आज इस राजनीतिक वातावरण के परिप्रेक्ष्य में 'हिन्दू' शब्द की जितनी परिभाषा राजनेताओं की ओर से दी जा रही हैं , उतनी परिमार्जित परिभाषा तो विभिन्न धर्म सुधारकों , विद्वानों , तथा चिंतकों ने कभी नहीं की होगी।
आखिर कुछ मुसलमान भारतीयता को स्वीकार क्यों नही करते!
हमारे गांव के सभी मुसलमान काका, चाचा और दादा किसी भी आंतकवादी संगठन को नही जानते और न ही वह रेडियों तेहरान, बगदाद या कराची सुनते है। और न तो वह इस्लाम के प्रसार-प्रचार या कट्टरता की बात करते है, वे सिर्फ़ अपने खेतों की, मवेशियों की, गांव की और अपने सुख व दुख की बात करते है। वो गंगा स्नान भी जाते है और धार्मिक आयोजनों में भी शरीक होते है, और ऐसा हिन्दू भी करते है, हम तज़ियाओं में शामिल होते है, उनके हर उतसव में भी और उनके पूज्यनीय मज़ारों पर भी फ़ूल चढ़ाते है। यकीन मानिए ये सब करते वक्त हम दोनों कौमों के किसी भी व्यक्ति को ये एहसास नही होता कि हम अलाहिदा कौमों से है और यही सत्य भी है। हमारे पूर्वज एक, भाषा एक, घर एक, गांव एक और एक धरती से है, जो हमारा पोषण करती है। इसलिए मेरा अनुरोध है इन दोनों कौमों के कथित व स्वंभू लम्बरदारों से कि कृपया जहरीली बातें न करे और गन्दे इतिहास की भी नही जो हमारा नही था । सिर्फ़ चन्द अय्यास राजाओं और नवाबों और धार्मिक बेवकूफ़ों का था वह अतीत जिसके बावत वो अपनी इबारते लिखवाते थे और कुछ बेवकूफ़ इतिहासकार उसी इतिहास के कुछ पन्नों की नकल कर अपनी व्यथित और बीमार मनोदशा के तमाम तर्क देकर समाज़ में स्थापित होना चाहते है।
हमारे समाज में ब्लागिंग के बारे में बहुत गलतफहमियां हैं , लोग ऐसा मानते हैं कि हमलोग व्यर्थ में अपना समय जाया करते हैं, पर मुझे ऐसा नहीं महसूस होता। आज हिन्दी ब्लॉगिंग में किसी क्षेत्र के विशेषज्ञों की संख्या नाममात्र की है , फिर भी मुझे ब्लोगरों के अनुभवो का पढना अच्छा लगता है। जहां एक ओर उनका आलेख आम जरूरतों से जुडा होता है , वहीं कई प्रकार की टिप्पणियां भी पोस्ट के हर पक्ष को उजागर करने में समर्थ होती है। यही कारण है कि पत्र पत्रिकाओं की तुलना में ब्लॉग की प्रविष्टियों को पढना मुझे अच्छा लगता है।कौन कहता है कि हम सारे ब्लॉगर मिलकर समाज को , देश को , राष्ट्र को नहीं बदल सकते , हमारे हिंदी ब्लॉग जगत में आज के भारतवर्ष की सबसे बडी समस्या सांप्रदायिक मनमुटाव को दूर कर सौहार्द बनाने की कोशिश में इतने पोस्ट लिखे गए हैं, सभी लेखकों को शुभकामनाएं !!
परमजीत बाली जी की पोस्ट
कितने धर्म है मेरे देश में ,
पर हम अकेले अधर्म को
नहीं हरा पा रहे हैं।
क्यूंकि यहां सभी अपनी अपनी ढपली बजा रहे हैं।
अपनी अपनी खिचडी पका रहे हैं।।
लोकसंघर्ष की पोस्ट
हिन्दी में दलित-साहित्य का इतिहास साहित्य की जनतांत्रिक परम्परा तथा भाषा के सामाजिक आधार के विस्तार के साथ जुड़ा हुआ है। इसे सामंती व्यवस्था के अवसान, जो निश्चित ही पुरोहितवाद के लिए भी एक झटका साबित हुआ तथा समाज में जनतांत्रिक सोच के उदय, भले ही रूढ़िग्रस्त ही क्यों न हो, के साथ ही प्रजातांत्रिक शासन-व्यवस्था के एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में भी देखा जा सकता है।
आर.के.भारद्वाज जी की कहानी : मसखरा
हमारे गांव में सभी धर्मों के लोग थे, हिन्दू मुस्लिम, सिक्ख ईसाई जैन एक इंग्लैण्ड की वासी मेम भी थी । पूरा गांव उसे मेम के नाम से ही जानता था असली नाम कम से कम मुझे तो पता नहीं है । हरिजन भी थे, सफाई कर्मी भी थे कभी किसी के साथ न तो हमने कोई झगडा सुना न देखा । कहना अतिशयोक्ति न होगी कि हमारा गांव एक आदर्श गांव था ।
कवि राजेश चेतन जी का तीन रंग
हिन्दु मुस्लिम सिक्ख ईसाई
एक ट्रक पर सवार
कर रहे थे तिरंगे झण्डे पर विचार
हिन्दु ने कहा -
हम हैं गाँधी के बेटे लायक
अहिंसा के नायक
वन्देमातरम् के गायक
छोड़ चुके हैं केसर की घाटी
क्योंकि हमको प्यारी है भारत की माटी
हम हैं भारत पर कुरबान
इसलिये ये रंग केसरिया हमारी शान।
डॉ संत कुमार टंडन रसिक जी का आलेख 'संत मलूक दास'
हिन्दी के संत कवियों की परंपरा में कदाचित् अंतिम थे बाबा मलूक दास , जिनका जन्म 1574 (वैशाख वदी 5 संवत 1631) कडा , इलाहाबाद , अब कौशाम्बी जनपद में कक्कड खत्री परिवार में हुआ था। मलूक दास गृहस्थ थे , फिर भी उन्होने उच्च संत जीवन व्यतीत किया। सांप्रदायिक सौहार्द के वे अग्रदूत थे। इसलिए हिन्दू और मुसलमान दोनो इनके शिष्य थे .. भारत से लेकर मकका तक। धार्मिक आडंबरों के आलोचक संत मलूकदास उद्दांत मानवीय गुणों के पोषक थे और इन्हीं गुणों को लौकिक और पारलौकिक जीवन की सफलता का आधार मानते थे। दया, धर्म , सेवा , परोपकार यही उनके जीवन के आदर्श थे।
शालिनी नारंग जी का मेरे जीवन में धर्म का महत्व
जहाँ तक जीवन में धर्म के महत्व का प्रश्न है तो मैं यह मानती हूँ कि धर्म से ज्यादा अध्यात्म जीवन के लिए जरुरी है।
भारत में हिन्दु, मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख धर्म और फिर इन धर्मों से जुड़ी हुई अनेक शाखाएँ हैं। भारत में चार हजार भाषाएँ हैं, जातियाँ हैं तो धर्म भी इतने ही हो सकते हैं क्योंकि धर्म का जाति से चोली-दामन का रिश्ता है। कैसे हैं ये धर्म? संकीर्ण विचारों से ग्रस्त, अनेकानेक मनगढ़न्त मान्यताओं व धारणाओं में कैद तथा सिर्फ अपने धर्माचरण के नियमों के प्रति प्रतिबद्ध। कार्ल मार्क्स ने सही कहा है कि “धर्म अफीम का नशा है”।
राजश्री जी की कविताएं 'हमारा भारत'
हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई,
हम सब है यहाँ भाई-भाई,
इसलिए अनेकता में लोगों,
ने एकता यहाँ है पाई।
पर अब न जाने भारत को,
किसकी लगी है बुरी नज़र,
चारों ओर भारत के प्रांतों में,
मचा हुआ है अब कहर।
रत्नाकर मिश्रा जी के द्वारा भारत के रोचक तथ्यों के बारे में लिखा संग्रह
- भारत के इतिहास के अनुसार, आखिरी 100000 वर्षों में किसी भी देश पर हमला नहीं किया है।
- जब कई संस्कृतियों 5000 साल पहले ही घुमंतू वनवासी थे, भारतीय सिंधु घाटी (सिंधु घाटी सभ्यता) में हड़प्पा संस्कृति की स्थापना की।
- भारत का अंग्रेजी में नाम ‘इंडिया’ इंडस नदी से बना है, जिसके आस पास की घाटी में आरंभिक सभ्यताएं निवास करती थी। आर्य पूजकों में इस इंडस नदी को सिंधु कहा।
- पर्शिया के आक्रमकारियों ने इसे हिन्दु में बदल दिया। नाम ‘हिन्दुस्तान’ ने सिंधु और हीर का संयोजन है जो हिन्दुओं की भूमि दर्शाता है।
महाशक्ति समूह का 'जय गुरू नानकदेव'
गुरू नानक जी को पंजाबी, संस्कृत, एवं फारसी का ज्ञान था। बचपन से ही इनके अंदर आध्यत्म और भक्ति भावना का संचार हो चुका था। और प्रारम्भ से ही संतों के संगत में आ गये थे। विवाह हुआ तथा दो संतान भी हुई, किन्तु पारिवारिक माह माया में नही फँसे। वे कहते थे “जो ईश्वर को प्रमे से स्मरण करे, वही प्यारा बन्दा”। हिन्दू मसलमान दोनो ही इनके शिष्य बने। देश-विदेश की यात्रा की, मक्का गये। वहॉं काबा की ओर पैर कर के सो रहे थे।
नीशु जी की पोस्ट 'हर आतंकी मुसलमान क्यों ???????'
हर मुसलमान आतंकवादी है क्या ? यहां पर आतंक को धर्म से जोड़ते है बहुत से लोग और मैंनें इस बात को कभी समर्थन नहीं किया है कि मुसलमान ही केवल आतंकवादी है .............कई लोगों का प्रश्न है कि फिर क्यों हर आतंकवादी मुसलमान क्यों है ? इसका सीधा सा उत्तर यह है कि हमारा नजरिया।।। हम क्या देखना चाहते हैं और क्या समझना चाहते हैं । बात मैं कश्मीर से जुड़ी हुई करता हूँ कि वहां पर मरने वाला मुसलमान क्या आतंकवादी होता है ? शायद इसका जवाब आप के पास हो ।
पोफेसर अश्विनी केशरवानी जी का 'प्राचीन ग्रंथों में राष्ट्रीय एकता'
भारत विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों और सम्प्रदायों का संगम स्थल है। यहां सभी धर्मों और सम्प्रदायों को बराबर का दर्जा मिला है। हिंदु धर्म के अलावा जैन, बौद्ध और सिक्ख धर्म का उद्भव यहीं हुआ है। अनेकता के बावजूद उनमें एकता है। यही कारण है कि सदियों से उनमें एकता के भाव परिलक्षित होते रहे हैं। कदाचित् हमारा दृष्टिकोण उदारवादी है। हम सत्य और अहिंसा का आदर करते हैं। हमारे मूल्य समयातीत हैं जिन पर हमारे ऋषि-मुनियों और विचारकों ने बल दिया है। हमारे इन मूल्यों को सभी धर्मग्रंथों में स्थान मिला है। चाहे कुरान हो या बाइबिल, गुरू ग्रंथ साहिब हाक या गीता, हजरत मोहम्मद, ईसा मसीह, जोरोस्त्र, गुरूनानक, बुद्ध और महावीर, सभी ने मानव मात्र की एकता, सार्वभौमिकता और शांति की महायात्रा पर जोर दिया है। भारत के लोग चाहे किसी भी मजहब के हों, अन्य धर्मों का आदर करना जानते हैं। क्यों कि सभी धर्मों का सार एक ही है। इसीलिए हमारा राष्ट्र धर्म निरपेक्ष है।
पं डी के शर्मा वत्स जी द्वारा प्रेषित आलेख
सृ्ष्टि में जल प्रलय की ऐतिहासिक घटना तो संसार की समस्त सभ्यताओं में पाई जाती है। भाषा के बदलावों और लम्बे कालखंड के चलते भी आज तक इस घटना में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। सनातन धर्म में राजा मनु की यही कथा यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में "हजरत नूह की नौका" नाम से वर्णित की जाती है।
जावा, मलेशिया,इंडोनेशिया, श्रीलंका आदि विभिन्न देशों के लोगों ने अपनी लोक परम्पराओं में गीतों के माध्यम से इस घटना को आज भी जीवंत बनाए रखा है। इसी तरह धर्मग्रंथों से अलग हटकर भी इस घटना की जानकारी हमें विश्व के सभी देशों की लोक परम्पराओं के माध्यम से जानने को मिल जाती है।
सत्यजीत प्रकाश जी लिखित 'मैं हिन्दू क्यूं हूं'
मैं घोषणा करता हूं कि मैं एक हिंदू हूं, हिंदू इसलिए कि यह हमें स्वतंत्रता देता है, हम चाहें जैसे जिए. हम चाहें ईश्वर को माने या ना माने. मंदिर जाएं या नहीं जाएं, हम शैव्य बने या शाक्त या वैष्णव. हम चाहे गीता का माने या रामायण को, चाहे बुद्ध या महावीर या महात्मा गांधी मेरे आदर्श हों, चाहे मनु को माने या चार्वाक को. यही एक धर्म है जो एक राजा को बुद्ध बनने देता है, एक राजा को महावीर, एक बनिया को महात्मा, एक मछुआरा को वेदव्यास. मुझे अभिमान है इस बात का कि मैं हिंदू हूं. लेकिन साथ ही मैं घोषणा करता हूं कि मुस्लिम धर्म और ईसाई धर्म भी मेरे लिए उतने ही आदरणीय हैं जितना हिंदू धर्म. पैगम्बर मोहम्मद और ईसा मसीह मेरे लिए उतने पूज्य हैं जितने कि राम
वैदिक धर्म के द्वारा लिखा गया आलेख
मत, पन्थ या सम्प्रदाय: यह मनुष्य का अपना बनाया हुआ 'मत' है जिसे हम मत, मज़हब, पन्थ तथा सम्प्रदाय आदि कह सकते हैं परन्तु इन को 'धर्म' समझना अपनी ही मूर्खता का प्रदर्शन करना है। हिन्दू, मुस्िलम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौध, इत्यादि सब मत, मज़हब, सम्प्रदाय हैं और जो लोग (तथाकथित साधु, सन्त, पीर, फ़कीर, गुरु, आचार्य, महात्मादि) मतमतान्तरों पर 'धर्म' की मुहर लगाकर लागों के समक्ष पेश करते हैं और प्रचार-प्रसार करते हैं वे बहुत बड़ी ग़लती करते हैं तथा पाप के भागी बनते हैं।
पाखण्ड क्या है? धर्म की दृष्िट में झूठ और फ़रेब का दूसरा नाम पाखण्ड है। जो वेद विरुद्ध है, सत्य के विपरीत है और प्रकृति नियमों के विपरीत है – ऐसी बातें करना या मानना पाखण्ड है। धर्म के नाम पर अधर्म फैलाना या धर्म की आढ़ में, ऐषणाओं (पुत्रेषणा, वित्तेषणा और लोकेषणा) की पूर्ति के लिये, दूसरों से ढौंग करना/कराना, फरेब करना/कराना, धोखाधड़ी करना/कराना, अपने शर्मनाक कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिये पूजा के योग्य देवी-देवताओं तथा महापुरुषों (भगवानों) के शुद्ध-पवित्र जीवन को कलंकित करना और स्वरचित मनघड़त कहानियों के माध्यम से उनकी लाज उछालना और कलंकित करना आदि - इत्यादि 'पाखण्ड' या 'पोपलीला' कहाता है। उपरोक्त के अतिरिक्त धर्म का ग़लत ढंग से प्रचार-प्रसार करना तथा स्वार्थ पूर्ति हेतु जन-साधारण की भावनाओं से खिलवाड़ कर उन्हें ग़लत मार्ग दिखाना भी 'पाखण्ड' है। 'मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र' का अनर्थ कर, ग़लत अर्थ निकालकर एवं ग़लत प्रयोग कर भोली-भाली जनता को लूटना आदि पाखण्ड की श्रेणी में आते हैं।
गौरव अवस्थी जी की रचना 'बस करता रहूंगा कर्म'
आज मैंने सोचा
क्यों न कर लिया जाय धर्म परिवर्तन !
परिवर्तित कर लेने से धर्म
सफल हो सकता है जीवन ।
हिंदू धर्म में मज़ा नही है ,
देवी देवताओं का पता नही है!
कितने यक्ष हैं कितने देवता ,
इनकी तो कोई थाह नही है !
कॉलेज की किताबें कम नही ,
फिर वेद पुराण पढने का समय कहाँ ?
ब्रह्मचर्य का पालन कर के
बनना नहीं है मुनिदेव !
पंकज उपकरे जी की सामाजिक समता और हिन्दू
हिन्दु कौन है ? हिन्दु शब्द की व्याख्या क्या है ? इस पर अनेक बार काफी विवाद खड़े किये जाते हैं, ऐसा हम सभी का सामान्य अनुभव है। हिन्दु शब्द की अनेक व्याख्यायें हैं, किन्तु कोई भी परिपूर्ण नहीं है। क्योंकि हरेक में अव्याप्ति अथवा अतिव्याप्ति का दोष है। किन्तु कोई सर्वमान्य व्याख्या नहीं है, केवल इसीलिये क्या हिन्दु समाज के अस्तित्व से इन्कार किया जा सकेगा ? मेरी यह मान्यता है कि हिन्दु समाज है और उस नाम के अन्तर्गत कौन आते हैं, इस सम्बन्ध में भी सभी बन्धुओं की एक निश्चित व सामान्य धारणा है, जो अनेक बार अनेक प्रकारों से प्रकट होती है। कुछ वर्ष पूर्व सरकार ने 'हिन्दु कोड' बनाया। उसे बनाने में पं. नेहरू तथा डॉ. आम्बेडकर आदि अगुवा थे। यहां के बहुसंख्य समुदाय के लिये यह कोड लागू करने के विचार से अन्ततोगत्वा उन्हें इस कोड को 'हिन्दु कोड' ही कहना पड़ा तथा वह किन लोगों को लागू होगा, यह बताते समय उन्हें यही कहना पड़ा कि मुसलमान, ईसाई, पारसी तथा यहुदी लोगों को छोड़कर अन्य सभी के लिये-अर्थात् सनातनी, आर्य समाजी, जैन, सिक्ख, बौद्ध-सभी को यह लागू होगा। आगे चलकर तो यहां तक कहा है कि इनके अतिरिक्त और जो भी लोग होंगे, उन्हें भी यह कोड लागू होगा। 'हमें यह लागू नहीं होता' यह सिद्ध करने का दायित्व भी उन्हीं पर होगा।
हाँ....मैं, सलीम खान हिन्दू हूँ !!!
हिंदू शब्द अपने आप में एक भौगोलिक पहचान लिए हुए है, यह सिन्धु नदी के पार रहने वाले लोगों के लिए इस्तेमाल किया गया था या शायेद इन्दुस नदी से घिरे स्थल पर रहने वालों के लिए इस्तेमाल किया गया था। बहुत से इतिहासविद्दों का मानना है कि 'हिंदू' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अरब्स द्वारा प्रयोग किया गया था मगर कुछ इतिहासविद्दों का यह भी मानना है कि यह पारसी थे जिन्होंने हिमालय के उत्तर पश्चिम रास्ते से भारत में आकर वहां के बाशिंदों के लिए इस्तेमाल किया था इसी कारण भारत के कई विद्वानों और बुद्धिजीवियों का कहना है कि 'हिन्दु शब्द' के इस्तेमाल को धर्म के लिए प्रयोग करने के बजाये इसे सनातन या वैदिक धर्म कहना चाहिए. स्वामी विवेकानंद जैसे महान व्यक्ति का कहना है कि "यह वेदंटिस्ट धर्म" होना चाहिए
इस प्रकार भारतवर्ष में रहने वाले सभी बाशिंदे हिन्दू हैं, भौगोलिक रूप से! चाहे वो मैं हूँ या कोई अन्य
अनिल पुसादकर जी की पोस्ट
अगर मेरे शहर मे आग लगेगी तो जलूंगा मै और मेरे भाई लोग्।सबकी चिता की राख पर रोने वाले रूदाली लोग उसकी आंच पर अपनी राजनैतिक रोटी सेकेंगे।उस समय किसी को बचाने के लिये कथित धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदार और कथित मानवाधिकारवादी नही होंगे।बाद मे हम अपने हाथ देखेंगे तो उस पर लगे खून के निशान हम तमाम उम्र जीने नही देंगे।तब मुझे सत्तार उर्फ़ रज़्ज़ू जो हमारे लिये राजेन्द्र है माफ़ नही करेगा?उसकी बहन मेरी कलाई पर राखी बांधने से पहले मेरा हाथ काट लेने को सोचेगी।मै ये सब कहानी किस्से नही गढ रहा हूं।कभी भी आना रायपुर की मौधापारा मस्ज़िद के ठीक सामने रहता है आप लोगो का सत्तार।उसके घर जाकर आवाज़ लगाना राजेन्द्र ,राजेन्द्र। अगर अम्मा घर पर हुई तो अन्दर से ही कहेगी नही है बेटा राजेन्द्र घर पर्।सभी पाठको से क्षमा चाह्ते हुये कि इस घटिया मामले पर मैने पोस्ट क्यो लिख दी।
ये हैं एक ऐसे इंसान जो हिन्दु के साथ हैं मुसलमान
अपने देश में आजादी के बाद से हिन्दु और मुसलमान को लेकर विवाद होता रहा है। हर कोई बस अपने धर्म को ही बेहतर बताने की कोशिश में बरसों से लगा है। ऐसे में अपने देश में ही ऐसी कर्इं मिसालें सामने आती रहतीं हैं जो सर्वधर्म सद्भाव के लिए एक मील का पत्थर होती हैं। ऐसी ही एक मिसाल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भी देखने का मिलती है। ये मिसाल है एक ऐसे इंसान जीवन लाल साहू की जो पैदा तो हिन्दु धर्म में हुए हैं और हिन्दु हैं भी। लेकिन इनको जितना प्यार अपने हिन्दु धर्म से है उतना ही मुस्लिम धर्म ही नहीं बल्कि ईसाई और सिख धर्म से भी है। जीवन लाल जहां नवरात्रि में 9 दिनों तक उपवास रखते हैं, वहीं तीस दिनों का न सिर्फ रोजा रखते हैं बल्कि नमाज अदा करने के साथ-साथ ईद भी मनाते हैं। अभी बकरीद पड़ी तो वे अपने फिल्म सी शूटिंग छोड़कर
बकरीद मनाने अपने घर रायपुर आए गए।
हिन्दुओं पर सांप्रदायिकता का आरोप क्या सही है ??
कोई भी धर्म देश और काल के अनुरूप एक आचरण पद्धति होता है। हर धर्म के पांच मूल सिद्धांत होते हैं, सत्य का पालन ,जीवों पर दया , भलाई , इंद्रीय संयम , और मानवीय उत्थान की उत्कंठा। लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि पूजा , नमाज , हवन या सत्संग कर लेने से उनका उत्थान नहीं होनेवाला। धर्म निरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों और ईसाईयों के मुद्दे पर देश में अनावश्यक हंगामा खडा किया जाना और राम मंदिर तथा बाबरी मस्जिद जैसे सडे प्रसंगों को तूल देना हमारा धर्म नहीं है।
आज इस राजनीतिक वातावरण के परिप्रेक्ष्य में 'हिन्दू' शब्द की जितनी परिभाषा राजनेताओं की ओर से दी जा रही हैं , उतनी परिमार्जित परिभाषा तो विभिन्न धर्म सुधारकों , विद्वानों , तथा चिंतकों ने कभी नहीं की होगी।
आखिर कुछ मुसलमान भारतीयता को स्वीकार क्यों नही करते!
हमारे गांव के सभी मुसलमान काका, चाचा और दादा किसी भी आंतकवादी संगठन को नही जानते और न ही वह रेडियों तेहरान, बगदाद या कराची सुनते है। और न तो वह इस्लाम के प्रसार-प्रचार या कट्टरता की बात करते है, वे सिर्फ़ अपने खेतों की, मवेशियों की, गांव की और अपने सुख व दुख की बात करते है। वो गंगा स्नान भी जाते है और धार्मिक आयोजनों में भी शरीक होते है, और ऐसा हिन्दू भी करते है, हम तज़ियाओं में शामिल होते है, उनके हर उतसव में भी और उनके पूज्यनीय मज़ारों पर भी फ़ूल चढ़ाते है। यकीन मानिए ये सब करते वक्त हम दोनों कौमों के किसी भी व्यक्ति को ये एहसास नही होता कि हम अलाहिदा कौमों से है और यही सत्य भी है। हमारे पूर्वज एक, भाषा एक, घर एक, गांव एक और एक धरती से है, जो हमारा पोषण करती है। इसलिए मेरा अनुरोध है इन दोनों कौमों के कथित व स्वंभू लम्बरदारों से कि कृपया जहरीली बातें न करे और गन्दे इतिहास की भी नही जो हमारा नही था । सिर्फ़ चन्द अय्यास राजाओं और नवाबों और धार्मिक बेवकूफ़ों का था वह अतीत जिसके बावत वो अपनी इबारते लिखवाते थे और कुछ बेवकूफ़ इतिहासकार उसी इतिहास के कुछ पन्नों की नकल कर अपनी व्यथित और बीमार मनोदशा के तमाम तर्क देकर समाज़ में स्थापित होना चाहते है।
परमजीत बाली जी की पोस्ट
कितने धर्म है मेरे देश में ,
पर हम अकेले अधर्म को
नहीं हरा पा रहे हैं।
क्यूंकि यहां सभी अपनी अपनी ढपली बजा रहे हैं।
अपनी अपनी खिचडी पका रहे हैं।।
लोकसंघर्ष की पोस्ट
हिन्दी में दलित-साहित्य का इतिहास साहित्य की जनतांत्रिक परम्परा तथा भाषा के सामाजिक आधार के विस्तार के साथ जुड़ा हुआ है। इसे सामंती व्यवस्था के अवसान, जो निश्चित ही पुरोहितवाद के लिए भी एक झटका साबित हुआ तथा समाज में जनतांत्रिक सोच के उदय, भले ही रूढ़िग्रस्त ही क्यों न हो, के साथ ही प्रजातांत्रिक शासन-व्यवस्था के एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में भी देखा जा सकता है।
आर.के.भारद्वाज जी की कहानी : मसखरा
हमारे गांव में सभी धर्मों के लोग थे, हिन्दू मुस्लिम, सिक्ख ईसाई जैन एक इंग्लैण्ड की वासी मेम भी थी । पूरा गांव उसे मेम के नाम से ही जानता था असली नाम कम से कम मुझे तो पता नहीं है । हरिजन भी थे, सफाई कर्मी भी थे कभी किसी के साथ न तो हमने कोई झगडा सुना न देखा । कहना अतिशयोक्ति न होगी कि हमारा गांव एक आदर्श गांव था ।
कवि राजेश चेतन जी का तीन रंग
हिन्दु मुस्लिम सिक्ख ईसाई
एक ट्रक पर सवार
कर रहे थे तिरंगे झण्डे पर विचार
हिन्दु ने कहा -
हम हैं गाँधी के बेटे लायक
अहिंसा के नायक
वन्देमातरम् के गायक
छोड़ चुके हैं केसर की घाटी
क्योंकि हमको प्यारी है भारत की माटी
हम हैं भारत पर कुरबान
इसलिये ये रंग केसरिया हमारी शान।
डॉ संत कुमार टंडन रसिक जी का आलेख 'संत मलूक दास'
हिन्दी के संत कवियों की परंपरा में कदाचित् अंतिम थे बाबा मलूक दास , जिनका जन्म 1574 (वैशाख वदी 5 संवत 1631) कडा , इलाहाबाद , अब कौशाम्बी जनपद में कक्कड खत्री परिवार में हुआ था। मलूक दास गृहस्थ थे , फिर भी उन्होने उच्च संत जीवन व्यतीत किया। सांप्रदायिक सौहार्द के वे अग्रदूत थे। इसलिए हिन्दू और मुसलमान दोनो इनके शिष्य थे .. भारत से लेकर मकका तक। धार्मिक आडंबरों के आलोचक संत मलूकदास उद्दांत मानवीय गुणों के पोषक थे और इन्हीं गुणों को लौकिक और पारलौकिक जीवन की सफलता का आधार मानते थे। दया, धर्म , सेवा , परोपकार यही उनके जीवन के आदर्श थे।
शालिनी नारंग जी का मेरे जीवन में धर्म का महत्व
जहाँ तक जीवन में धर्म के महत्व का प्रश्न है तो मैं यह मानती हूँ कि धर्म से ज्यादा अध्यात्म जीवन के लिए जरुरी है।
भारत में हिन्दु, मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख धर्म और फिर इन धर्मों से जुड़ी हुई अनेक शाखाएँ हैं। भारत में चार हजार भाषाएँ हैं, जातियाँ हैं तो धर्म भी इतने ही हो सकते हैं क्योंकि धर्म का जाति से चोली-दामन का रिश्ता है। कैसे हैं ये धर्म? संकीर्ण विचारों से ग्रस्त, अनेकानेक मनगढ़न्त मान्यताओं व धारणाओं में कैद तथा सिर्फ अपने धर्माचरण के नियमों के प्रति प्रतिबद्ध। कार्ल मार्क्स ने सही कहा है कि “धर्म अफीम का नशा है”।
राजश्री जी की कविताएं 'हमारा भारत'
हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई,
हम सब है यहाँ भाई-भाई,
इसलिए अनेकता में लोगों,
ने एकता यहाँ है पाई।
पर अब न जाने भारत को,
किसकी लगी है बुरी नज़र,
चारों ओर भारत के प्रांतों में,
मचा हुआ है अब कहर।
रत्नाकर मिश्रा जी के द्वारा भारत के रोचक तथ्यों के बारे में लिखा संग्रह
- भारत के इतिहास के अनुसार, आखिरी 100000 वर्षों में किसी भी देश पर हमला नहीं किया है।
- जब कई संस्कृतियों 5000 साल पहले ही घुमंतू वनवासी थे, भारतीय सिंधु घाटी (सिंधु घाटी सभ्यता) में हड़प्पा संस्कृति की स्थापना की।
- भारत का अंग्रेजी में नाम ‘इंडिया’ इंडस नदी से बना है, जिसके आस पास की घाटी में आरंभिक सभ्यताएं निवास करती थी। आर्य पूजकों में इस इंडस नदी को सिंधु कहा।
- पर्शिया के आक्रमकारियों ने इसे हिन्दु में बदल दिया। नाम ‘हिन्दुस्तान’ ने सिंधु और हीर का संयोजन है जो हिन्दुओं की भूमि दर्शाता है।
महाशक्ति समूह का 'जय गुरू नानकदेव'
गुरू नानक जी को पंजाबी, संस्कृत, एवं फारसी का ज्ञान था। बचपन से ही इनके अंदर आध्यत्म और भक्ति भावना का संचार हो चुका था। और प्रारम्भ से ही संतों के संगत में आ गये थे। विवाह हुआ तथा दो संतान भी हुई, किन्तु पारिवारिक माह माया में नही फँसे। वे कहते थे “जो ईश्वर को प्रमे से स्मरण करे, वही प्यारा बन्दा”। हिन्दू मसलमान दोनो ही इनके शिष्य बने। देश-विदेश की यात्रा की, मक्का गये। वहॉं काबा की ओर पैर कर के सो रहे थे।
नीशु जी की पोस्ट 'हर आतंकी मुसलमान क्यों ???????'
हर मुसलमान आतंकवादी है क्या ? यहां पर आतंक को धर्म से जोड़ते है बहुत से लोग और मैंनें इस बात को कभी समर्थन नहीं किया है कि मुसलमान ही केवल आतंकवादी है .............कई लोगों का प्रश्न है कि फिर क्यों हर आतंकवादी मुसलमान क्यों है ? इसका सीधा सा उत्तर यह है कि हमारा नजरिया।।। हम क्या देखना चाहते हैं और क्या समझना चाहते हैं । बात मैं कश्मीर से जुड़ी हुई करता हूँ कि वहां पर मरने वाला मुसलमान क्या आतंकवादी होता है ? शायद इसका जवाब आप के पास हो ।
पोफेसर अश्विनी केशरवानी जी का 'प्राचीन ग्रंथों में राष्ट्रीय एकता'
भारत विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों और सम्प्रदायों का संगम स्थल है। यहां सभी धर्मों और सम्प्रदायों को बराबर का दर्जा मिला है। हिंदु धर्म के अलावा जैन, बौद्ध और सिक्ख धर्म का उद्भव यहीं हुआ है। अनेकता के बावजूद उनमें एकता है। यही कारण है कि सदियों से उनमें एकता के भाव परिलक्षित होते रहे हैं। कदाचित् हमारा दृष्टिकोण उदारवादी है। हम सत्य और अहिंसा का आदर करते हैं। हमारे मूल्य समयातीत हैं जिन पर हमारे ऋषि-मुनियों और विचारकों ने बल दिया है। हमारे इन मूल्यों को सभी धर्मग्रंथों में स्थान मिला है। चाहे कुरान हो या बाइबिल, गुरू ग्रंथ साहिब हाक या गीता, हजरत मोहम्मद, ईसा मसीह, जोरोस्त्र, गुरूनानक, बुद्ध और महावीर, सभी ने मानव मात्र की एकता, सार्वभौमिकता और शांति की महायात्रा पर जोर दिया है। भारत के लोग चाहे किसी भी मजहब के हों, अन्य धर्मों का आदर करना जानते हैं। क्यों कि सभी धर्मों का सार एक ही है। इसीलिए हमारा राष्ट्र धर्म निरपेक्ष है।
पं डी के शर्मा वत्स जी द्वारा प्रेषित आलेख
सृ्ष्टि में जल प्रलय की ऐतिहासिक घटना तो संसार की समस्त सभ्यताओं में पाई जाती है। भाषा के बदलावों और लम्बे कालखंड के चलते भी आज तक इस घटना में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। सनातन धर्म में राजा मनु की यही कथा यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में "हजरत नूह की नौका" नाम से वर्णित की जाती है।
जावा, मलेशिया,इंडोनेशिया, श्रीलंका आदि विभिन्न देशों के लोगों ने अपनी लोक परम्पराओं में गीतों के माध्यम से इस घटना को आज भी जीवंत बनाए रखा है। इसी तरह धर्मग्रंथों से अलग हटकर भी इस घटना की जानकारी हमें विश्व के सभी देशों की लोक परम्पराओं के माध्यम से जानने को मिल जाती है।
सत्यजीत प्रकाश जी लिखित 'मैं हिन्दू क्यूं हूं'
मैं घोषणा करता हूं कि मैं एक हिंदू हूं, हिंदू इसलिए कि यह हमें स्वतंत्रता देता है, हम चाहें जैसे जिए. हम चाहें ईश्वर को माने या ना माने. मंदिर जाएं या नहीं जाएं, हम शैव्य बने या शाक्त या वैष्णव. हम चाहे गीता का माने या रामायण को, चाहे बुद्ध या महावीर या महात्मा गांधी मेरे आदर्श हों, चाहे मनु को माने या चार्वाक को. यही एक धर्म है जो एक राजा को बुद्ध बनने देता है, एक राजा को महावीर, एक बनिया को महात्मा, एक मछुआरा को वेदव्यास. मुझे अभिमान है इस बात का कि मैं हिंदू हूं. लेकिन साथ ही मैं घोषणा करता हूं कि मुस्लिम धर्म और ईसाई धर्म भी मेरे लिए उतने ही आदरणीय हैं जितना हिंदू धर्म. पैगम्बर मोहम्मद और ईसा मसीह मेरे लिए उतने पूज्य हैं जितने कि राम
वैदिक धर्म के द्वारा लिखा गया आलेख
मत, पन्थ या सम्प्रदाय: यह मनुष्य का अपना बनाया हुआ 'मत' है जिसे हम मत, मज़हब, पन्थ तथा सम्प्रदाय आदि कह सकते हैं परन्तु इन को 'धर्म' समझना अपनी ही मूर्खता का प्रदर्शन करना है। हिन्दू, मुस्िलम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौध, इत्यादि सब मत, मज़हब, सम्प्रदाय हैं और जो लोग (तथाकथित साधु, सन्त, पीर, फ़कीर, गुरु, आचार्य, महात्मादि) मतमतान्तरों पर 'धर्म' की मुहर लगाकर लागों के समक्ष पेश करते हैं और प्रचार-प्रसार करते हैं वे बहुत बड़ी ग़लती करते हैं तथा पाप के भागी बनते हैं।
पाखण्ड क्या है? धर्म की दृष्िट में झूठ और फ़रेब का दूसरा नाम पाखण्ड है। जो वेद विरुद्ध है, सत्य के विपरीत है और प्रकृति नियमों के विपरीत है – ऐसी बातें करना या मानना पाखण्ड है। धर्म के नाम पर अधर्म फैलाना या धर्म की आढ़ में, ऐषणाओं (पुत्रेषणा, वित्तेषणा और लोकेषणा) की पूर्ति के लिये, दूसरों से ढौंग करना/कराना, फरेब करना/कराना, धोखाधड़ी करना/कराना, अपने शर्मनाक कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिये पूजा के योग्य देवी-देवताओं तथा महापुरुषों (भगवानों) के शुद्ध-पवित्र जीवन को कलंकित करना और स्वरचित मनघड़त कहानियों के माध्यम से उनकी लाज उछालना और कलंकित करना आदि - इत्यादि 'पाखण्ड' या 'पोपलीला' कहाता है। उपरोक्त के अतिरिक्त धर्म का ग़लत ढंग से प्रचार-प्रसार करना तथा स्वार्थ पूर्ति हेतु जन-साधारण की भावनाओं से खिलवाड़ कर उन्हें ग़लत मार्ग दिखाना भी 'पाखण्ड' है। 'मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र' का अनर्थ कर, ग़लत अर्थ निकालकर एवं ग़लत प्रयोग कर भोली-भाली जनता को लूटना आदि पाखण्ड की श्रेणी में आते हैं।
गौरव अवस्थी जी की रचना 'बस करता रहूंगा कर्म'
आज मैंने सोचा
क्यों न कर लिया जाय धर्म परिवर्तन !
परिवर्तित कर लेने से धर्म
सफल हो सकता है जीवन ।
हिंदू धर्म में मज़ा नही है ,
देवी देवताओं का पता नही है!
कितने यक्ष हैं कितने देवता ,
इनकी तो कोई थाह नही है !
कॉलेज की किताबें कम नही ,
फिर वेद पुराण पढने का समय कहाँ ?
ब्रह्मचर्य का पालन कर के
बनना नहीं है मुनिदेव !
पंकज उपकरे जी की सामाजिक समता और हिन्दू
हिन्दु कौन है ? हिन्दु शब्द की व्याख्या क्या है ? इस पर अनेक बार काफी विवाद खड़े किये जाते हैं, ऐसा हम सभी का सामान्य अनुभव है। हिन्दु शब्द की अनेक व्याख्यायें हैं, किन्तु कोई भी परिपूर्ण नहीं है। क्योंकि हरेक में अव्याप्ति अथवा अतिव्याप्ति का दोष है। किन्तु कोई सर्वमान्य व्याख्या नहीं है, केवल इसीलिये क्या हिन्दु समाज के अस्तित्व से इन्कार किया जा सकेगा ? मेरी यह मान्यता है कि हिन्दु समाज है और उस नाम के अन्तर्गत कौन आते हैं, इस सम्बन्ध में भी सभी बन्धुओं की एक निश्चित व सामान्य धारणा है, जो अनेक बार अनेक प्रकारों से प्रकट होती है। कुछ वर्ष पूर्व सरकार ने 'हिन्दु कोड' बनाया। उसे बनाने में पं. नेहरू तथा डॉ. आम्बेडकर आदि अगुवा थे। यहां के बहुसंख्य समुदाय के लिये यह कोड लागू करने के विचार से अन्ततोगत्वा उन्हें इस कोड को 'हिन्दु कोड' ही कहना पड़ा तथा वह किन लोगों को लागू होगा, यह बताते समय उन्हें यही कहना पड़ा कि मुसलमान, ईसाई, पारसी तथा यहुदी लोगों को छोड़कर अन्य सभी के लिये-अर्थात् सनातनी, आर्य समाजी, जैन, सिक्ख, बौद्ध-सभी को यह लागू होगा। आगे चलकर तो यहां तक कहा है कि इनके अतिरिक्त और जो भी लोग होंगे, उन्हें भी यह कोड लागू होगा। 'हमें यह लागू नहीं होता' यह सिद्ध करने का दायित्व भी उन्हीं पर होगा।
हाँ....मैं, सलीम खान हिन्दू हूँ !!!
हिंदू शब्द अपने आप में एक भौगोलिक पहचान लिए हुए है, यह सिन्धु नदी के पार रहने वाले लोगों के लिए इस्तेमाल किया गया था या शायेद इन्दुस नदी से घिरे स्थल पर रहने वालों के लिए इस्तेमाल किया गया था। बहुत से इतिहासविद्दों का मानना है कि 'हिंदू' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अरब्स द्वारा प्रयोग किया गया था मगर कुछ इतिहासविद्दों का यह भी मानना है कि यह पारसी थे जिन्होंने हिमालय के उत्तर पश्चिम रास्ते से भारत में आकर वहां के बाशिंदों के लिए इस्तेमाल किया था इसी कारण भारत के कई विद्वानों और बुद्धिजीवियों का कहना है कि 'हिन्दु शब्द' के इस्तेमाल को धर्म के लिए प्रयोग करने के बजाये इसे सनातन या वैदिक धर्म कहना चाहिए. स्वामी विवेकानंद जैसे महान व्यक्ति का कहना है कि "यह वेदंटिस्ट धर्म" होना चाहिए
इस प्रकार भारतवर्ष में रहने वाले सभी बाशिंदे हिन्दू हैं, भौगोलिक रूप से! चाहे वो मैं हूँ या कोई अन्य
अनिल पुसादकर जी की पोस्ट
अगर मेरे शहर मे आग लगेगी तो जलूंगा मै और मेरे भाई लोग्।सबकी चिता की राख पर रोने वाले रूदाली लोग उसकी आंच पर अपनी राजनैतिक रोटी सेकेंगे।उस समय किसी को बचाने के लिये कथित धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदार और कथित मानवाधिकारवादी नही होंगे।बाद मे हम अपने हाथ देखेंगे तो उस पर लगे खून के निशान हम तमाम उम्र जीने नही देंगे।तब मुझे सत्तार उर्फ़ रज़्ज़ू जो हमारे लिये राजेन्द्र है माफ़ नही करेगा?उसकी बहन मेरी कलाई पर राखी बांधने से पहले मेरा हाथ काट लेने को सोचेगी।मै ये सब कहानी किस्से नही गढ रहा हूं।कभी भी आना रायपुर की मौधापारा मस्ज़िद के ठीक सामने रहता है आप लोगो का सत्तार।उसके घर जाकर आवाज़ लगाना राजेन्द्र ,राजेन्द्र। अगर अम्मा घर पर हुई तो अन्दर से ही कहेगी नही है बेटा राजेन्द्र घर पर्।सभी पाठको से क्षमा चाह्ते हुये कि इस घटिया मामले पर मैने पोस्ट क्यो लिख दी।
ये हैं एक ऐसे इंसान जो हिन्दु के साथ हैं मुसलमान
अपने देश में आजादी के बाद से हिन्दु और मुसलमान को लेकर विवाद होता रहा है। हर कोई बस अपने धर्म को ही बेहतर बताने की कोशिश में बरसों से लगा है। ऐसे में अपने देश में ही ऐसी कर्इं मिसालें सामने आती रहतीं हैं जो सर्वधर्म सद्भाव के लिए एक मील का पत्थर होती हैं। ऐसी ही एक मिसाल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भी देखने का मिलती है। ये मिसाल है एक ऐसे इंसान जीवन लाल साहू की जो पैदा तो हिन्दु धर्म में हुए हैं और हिन्दु हैं भी। लेकिन इनको जितना प्यार अपने हिन्दु धर्म से है उतना ही मुस्लिम धर्म ही नहीं बल्कि ईसाई और सिख धर्म से भी है। जीवन लाल जहां नवरात्रि में 9 दिनों तक उपवास रखते हैं, वहीं तीस दिनों का न सिर्फ रोजा रखते हैं बल्कि नमाज अदा करने के साथ-साथ ईद भी मनाते हैं। अभी बकरीद पड़ी तो वे अपने फिल्म सी शूटिंग छोड़कर
बकरीद मनाने अपने घर रायपुर आए गए।
हिन्दुओं पर सांप्रदायिकता का आरोप क्या सही है ??
कोई भी धर्म देश और काल के अनुरूप एक आचरण पद्धति होता है। हर धर्म के पांच मूल सिद्धांत होते हैं, सत्य का पालन ,जीवों पर दया , भलाई , इंद्रीय संयम , और मानवीय उत्थान की उत्कंठा। लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि पूजा , नमाज , हवन या सत्संग कर लेने से उनका उत्थान नहीं होनेवाला। धर्म निरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों और ईसाईयों के मुद्दे पर देश में अनावश्यक हंगामा खडा किया जाना और राम मंदिर तथा बाबरी मस्जिद जैसे सडे प्रसंगों को तूल देना हमारा धर्म नहीं है।
आज इस राजनीतिक वातावरण के परिप्रेक्ष्य में 'हिन्दू' शब्द की जितनी परिभाषा राजनेताओं की ओर से दी जा रही हैं , उतनी परिमार्जित परिभाषा तो विभिन्न धर्म सुधारकों , विद्वानों , तथा चिंतकों ने कभी नहीं की होगी।
आखिर कुछ मुसलमान भारतीयता को स्वीकार क्यों नही करते!
हमारे गांव के सभी मुसलमान काका, चाचा और दादा किसी भी आंतकवादी संगठन को नही जानते और न ही वह रेडियों तेहरान, बगदाद या कराची सुनते है। और न तो वह इस्लाम के प्रसार-प्रचार या कट्टरता की बात करते है, वे सिर्फ़ अपने खेतों की, मवेशियों की, गांव की और अपने सुख व दुख की बात करते है। वो गंगा स्नान भी जाते है और धार्मिक आयोजनों में भी शरीक होते है, और ऐसा हिन्दू भी करते है, हम तज़ियाओं में शामिल होते है, उनके हर उतसव में भी और उनके पूज्यनीय मज़ारों पर भी फ़ूल चढ़ाते है। यकीन मानिए ये सब करते वक्त हम दोनों कौमों के किसी भी व्यक्ति को ये एहसास नही होता कि हम अलाहिदा कौमों से है और यही सत्य भी है। हमारे पूर्वज एक, भाषा एक, घर एक, गांव एक और एक धरती से है, जो हमारा पोषण करती है। इसलिए मेरा अनुरोध है इन दोनों कौमों के कथित व स्वंभू लम्बरदारों से कि कृपया जहरीली बातें न करे और गन्दे इतिहास की भी नही जो हमारा नही था । सिर्फ़ चन्द अय्यास राजाओं और नवाबों और धार्मिक बेवकूफ़ों का था वह अतीत जिसके बावत वो अपनी इबारते लिखवाते थे और कुछ बेवकूफ़ इतिहासकार उसी इतिहास के कुछ पन्नों की नकल कर अपनी व्यथित और बीमार मनोदशा के तमाम तर्क देकर समाज़ में स्थापित होना चाहते है।
Saturday, January 23, 2010
भारतीय चिंतन के प्रख्यात व्याख्याकार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक, भारतीय मजदूर संघ सहित दर्जनों संगठनों के संस्थापक मजदूर नेता स्व. दत्तोपंत ठेंगड़ी की स्मृति में नई दिल्ली स्थित कांस्टीट्यूशन क्लब में स्वदेशी जागरण मंच द्वारा 22 जनवरी को व्याख्यान माला का आयोजन किया गया।
‘चीन की चुनौती और हम’ विषयक इस संगोष्टी के मुख्य वक्ता के रूप में स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सहसंयोजक भगवती शर्मा एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी शोध प्रतिष्ठान के निदेशक तरूण विजय ने मुख्य रूप से संबोधित किया।
अपने संबोधन में पांचजन्य के पूर्व संपादक श्री तरूण विजय ने चीन के साथ मित्रता बढ़ाने की वकालत की। उन्होंने यह दावा भी किया कि सन् 2020 तक तो किसी हालत में चीन भारत पर हमला नहीं करेगा।
अपने दावे के समर्थन में उन्होंने कहा कि चीन की रणनीति अमेरिका से आगे निकलने की है। वह भारत से युद्ध मोल ले कर अपने लक्ष्य से विरत होना नहीं चाहेगा।
भारत और चीन के हजारों वर्ष पुराने संबंधों की याद दिलाते हुए श्री विजय ने उपस्थित श्रोताओं का आह्वान किया कि चीन को गहराई से समझने की जरूरत है। चीन के संदर्भ में समूचे देश में स्थान-स्थान पर थिंक टैंक बनने चाहिए। शोध केंद्र स्थापित होना चाहिए। अधिकाधिक लोगों को यूरोप की बजाए घूमने और पर्यटन के लिए चीन जाना चाहिए।
भारत-चीन सम्बंधों के इतिहास का वर्णन करते हुए श्री विजय ने अपनी चीन यात्रा का रोचक विवरण प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि देश में चीन को शत्रू मानने वाला एक वर्ग है, वहीं दूसरी ओर इस बात के भी प्रबल पक्षधर हैं कि चीन के साथ विवाद के विषय एक तरफ रखकर सम्बंध स्थापिन होने चाहिए। जहां विवाद है वहां बातचीत का रास्ता निकाला जाना चाहिए।
उन्होंने कहा कि चीन के साथ हमारा 9-10हजार साल पुराना नाता है। यह नाता सभ्यतामूलक और संस्कृतिमूलक रहा है। 1962 के पूर्व भारत और चीन के बीच कभी युद्ध नहीं हुआ। दो महानतम सभ्यताओं के रूप में दुनिया ने भारत और चीन को जाना-पहचाना है। दोनों के मध्य संबंधों का सिलसिला अति प्राचीन है।
उन्होंने कहा कि चीन का प्राचीन साहित्य बताता है कि भारत के संतों-महात्माओं की वहां विशेष पूछ रही है। बीजिंग के इतिहास में कुमारजीव प्रथम राजगुरू थे जिनके पिता कश्मीर के और माता चीन के शिंजियांग प्रांत की थीं। कुमार जीव के साथ-साथ भारत के ऋषि कश्यप, ऋषि मातंग, सामंद भद्र का भी उल्लेख चीनी साहित्य और इतिहास में सम्मानपूर्वक होता आया है।
कुमारजीव का विशेष उल्लेख करते हुए श्री तरूण विजय ने बताया कि उन्होंने भारतीय ज्ञान-विज्ञान का चीनी भाषा में अनुवाद किया और वे अनुवाद करने में अति प्रवीण थे। उन्हें सत्रह प्रकार की अनुवाद कला का अनुभवजन्य ज्ञान था।
उन्होंने कहा कि इसी प्रकार चीन से ह्ववेनसांग जैसे यात्री भारत में आए जिन्होंने भारत का प्रामाणिक इतिहास लिखा।
अपने चीन प्रवास का जिक्र करते हुए श्री विजय ने कहा कि भारत और चीन के मध्य संबंध के लिए सरकार द्वारा वह दो बार सम्बंधित समितियों में नामित रहे हैं। दोनों देशों को देखकर अनुभव में यही आता है कि चीनी सामान जिस प्रकार से भारतीय बाजार में अपनी पकड़ बना चुका है उससे चीन भारत के हर घर में पहुंच गया है। इसी प्रकार भगवान बुद्ध के कारण भारत चीन के हर घर में पहुंचा हुआ है।
श्री विजय ने कहा कि चीन ने वेटिकन को अपने देश में मान्यता नहीं दी है। यह बड़ी बात है। इसी प्रकार चीन ने अपने देश में असंतोष को पनपने नहीं दिया। शिंजियांग में उइगर मुसलमानों का दमन कर चीन ने वहां का मूल चीनीयों अर्थात हान वंशियों को बसाकर वहां का जनसंख्या अनुपात ही बदल दिया ।
उन्होंने कहा कि चीन में आज बाजारवाद के साथ राष्ट्रवाद प्रबल है। चीन ने भगवान बुद्ध को भी चीनीकरण कर इस प्रकार उन्हें प्रस्तुत करना शुरू कर दिया है कि मानो बुद्ध भारत की बजाए चीन में ही जन्में थे। उन्हें सिर्फ अपने देश की परवाह है बाकी दुनिया के हितों के बारे में वे नहीं सोचते।
श्री विजय ने कहा कि भारत के प्रति चीन के सामान्य जन में अपार श्रद्धा है। अगला जन्म भारत में हो, यह वहां के लोगों का स्वप्न है।
उन्होंने कहा कि भारत के साथ चीन के सम्बंध तब बिगड़ने शुरू हुए जब मार्क्सवाद चीन पहुंचा। माओत्सेतुंग के उभार के साथ भारत और चीन के सम्बंध बिगड़ने लगे। लेनिन और माओ के विचार ने चीन में भारत को कमजोर किया।
उन्होंने कहा कि माओत्सेतुंग की सांस्कृतिक क्रांति ने चीन में 4 करोड़ निरपराध लोगों का संहार किया। पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने गांव-गांव को रौंद डाला। भारत और चीन के वैचारिक सम्बंध को माओ ने समाप्त किया।
माओवाद के खतरे को रेखांकित करते हुए श्री तरूण विजय ने कहा कि इसका आतंक नक्सली रुपी धरकर देश में फैल रहा है। नेपाल, बिहार, उप्र. से लेकर आन्ध्र प्रदेश तक लाल गलियारा इसी की देन है। नागालैण्ड में एनसीएन को सारी मदद यही मुहैया करा रहा है।
उन्होंने कहा कि भारत की जीडीपी से चीन तीन गुना ज्यादा समृद्ध है। प्रति वयक्ति के लिहाज से वह 2.2 गुना ज्यादा धनी है। पिछले 100 सालों में जहां भारत का भूगोल सिकुड़कर आधा रह गया है वहीं चीन का भूगोल बढ़कर दोगुना हो गया है। चीन आज एशिया ही नहीं विश्व में नंबर दो बन गया है और आगे चलकर वह नंबर एक बनने की दिशा में अमेरिका को मात करने वाला है। सामरिक, आर्थिक, कूटनीतिक हर मोर्चे पर चीन भारत से ज्यादा मजबूत है।
श्रीविजय ने कहा लेकिन एक बात है जिसे चीन के विद्वान स्वीकार कर रहे हैं जिसमें भारत चीन को मात कर रहा है। और वह बात है कि अराजक राजनीति और तमाम कलह, भेद होने के बाद भी भारत दुनिया का महान लोकतंत्र दिन प्रति दिन मजबूत हो रहा है। यही एक बात है जिसके कारण चीन भारत से आशंकित है। भारत की सभ्यतामूलक, संस्कृतिमूलक चीजें चीन को डराती हैं। इसी के साथ भारत के युवाओं के कमाल के कारण सूचना प्रोद्योगिकी, अंतरिक्ष आदि क्षेत्रों में देश की कमाल की उन्नति को भी वह संशय से देखता है।
भारत में राष्ट्रवादी आंदोलन पर भी चीन की निगाह है। चीन भारत में राष्ट्रवाद और लोकतंत्र की शक्ति को पहचानने के लिए अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आंदोलन का अध्ययन भी करवा रहा है। वह यह जानने का इच्छुक है कि भारत का असली ताकत क्या है। भारत कैसे सफल लोकतंत्र बना हुआ है।
उन्होंने कहा कि चीन के गांव बदहाल हैं। लोग गरीबी से तंग हैं। मजदूरों का जमकर शोषण हो रहा है। यही कारण है कि चीनी माल दुनिया में सस्ता बिक रहा है। इसी के साथ चीन की कम्युनिष्ट पार्टी भ्रष्टाचार के मामले में भी रिकार्ड तोड़ रही है। हर दिन स्कैण्डल होता है। मीडिया की वहां कोई आवाज नहीं है। सरकारी मीडिया है जो सिर्फ सरकार और कम्युनिष्टों के गीत गाती है। इस प्रकार चीन ने तानाशाही के सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिये हैं। बच्चों को स्कूलों में पहले दिन से कम्युनिष्ट विचार और चीनी राष्ट्रवाद की शिक्षा दी जा रही है।
श्री विजय ने कहा कि प्रखर राष्ट्रवाद ही चीन का समाधान है। भारत की हिमालयी सीमा पर उसकी दृष्टि गड़ी है, उसे असफल करने के लिए जन-जन में देशभक्ति की भावना जगाना जरूरी है।
श्री विजय ने कहा कि जहा तक चीन के हमले का सवाल है तो हमें डरने की जरूरत नहीं है क्योंकि हमले में चीन का नुकसान है। चीन अपने आर्थिक विकास पर ध्यान लगाए बैठा है और वह सन् 2020 तक भारत पर हमले की गल्ती नहीं करेगा।
श्री भगवती शर्मा ने अपने संबोधन में कहा कि चीन की गतिविधियां सन् 62 के समान संधिग्ध हो गई हैं। वह भारत पर हमले की जुगत में है। भारत की चौतरफा घेरबंदी उसने पूर्ण कर ली है।
‘चीन की चुनौती और हम’ विषयक इस संगोष्टी के मुख्य वक्ता के रूप में स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सहसंयोजक भगवती शर्मा एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी शोध प्रतिष्ठान के निदेशक तरूण विजय ने मुख्य रूप से संबोधित किया।
अपने संबोधन में पांचजन्य के पूर्व संपादक श्री तरूण विजय ने चीन के साथ मित्रता बढ़ाने की वकालत की। उन्होंने यह दावा भी किया कि सन् 2020 तक तो किसी हालत में चीन भारत पर हमला नहीं करेगा।
अपने दावे के समर्थन में उन्होंने कहा कि चीन की रणनीति अमेरिका से आगे निकलने की है। वह भारत से युद्ध मोल ले कर अपने लक्ष्य से विरत होना नहीं चाहेगा।
भारत और चीन के हजारों वर्ष पुराने संबंधों की याद दिलाते हुए श्री विजय ने उपस्थित श्रोताओं का आह्वान किया कि चीन को गहराई से समझने की जरूरत है। चीन के संदर्भ में समूचे देश में स्थान-स्थान पर थिंक टैंक बनने चाहिए। शोध केंद्र स्थापित होना चाहिए। अधिकाधिक लोगों को यूरोप की बजाए घूमने और पर्यटन के लिए चीन जाना चाहिए।
भारत-चीन सम्बंधों के इतिहास का वर्णन करते हुए श्री विजय ने अपनी चीन यात्रा का रोचक विवरण प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि देश में चीन को शत्रू मानने वाला एक वर्ग है, वहीं दूसरी ओर इस बात के भी प्रबल पक्षधर हैं कि चीन के साथ विवाद के विषय एक तरफ रखकर सम्बंध स्थापिन होने चाहिए। जहां विवाद है वहां बातचीत का रास्ता निकाला जाना चाहिए।
उन्होंने कहा कि चीन के साथ हमारा 9-10हजार साल पुराना नाता है। यह नाता सभ्यतामूलक और संस्कृतिमूलक रहा है। 1962 के पूर्व भारत और चीन के बीच कभी युद्ध नहीं हुआ। दो महानतम सभ्यताओं के रूप में दुनिया ने भारत और चीन को जाना-पहचाना है। दोनों के मध्य संबंधों का सिलसिला अति प्राचीन है।
उन्होंने कहा कि चीन का प्राचीन साहित्य बताता है कि भारत के संतों-महात्माओं की वहां विशेष पूछ रही है। बीजिंग के इतिहास में कुमारजीव प्रथम राजगुरू थे जिनके पिता कश्मीर के और माता चीन के शिंजियांग प्रांत की थीं। कुमार जीव के साथ-साथ भारत के ऋषि कश्यप, ऋषि मातंग, सामंद भद्र का भी उल्लेख चीनी साहित्य और इतिहास में सम्मानपूर्वक होता आया है।
कुमारजीव का विशेष उल्लेख करते हुए श्री तरूण विजय ने बताया कि उन्होंने भारतीय ज्ञान-विज्ञान का चीनी भाषा में अनुवाद किया और वे अनुवाद करने में अति प्रवीण थे। उन्हें सत्रह प्रकार की अनुवाद कला का अनुभवजन्य ज्ञान था।
उन्होंने कहा कि इसी प्रकार चीन से ह्ववेनसांग जैसे यात्री भारत में आए जिन्होंने भारत का प्रामाणिक इतिहास लिखा।
अपने चीन प्रवास का जिक्र करते हुए श्री विजय ने कहा कि भारत और चीन के मध्य संबंध के लिए सरकार द्वारा वह दो बार सम्बंधित समितियों में नामित रहे हैं। दोनों देशों को देखकर अनुभव में यही आता है कि चीनी सामान जिस प्रकार से भारतीय बाजार में अपनी पकड़ बना चुका है उससे चीन भारत के हर घर में पहुंच गया है। इसी प्रकार भगवान बुद्ध के कारण भारत चीन के हर घर में पहुंचा हुआ है।
श्री विजय ने कहा कि चीन ने वेटिकन को अपने देश में मान्यता नहीं दी है। यह बड़ी बात है। इसी प्रकार चीन ने अपने देश में असंतोष को पनपने नहीं दिया। शिंजियांग में उइगर मुसलमानों का दमन कर चीन ने वहां का मूल चीनीयों अर्थात हान वंशियों को बसाकर वहां का जनसंख्या अनुपात ही बदल दिया ।
उन्होंने कहा कि चीन में आज बाजारवाद के साथ राष्ट्रवाद प्रबल है। चीन ने भगवान बुद्ध को भी चीनीकरण कर इस प्रकार उन्हें प्रस्तुत करना शुरू कर दिया है कि मानो बुद्ध भारत की बजाए चीन में ही जन्में थे। उन्हें सिर्फ अपने देश की परवाह है बाकी दुनिया के हितों के बारे में वे नहीं सोचते।
श्री विजय ने कहा कि भारत के प्रति चीन के सामान्य जन में अपार श्रद्धा है। अगला जन्म भारत में हो, यह वहां के लोगों का स्वप्न है।
उन्होंने कहा कि भारत के साथ चीन के सम्बंध तब बिगड़ने शुरू हुए जब मार्क्सवाद चीन पहुंचा। माओत्सेतुंग के उभार के साथ भारत और चीन के सम्बंध बिगड़ने लगे। लेनिन और माओ के विचार ने चीन में भारत को कमजोर किया।
उन्होंने कहा कि माओत्सेतुंग की सांस्कृतिक क्रांति ने चीन में 4 करोड़ निरपराध लोगों का संहार किया। पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने गांव-गांव को रौंद डाला। भारत और चीन के वैचारिक सम्बंध को माओ ने समाप्त किया।
माओवाद के खतरे को रेखांकित करते हुए श्री तरूण विजय ने कहा कि इसका आतंक नक्सली रुपी धरकर देश में फैल रहा है। नेपाल, बिहार, उप्र. से लेकर आन्ध्र प्रदेश तक लाल गलियारा इसी की देन है। नागालैण्ड में एनसीएन को सारी मदद यही मुहैया करा रहा है।
उन्होंने कहा कि भारत की जीडीपी से चीन तीन गुना ज्यादा समृद्ध है। प्रति वयक्ति के लिहाज से वह 2.2 गुना ज्यादा धनी है। पिछले 100 सालों में जहां भारत का भूगोल सिकुड़कर आधा रह गया है वहीं चीन का भूगोल बढ़कर दोगुना हो गया है। चीन आज एशिया ही नहीं विश्व में नंबर दो बन गया है और आगे चलकर वह नंबर एक बनने की दिशा में अमेरिका को मात करने वाला है। सामरिक, आर्थिक, कूटनीतिक हर मोर्चे पर चीन भारत से ज्यादा मजबूत है।
श्रीविजय ने कहा लेकिन एक बात है जिसे चीन के विद्वान स्वीकार कर रहे हैं जिसमें भारत चीन को मात कर रहा है। और वह बात है कि अराजक राजनीति और तमाम कलह, भेद होने के बाद भी भारत दुनिया का महान लोकतंत्र दिन प्रति दिन मजबूत हो रहा है। यही एक बात है जिसके कारण चीन भारत से आशंकित है। भारत की सभ्यतामूलक, संस्कृतिमूलक चीजें चीन को डराती हैं। इसी के साथ भारत के युवाओं के कमाल के कारण सूचना प्रोद्योगिकी, अंतरिक्ष आदि क्षेत्रों में देश की कमाल की उन्नति को भी वह संशय से देखता है।
भारत में राष्ट्रवादी आंदोलन पर भी चीन की निगाह है। चीन भारत में राष्ट्रवाद और लोकतंत्र की शक्ति को पहचानने के लिए अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आंदोलन का अध्ययन भी करवा रहा है। वह यह जानने का इच्छुक है कि भारत का असली ताकत क्या है। भारत कैसे सफल लोकतंत्र बना हुआ है।
उन्होंने कहा कि चीन के गांव बदहाल हैं। लोग गरीबी से तंग हैं। मजदूरों का जमकर शोषण हो रहा है। यही कारण है कि चीनी माल दुनिया में सस्ता बिक रहा है। इसी के साथ चीन की कम्युनिष्ट पार्टी भ्रष्टाचार के मामले में भी रिकार्ड तोड़ रही है। हर दिन स्कैण्डल होता है। मीडिया की वहां कोई आवाज नहीं है। सरकारी मीडिया है जो सिर्फ सरकार और कम्युनिष्टों के गीत गाती है। इस प्रकार चीन ने तानाशाही के सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिये हैं। बच्चों को स्कूलों में पहले दिन से कम्युनिष्ट विचार और चीनी राष्ट्रवाद की शिक्षा दी जा रही है।
श्री विजय ने कहा कि प्रखर राष्ट्रवाद ही चीन का समाधान है। भारत की हिमालयी सीमा पर उसकी दृष्टि गड़ी है, उसे असफल करने के लिए जन-जन में देशभक्ति की भावना जगाना जरूरी है।
श्री विजय ने कहा कि जहा तक चीन के हमले का सवाल है तो हमें डरने की जरूरत नहीं है क्योंकि हमले में चीन का नुकसान है। चीन अपने आर्थिक विकास पर ध्यान लगाए बैठा है और वह सन् 2020 तक भारत पर हमले की गल्ती नहीं करेगा।
श्री भगवती शर्मा ने अपने संबोधन में कहा कि चीन की गतिविधियां सन् 62 के समान संधिग्ध हो गई हैं। वह भारत पर हमले की जुगत में है। भारत की चौतरफा घेरबंदी उसने पूर्ण कर ली है।
Tuesday, January 19, 2010
sahi kha
हमारे धर्म को बदनाम किया जा रहा है कुछ हद्द तक अपने ही लोग इसमें संलिप्त है . उनके तर्क यही होते है माथे पर टिका लगाना बकवास है , अभी महाकुम्भ पर भी एक हिन्दू ने ही लिखा ५ करोड़ मूर्खो ने लगाई डुबकी , कभी मन्दिरों पर चढ़ते चढ़ावे को लेकर धर्म का घेराव किया जाता है , तो कभी साधू संतो की वाणी को सुनना भी अन्धविश्वास बताया जाता है . भारत पूर्णतः स्नात्मधर्मी था लेकिन हमारे ही कुछ लोग के स्वार्थ पूर्ती के कारण बार बार देश गुलाम हुआ बार बार खंडित हुआ . जिस भी विदेशी ने यहा राज किया उसने हमारे धर्म को या तो अन्धविश्वास बताया या किसी न किसी तरीके से हमारे इतिहास को तोड़मरोड़ कर पेश किया गया . लेकिन कुछ पोंगा पंडितो की वजह से भी हमारी संस्कृति बदनाम हुई सही मायनो में कहा जाये तो वे हमें कुछ बातो में बरगलाते रहे . माथे पर तिलक लगाना हो या कुम्भ पर्व पर स्नान इन सब का वज्ञानिक कारण भी है . तुलसी को जल देने से हो या सूर्य को जल देने से इन सभी में हमारे ऋषि मुनियों की मनुष्य को सवच्छ रहने के लिए खोजे की गई है . और यह सब सिद्ध हो चूका है
Sunday, January 17, 2010
PRक्या आप ऐसा नहीं चाहते हैं कि काश आप अपने माता-पिता के साथ अधिक समय व्यतीत करते तथा और भी अच्छी तरह से उनकी देखभाल करते? क्या कभी आपने खुद से पूछा है कि पिछली बार आपने कब ऐसा कुछ किया था जिससे आपके माता-पिता को अपार प्रसन्नता हुई थी? क्या आप इस बात से सहमत हैं कि हम लोग अपनी तेज रफ्तार जिंदगी, करियर में आगे बढ़ने की लालसा और सक्रिय सामाजिक जिन्दगी में अपने माता-पिता और उनकी खुशियों को नजरअंदाज कर रहे हैं। इन सभी सवालों का जवाब मिलेगा स्टार प्लस पर शुरू होने वाले नए रियलिटी शो ‘महायात्रा’ में। एक ऐसा शो जिसमें इस बात की परीक्षा होगी कि आप अपने माता-पिता को उनके सपनों के तीर्थ स्थान पर ले जाने के लिए कितने प्रतिबद्ध और दृढ़ हैं।
‘महायात्रा’ भारतीय टेलीविजन पर प्रारंभ होने वाला एक धार्मिक एडवेंचर है जिसमें 12 प्रतिभागी एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हुए अपने माता-पिता के चार धामों की यात्रा के सपनों को साकार करने का प्रयास कर उनके प्रति अपने प्यार, समर्पण और त्याग का उदाहरण पेश करेंगे।
स्टार इंडिया प्रायवेट लिमिटेड के ईवीपी मार्केटिंग अनुपम वासुदेव कहते हैं ‘भारत में यह पहला ऐसा शो है जिसमें अध्यात्म और एडवेंचर का समन्वय है।‘
18 जनवरी से प्रारंभ होने वाले इस शो में 12 टीमें होंगी और प्रत्येक टीम में 3 सदस्य (बेटा/बेटी के साथ माता-पिता अथवा सास-ससुर) होंगे। प्रत्येक बच्चे को चार धामों की यात्रा करवाकर अपने माता-पिता के सपनों को साकार करना होगा। विजेता को इनामी राशि भी मिलेगी।
इस शो के माध्यम से दर्शक घर बैठे ही देश के महत्वपूर्ण धार्मिक स्थानों पर होने वाली पूजा एवं महाआरती के साक्षी बन सकेंगे। इस शो के होस्ट मनीष गोयल हैं। 18 जनवरी से प्रत्येक सोमवार से शुक्रवार तक शाम 7 बजे स्टार प्लस पर इस शो को देखा जा सकेगा।
‘महायात्रा’ भारतीय टेलीविजन पर प्रारंभ होने वाला एक धार्मिक एडवेंचर है जिसमें 12 प्रतिभागी एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हुए अपने माता-पिता के चार धामों की यात्रा के सपनों को साकार करने का प्रयास कर उनके प्रति अपने प्यार, समर्पण और त्याग का उदाहरण पेश करेंगे।
स्टार इंडिया प्रायवेट लिमिटेड के ईवीपी मार्केटिंग अनुपम वासुदेव कहते हैं ‘भारत में यह पहला ऐसा शो है जिसमें अध्यात्म और एडवेंचर का समन्वय है।‘
18 जनवरी से प्रारंभ होने वाले इस शो में 12 टीमें होंगी और प्रत्येक टीम में 3 सदस्य (बेटा/बेटी के साथ माता-पिता अथवा सास-ससुर) होंगे। प्रत्येक बच्चे को चार धामों की यात्रा करवाकर अपने माता-पिता के सपनों को साकार करना होगा। विजेता को इनामी राशि भी मिलेगी।
इस शो के माध्यम से दर्शक घर बैठे ही देश के महत्वपूर्ण धार्मिक स्थानों पर होने वाली पूजा एवं महाआरती के साक्षी बन सकेंगे। इस शो के होस्ट मनीष गोयल हैं। 18 जनवरी से प्रत्येक सोमवार से शुक्रवार तक शाम 7 बजे स्टार प्लस पर इस शो को देखा जा सकेगा।
किसी भी धर्म, समाज या राष्ट्र में नीति-नियम और व्यवस्था नहीं है तो सब कुछ अव्यवस्थित और मनमाना होगा। उसमें भ्रम और भटकाव की गुंजाइश ज्यादा होगी इसलिए व्यवस्थाकारों ने व्यवस्था दी। हिंदू धर्म ने जो व्यवस्था दी उसका पालन आज भले ही न होता हो लेकिन वह आज भी प्रासंगिक है। लोगों के लिए व्यवस्था ऐसी हो जिसमें लोग जी सकें, न कि व्यवस्था उनके लिए बोझ हो या कि वे व्यवस्था के गुलाम हों।
हिंदू धर्म जीवन को सही तरीके से जीने और उसका लुत्फ उठाने तथा मोक्ष के लिए एक संपूर्ण जीवन शैली का मार्ग बताता है। कोई उस मार्ग पर चलना चाहे तो यह उसकी स्वतंत्रता है। मूलत: हिंदू धर्म स्वतंत्रता का पक्षधर है। आपकी स्वतंत्रता से किसी और की स्वतंत्रता में कोई दखल नहीं होना चाहिए इसलिए हिंदू धर्म एक ऐसी साफ-सुथरी व्यवस्था देता है, जिसमें आप साँस लेते हुए स्वयं का आत्म विकास कर सकें।
तब हिंदू धर्म आश्रमों की व्यवस्था के अंतर्गत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की शिक्षा देता है। इसी में समाहित है धार्मिक नियम और व्यवस्था के सूत्र जैसे कैसा हो हिंदू घर, हिंदू परिवार, हिंदू समाज, हिंदू कानून, हिंदू आश्रम, हिदू मंदिर, हिंदू संघ, हिंदू कर्त्तव्य और हिंदू सिद्धांत आदि।
वेद, स्मृति, गीता, पुराण और सूत्रों में नीति, नियम और व्यवस्था की अनेक बातों का उल्लेख मिलता है। उक्त में से किसी भी ग्रंथ में मतभेद या विरोधाभास नहीं है। जहाँ ऐसा प्रतीत होता है तो ऐसा कहा जाता है कि जो बातें वेदों का खंडन करती हैं, वे अमान्य हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि वेद ही सर्वोच्च है। वही कानून श्रुति अर्थात वेद है। महर्षि वेद व्यास ने भी कहा है कि जहाँ कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहाँ वेद की बात मान्य होगी। वेद और पुराण के मतभेदों को समझते हुए हम हिंदू व्यवस्था के उस संपूर्ण पक्ष को लेंगे जिसमें उन सभी विचारधाराओं का सम्मान हो, जिनसे वेद प्रकाशित होते हैं।
व्यवस्था हमारे स्व-अनुशासन और समाज के संगठन-अनुशासन के लिए आवश्यक है। व्यवस्था से ही मानव समाज को नैतिक बल मिलता है। जब तक व्यवस्था न थी तो मानव समाज पशुवत जीवन यापन करता था। वह ज्यादा हिंसक और व्यभिचारी था।
मानव कबीलों में जीता था तब हर कबीले के अपने अलग नियम और धरम होते थे, जहाँ पर कबीला प्रमुख की मनमानी चलती थी। स्त्रियों की जिंदगी बेहाल थी। यही सब देखते हुए पूर्व में मनुओं ने फिर वैदिक ऋषियों ने मानव को नैतिक रूप से एकजुट करने के लिए ही नीति और नियमों का निर्माण किया, जिसे जानना हर हिंदू का कर्त्तव्य होना चाहिए।
हिंदू धर्म जीवन को सही तरीके से जीने और उसका लुत्फ उठाने तथा मोक्ष के लिए एक संपूर्ण जीवन शैली का मार्ग बताता है। कोई उस मार्ग पर चलना चाहे तो यह उसकी स्वतंत्रता है। मूलत: हिंदू धर्म स्वतंत्रता का पक्षधर है। आपकी स्वतंत्रता से किसी और की स्वतंत्रता में कोई दखल नहीं होना चाहिए इसलिए हिंदू धर्म एक ऐसी साफ-सुथरी व्यवस्था देता है, जिसमें आप साँस लेते हुए स्वयं का आत्म विकास कर सकें।
तब हिंदू धर्म आश्रमों की व्यवस्था के अंतर्गत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की शिक्षा देता है। इसी में समाहित है धार्मिक नियम और व्यवस्था के सूत्र जैसे कैसा हो हिंदू घर, हिंदू परिवार, हिंदू समाज, हिंदू कानून, हिंदू आश्रम, हिदू मंदिर, हिंदू संघ, हिंदू कर्त्तव्य और हिंदू सिद्धांत आदि।
वेद, स्मृति, गीता, पुराण और सूत्रों में नीति, नियम और व्यवस्था की अनेक बातों का उल्लेख मिलता है। उक्त में से किसी भी ग्रंथ में मतभेद या विरोधाभास नहीं है। जहाँ ऐसा प्रतीत होता है तो ऐसा कहा जाता है कि जो बातें वेदों का खंडन करती हैं, वे अमान्य हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि वेद ही सर्वोच्च है। वही कानून श्रुति अर्थात वेद है। महर्षि वेद व्यास ने भी कहा है कि जहाँ कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहाँ वेद की बात मान्य होगी। वेद और पुराण के मतभेदों को समझते हुए हम हिंदू व्यवस्था के उस संपूर्ण पक्ष को लेंगे जिसमें उन सभी विचारधाराओं का सम्मान हो, जिनसे वेद प्रकाशित होते हैं।
व्यवस्था हमारे स्व-अनुशासन और समाज के संगठन-अनुशासन के लिए आवश्यक है। व्यवस्था से ही मानव समाज को नैतिक बल मिलता है। जब तक व्यवस्था न थी तो मानव समाज पशुवत जीवन यापन करता था। वह ज्यादा हिंसक और व्यभिचारी था।
मानव कबीलों में जीता था तब हर कबीले के अपने अलग नियम और धरम होते थे, जहाँ पर कबीला प्रमुख की मनमानी चलती थी। स्त्रियों की जिंदगी बेहाल थी। यही सब देखते हुए पूर्व में मनुओं ने फिर वैदिक ऋषियों ने मानव को नैतिक रूप से एकजुट करने के लिए ही नीति और नियमों का निर्माण किया, जिसे जानना हर हिंदू का कर्त्तव्य होना चाहिए।
Tuesday, January 5, 2010
गुरु गोबिन्द सिंह ( जन्म: २२ दिसंबर १६६६, मृत्यु: ७ अक्टूबर १७०८) सिखों के दसवें एवं अन्तिम गुरु थे। उनका जन्म बिहार के पटना शहर में हुआ था । उनके पिता गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के उपरान्त ११ नवम्बर सन १६७५ को वे गुरू बने। वह एक महान योद्धा, कवि एवं आध्यात्मिक नेता थे। उन्होने सन १६९९ में बैसाखी के दिन उन्होने खालसा पन्थ की स्थापना की जो सिखों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। उन्होने मुगलों या उनके सहयोगियों ( जैसे, शिवालिक पहाडियों के राजा) के साथ १४ युद्ध लड़े।
गुरू गोबिन्द सिंह ने सिखों की पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया और इसे ही सिखों को शाश्वत गुरू घोषित किया। बिचित्र नाटक को उनकी आत्मकथा माना जाता है। यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग है। दसम ग्रन्थ, गुरू गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है। सिखों के दस गुरु हैं ।
[संपादित करें] गुरु गोबिन्द सिंह का जन्म
उस समय औरंगजेब जैसा जालिम बादशाह दिल्ली के तख्त पर बैठा हुआ था। उसके आतंक से लोगों को राहत देने के लिए तथा हिंदू धर्म की रक्षा के लिए जिस महान पुरुष ने अपने शीष की कुरबानी दी, ऐसे सिक्खों के नवें गुरु गुरु तेग बहादुर के घर में सिक्खों के दसवें और अंतिम गुरु गोबिंद सिंह का जन्म हुआ था। उन दिनों गुरु तेग बहादुर पटना (बिहार) में रहते थे। 22 दिसंबर, सन् 1666 को गुरु तेग बहादुर की धर्मपरायण पत्नी गूजरी देवी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो बाद में गुरु गोबिंद सिंह के नाम से विख्यात हुआ। बालक के जन्म पर पूरे नगर में उत्सव मनाया गया। उन दिनों गुरु तेग बहादुर असम-बंगाल में गुरु नानक देवजी के संदेश का प्रचार-प्रसार करते हुए घूम रहे थे।
‘‘वे यहां होते तो कितने प्रसन्न होते।’’ माता गूजरी बोलीं। ‘‘उन्हें समाचार
गुरू गोबिन्द सिंह ने सिखों की पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया और इसे ही सिखों को शाश्वत गुरू घोषित किया। बिचित्र नाटक को उनकी आत्मकथा माना जाता है। यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग है। दसम ग्रन्थ, गुरू गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है। सिखों के दस गुरु हैं ।
[संपादित करें] गुरु गोबिन्द सिंह का जन्म
उस समय औरंगजेब जैसा जालिम बादशाह दिल्ली के तख्त पर बैठा हुआ था। उसके आतंक से लोगों को राहत देने के लिए तथा हिंदू धर्म की रक्षा के लिए जिस महान पुरुष ने अपने शीष की कुरबानी दी, ऐसे सिक्खों के नवें गुरु गुरु तेग बहादुर के घर में सिक्खों के दसवें और अंतिम गुरु गोबिंद सिंह का जन्म हुआ था। उन दिनों गुरु तेग बहादुर पटना (बिहार) में रहते थे। 22 दिसंबर, सन् 1666 को गुरु तेग बहादुर की धर्मपरायण पत्नी गूजरी देवी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो बाद में गुरु गोबिंद सिंह के नाम से विख्यात हुआ। बालक के जन्म पर पूरे नगर में उत्सव मनाया गया। उन दिनों गुरु तेग बहादुर असम-बंगाल में गुरु नानक देवजी के संदेश का प्रचार-प्रसार करते हुए घूम रहे थे।
‘‘वे यहां होते तो कितने प्रसन्न होते।’’ माता गूजरी बोलीं। ‘‘उन्हें समाचार
Monday, January 4, 2010
Sunday, January 3, 2010
आँवले का मुरब्बा रोज खाएँ ऊपर से गाजर का रस पिएँ। तुलसी की जड़ के टुकड़े को पीसकर पानी के साथ पीना लाभकारी होता है। अगर जड़ नहीं उपलब्ध हो तो तो बीज 2 चम्मच शाम के समय लें। लहसुन की दो कली कुचल कर निगल जाएँ। थोड़ी देर बाद गाजर का रस पिएँ। मुलहठी का चूर्ण आधा चम्मच और आक की छाल का चूर्ण एक चम्मच दूध के साथ लें। काली तुलसी के पत्ते 10-12 रात में जल के साथ लें। रात को एक लीटर पानी में त्रिफला चूर्ण भिगा दें सुबह मथकर महीन कपड़े से छानकर पी जाएँ। अदरक रस 2चम्मच, प्याज रस 3चम्मच, शहद 2चम्मच, गाय का घी2चम्मच, सबको मिलाकर चाटें स्वप्न दोष तो ठीक होगा ही साथ मर्दाना ताकत भी बढ़ती है।
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- vikas mehta
- एक २२ साल का युवा जिसे देशभक्ति की सोच हासिल है तभी आर्मी ज्वाइन करने की चाह जगी लेकिन फिजिकल में असफल होने के बाद वापस पढ़ रहा है और अब एक नई सोच नेवी ज्वाइन करने की शोक लिखना ,पढना और सोच की गह्रइयो में ख़ुद को झोककर मोती निकाल लाना और इसमें सफल होने की चाह