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Sunday, May 30, 2010

किसानो की स्थिति बदतर हो रही है

भारत में किसान को धरतिपूत्र कहा जाता है किसान की मेहनत से ही देश में अनाज पैदा होता है   .लेकिन आम आदमी यह नही जानता   इस देश में कितने किसान हर साल आत्महत्या कर रहे हैं. पिछले बारह सालों में दो  लाख किसानो ने आत्महत्या की .राष्ट्रीय अपराध लेखा ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार  १९९७ से अब तक १,९९,१३२किसानों आत्महत्या कर चुके है .सन 2008 में 16,196 किसानों ने  . पत्रकार पी साईनाथ  ‘द हिंदू’ में प्रकाशित अपने लेख में  खुलासा करते  है कि 2008 में 5  राज्यों-महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा 10,797 किसान  आत्महत्या कर चुके है  ।२००८   में देश भर से जिन 16,196 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं, उसका 66.7 प्रतिशत हिस्सा इन राज्यों से है . इसमें  महाराष्ट्र सबसे आगे है, महाराष्ट्रा में  3,802 किसान मोत को गला लगा चुके है हैं। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा उन्नीस सो सतानवे  से अब तक ४१,४०१ किसानों ने आत्महत्याए कर चुके है .

यह हालात भारत के उस आदमी के है जिसे धरती पुत्र कहा गया है . किसान जो देश के लिये अन्न पैदा करता  है वह आज आत्महत्या करने को मजबूर  है . आजादी के ६३ साल पश्चात हम आज भी गरीबी , भुखमरी से लड़ रहे है .यह देश की अंदरूनी हकीकत है जो शर्मनाक भी है और दर्दनाक भी .परन्तु इस हालात प़र किसकी नजर है मीडिया की भारत सरकार की . नही किसी की भी नही है क्या मीडिया भारत की जनता को किसानो का दर्द दिखा रहा है . सरकारों के क्या कहने सरकार का ध्यान आम आदमी प़र होता तो स्थिति यह कतई  नही होती .



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Saturday, May 29, 2010

khap panchayt

चंडीगढ़। उद्योगपति और कांग्रेस सांसद नवीन जिंदल ने हरियाणा खाप पंचायतों द्वारा हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन करके सगोत्रीय शादी पर प्रतिबंध लगाने की मांग का समर्थन किया।

10 मई 2010


 
 
13 अप्रैल 2010


इंडो-एशियन न्यूज सर्विस



कुरुक्षेत्र। हरियाणा और आस-पास के राज्यों की खाप पंचायतों की शीर्ष संस्था ने 'ऑनर किलिंग' (कथित सम्मान के लिए की जानेवाली हत्या) के अपराध में पिछले महीने मौत की सजा पाए छह लोगों को अपना समर्थन देने का फैसला किया है।

मनोज-बबली हत्याकांड: 5 हत्यारों को फांसी की सजा

खाप महापंचायत ने मंगलवार को हिंदू विवाह कानून में एक संशोधन करके समान गोत्र में विवाह को प्रतिबंधित करने की भी मांग की। खाप नेताओं ने न्यायालय के निर्णय के विरोध में दिल्ली को उत्तर भारत के महत्वपूर्ण शहरों से जोड़नेवाले राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक एक पर प्रदर्शन करने और चंडीगढ़ तथा अंबाला में सड़क जाम करने का फैसला किया।

 
 
कुरुक्षेत्र। हरियाणा और आस-पास के राज्यों की खाप पंचायतों की शीर्ष संस्था ने 'ऑनर किलिंग' (कथित सम्मान के लिए की जानेवाली हत्या) के अपराध में पिछले महीने मौत की सजा पाए छह लोगों को अपना समर्थन देने का फैसला किया है।




खाप महापंचायत ने मंगलवार को हिंदू विवाह कानून में एक संशोधन करके समान गोत्र में विवाह को प्रतिबंधित करने की भी मांग की। खाप नेताओं ने न्यायालय के निर्णय के विरोध में दिल्ली को उत्तर भारत के महत्वपूर्ण शहरों से जोड़नेवाले राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक एक पर प्रदर्शन करने और चंडीगढ़ तथा अंबाला में सड़क जाम करने का फैसला किया।

chmda ke jute pashuo par atyaachaar

लखनऊ। हिन्दुस्तान ही नहीं पूरी दुनिया में चमड़े के बने जूते, बेल्ट और टोपी की मांग बहुत ज्यादा है, लेकिन इन्हें इस्तेमाल करने वाले यह नहीं जानते कि चमड़ा निकालने के लिये जानवरों की हड्डियों के जोडों को चटकाया जाता है और उन्हें उल्टा लटका कर उनकी गर्दन काट दी जाती है। एक सर्वेक्षण के अनुसार चमड़े के लिये दुनिया भर में हर सेकेंड 70 से अधिक गाय, भैंस, सुअर, भेड़ और अन्य जानवरों को मौत के घाट उतार दिया जाता है।










‘फैशन सप्ताह’ में चमड़े के विकल्पों पर जोर









ज्यादातर चमडा गाय, भैंस, भेड, बकरी आदि की खाल से बनाया जाता है। इसके अलावा घोडा, सुअर, मगरमच्छ, सांप और अन्य जानवरों की खालें भी चमडे के स्त्रोत हैं। एशिया के कुछ हिस्सों में चमडे की खातिर कुत्तों और बिल्लियों को भी मारा जाता है। चमडा और उससे बने सामान खरीदते समय यह नहीं बताया जा सकता कि यह किस जानवर से बना है। चमड़े की खातिर गाय और भैंस के सींग तोड दिये जाते हैं और उन्हें भूखा प्यासा रखा जाता है।



पशुओं पर क्रूरता के खिलाफ काम कर रही अंतर्राष्ट्रीय संस्था पीपुल फार एथिकल ट्रीटमेंट आफ एनिमल (पेटा) ने लोगों से चमडे के बजाय वनस्पतियों से बने जूते, बेल्ट और टोपी का इस्तेमाल करने की अपील की है। वनस्पतियों से बने सामान चमडे की अपेक्षा साठ से सत्तर प्रतिशत तक सस्ते होते हैं।



भारत में पेटा की प्रमुख अनुराधा साहनी ने यूनीवार्ता से कहा कि देश में चमडे को इंडियन कौंसिल आफ एग्रीकल्चर रिसर्च में मांस के सह उद्योग की संज्ञा दी गयी है, जबकि वास्तविकता यह है कि निर्यात के रूप में यह मांस की अपेक्षा अधिक मूल्य पाता है।



उन्होंनें कहा कि चमडे की खरीद परिवहन में पशुओं के प्रति क्रूरता और कसाईखाने में उनके साथ दर्दनाक व्यवहार को खुला समर्थन देती है। डेयरी में जब दुधारू गाय दूध देना बंद कर देती है तो उनकी खाल का इस्तेमाल चमडे के रूप में किया जाता है। उनके बछडों को भी अक्सर जहर दे दिया जाता है या भूखा प्यासा रखा जाता है ताकि उनके चमडे की ऊंची कीमत मिल सके।



सुश्री साहनी ने कहा कि तकरीबन सभी पशु जिनको अंततः बेल्ट या जूते का रूप लेने को मजबूर होना पडता है, उन्हें कसाईखाने में अत्यंत क्रूर व्यवहार झेलना पडता है। उन्हें तंग जगहों में बेरहमी से ठूंस कर रखा जाता है तथा बिना बेहेशी की दवा दिये उनके पूछ और सींग काट दिये जाते हैं।



चमडे के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले कई पशु इतने बीमार और जख्मी होते है कि वह चलने की हालत में नहीं होते और उन्हें घसीटकर कसाईखाने तक ले जाना पडता है। चलाने के लिये कईयों की आंखों में मिर्च और तम्बाकू भी झोंक दिया जाता है। उनकी पूंछ को दर्दनाक तरीके से मोड कर तोडा जाता है।









बेहाल चमड़ा उद्योग









चमडे को टूटने से बचाने के लिये कई तरह के रसायन जानवरों को लगाये जाते हैं। उनमें से कुछ काफी जहरीले होते हैं। ऐसे रसायन कसाईखाने में काम करने वालों को भी नुकसान पहुंचा देते हैं।



उन्होंनें कहा कि बेंगलूर और कोलकाता में नगरपालिका के कसाईखानों में जानवरों को बेरहमी से कत्ल करने की जगह पर ले जाते देखा गया। उनको बिखरे खून और अन्य जानवरों के शरीर से निकाली गयी अंतडियों के ढेर पर पटक दिया गया था। जानवर भय से कांप रहे थे और उनकी आंखें फैल गयी थीं। उनकी आंखों से आंसूओं का झरना बह रहा था। वह लाचार होकर अपने साथियों को मरता देख रहे थे और अपनी बारी का इन्तजार कर रहे थे।

hinduo ne muslim ki lkadki ki shaadi krai

24 मई 2010




इंडो-एशियन न्यूज सर्विस





बागपत। उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के एक गांव के हिंदुओं ने सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल पेश करते हुए चंदा इकट्ठा करके एक गरीब मुस्लिम लड़की की धूमधाम से शादी कराई।



बागपत जिले के सुन्हेड़ा गांव में हिंदुओं ने जाति-धर्म के बंधनों से ऊपर उठकर रविवार शाम को यह शादी करवाई। उन्हें लगता है कि उनके इस कदम से दोनों समुदायों के रिश्तों में और प्रगाढ़ता आएगी।



सुन्हेड़ा गांव की असमां (21) जब केवल छह साल की थी तब उसके पिता अजीज की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी। मां महरुनिसां ने किसी तरह दूसरों के घर काम करके उसका पालन-पोषण किया, लेकिन घर की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह असमां की शादी धूमधाम से करके अपने मरहूम पति की अंतिम इच्छा को पूरी कर पाती।



ग्रामीणों को मरहूम अजीज की अंतिम इच्छा की जानकारी थी। असमां जब शादी के लायक हुई तब उन्होंने आगे बढ़कर उसके निकाह की जिम्मेदारी उठाई। असमां के लिए वर का चुनाव ग्रामीणों ने ही किया।



स्थानीय जयपाल तोमर करते हैं कि असमां के लिए अच्छा वर तलाशने की जिम्मेदारी गांव के वरिष्ठ लोगों पर थी। जयपाल ने कहा, "वैसे तो असमां के लिए कई रिश्ते आए पर हमें लगा कि पास के गांव में कपड़े की दुकान चलाने वाला मुश्ताक ही उसके लिए योग्य है। उसकी मां मेहरूनिसां से सलाह करने के बाद तकरीबन तीन महीने पहले शादी तय कर दी गई।"



आसमां की शादी पूरी तरह से मुस्लिम रीति-रिवाज से हुई। गांव के सरपंच महिपाल सिंह ने आईएएनएस से बातचीत में कहा कि करीब 800 लोगों ने शरीक होकर नव-विवाहित जोड़े को अपना आशीर्वाद दिया। असमां की शादी करने के अलावा ग्रामीणों ने उसे रोजमर्रा की जरूरतों से जुड़े ढेरों उपहार भी दिए।



उन्होंने कहा कि इस तरह की शादी केवल ग्रामीणों के अभूतपूर्व सहयोग से संभव हो सकती थी। शादी में आने वाले खर्च के बारे में पूछे जाने पर सिंह ने कहा कि यह बतलाना ग्रामीणों की भावनाओं को ठेस पहुंचाना होगा, क्योंकि उनके लिए यह पैसे से कहीं ज्यादा भावनाओ से जुड़ा मामला था।



सिंह ने कहा, " मैं कहना चाहता हूं कि ग्रामीणों ने मिलकर इस शादी में खाने-पीने से लेकर साज-सज्जा और संगीत का बेहतरीन इंतजाम किया था। आमतौर पर शहरों में होने वाली शादियों से कमतर व्यवस्था नहीं थी।"
पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में नक्सलियों ने रेलवे की पटरिया उखाड़ दी . जिससे ७६ यात्रियों की मोत हो गयी नक्सली मोत का तांडव हर दुसरे या तीसरे दिन रच रहे है .जनता रो रही है ,बिलख रही है .आये दिन होने वाले हमलो से परेशान है और सर पटक- पटक कर उस दिन को याद कर रही है जब उसने देश की बागडोर युपीए के हाथ में सोपी थी . प्रधानमन्त्री विदेशी दोरो में मस्त रहते है , चिदम्बरम सिमित अधिकार होने की बात कहते है .राहुल दलितों के घर सो रहे है खाना ख़ा रहे है .इन सबके बीच में आम आदमी पिस रहा है अपनी जान गवा रहा है .न ही रेल सुरक्षित है और न ही बसे एयरपोर्ट . भारत के ग्रहमंत्री पाकिस्तान को सलाह देते है 'आतंक प़र लगाम लगाओ ' .परन्तु अपने देश की जो बागडोर उन्होंने अपने हाथ ली है वह उसे नही संभाल पा रहे है .देश का नेत्रित्व कमजोर हाथो में है जो देशहित में फैसला लेने से पहले वोट बैंक को तोलता है . प्रधानमन्त्री , ग्रहमंत्री,या वित् मंत्री ,या सोनिया, राहुल जो वायदे चुनावों में इन्होने किये थे उन वायदों को निभाने में विफल साबित हुए है .फिर भी राहुल गरीबो , दलितों के घर खाना खाकर २०१४ की राजनितिक जमीन तयार करने में जुटे है . यह कैसी सरकार है जो वर्तमान स्थिति को संभालने में विफल है परन्तु सत्ता मोह में आगे की रणनीति बनाने में जुटी है . लोकसभा चुनावों में आडवानी जी ने कमजोर प्रधान मंत्री का मुदा उठाया था किन्तु यहाँ कमजोरी केवल एक व्यक्ति में नही सभी मंत्रियो में है . देश भले ही खंडित हो , नक्सलवाद पनपे इन्हें कोई मतलब नही है ये लोग केवल विकास का नारा देकर अपना फ़र्ज़ पूरा कर रहे है . क्या आतंक और नक्सल के रहते भारत कभी विकसित हो सकता है .जनता से विकास के नाम प़र वोट बटोरने वाली पार्टी देश की सुरक्षा से खिलवाड़ कर रही है .आम आदमी परेशान है वह सोच रहा है यह कैसी सरकार है

Friday, May 28, 2010

अभी हाल ही में हुई विमान दुर्घटना तो आपको याद होगी, जिसमें विमान रनवे से फिसल कर बगल की खाई में गिर गया था और उसमें सवार अधिकतर यात्री मारे गये थे। लेकिन आपको शायद यह याद न हो कि इस देश में कितने किसान हर साल आत्महत्या करते हैं। जी हाँ, पिछले 12 सालों में यह संख्या 2 लाख तक जा पहुँची है। किसानों की इन त्रासद स्थितियों पर पढिये शिरीष खरे का यह चौंकाने वाले आलेख।




राष्ट्रीय अपराध लेखा ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 1997 से अबतक कुल 1,99,132 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। जबकि 2008 में 16,196 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं।





जाने माने पत्रकार पी साईनाथ ने ‘द हिंदू’ में प्रकाशित अपने लेख में भी यह खुलासा किया है कि 2008 में 5 बड़े राज्यों-महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जिन्हें ‘आत्महत्या-क्षेत्र’ कहा जाता है, में सबसे ज्यादा 10,797 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। यानि 2008 में देश भर से जिन 16,196 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं, उसका 66.7 प्रतिशत हिस्सा अकेले ‘आत्महत्या-क्षेत्र’ से है। इसमें भी महाराष्ट्र सबसे आगे है, जहां 3,802 किसानों ने मौत को गले लगाया हैं। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 1997 से अब तक 41,404 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। यह देशभर में हुई कुल किसान आत्महत्याओं की संख्या का 1/5वां से अधिक भाग है।





राष्ट्रीय अपराध लेखा ब्यूरो की यह रिपोर्ट कहती है कि 1997 से 2002 के बीच ‘आत्महत्या-क्षेत्र’ से 55,769 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। जबकि 2003 से 2008 के बीच यह आकड़ा 67,054 तक पहुंच गया। जिसमें किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं में औसतन सलाना 1,900 की बढ़ोतरी दर्ज हुई। सालाना औसत के मद्देनजर 2003 से हर 30 मिनट में एक किसान आत्महत्या करता है। यह रिपोर्ट कहती है कि हालांकि 2007 के मुकाबले आत्महत्याओं में थोड़ी कमी तो आई है, मगर कोई उल्लेखनीय बदलाव दिखाई नहीं देता है।





मद्रास इंस्टीट्यूट आफ डेवलपमेंट स्टडीज से जुड़े रहे जानेमाने अर्थशास्त्री प्रोफेसर के नागराज कहते हैं कि ‘‘अगर 2008 में 70,000 करोड़ रुपए के कर्ज की माफी और खेती के लिए दी जाने वाली सहायता के बाद यह हालात है तो सूखाग्रस्त 2009 के बाद के हालात तो और भी भयावह हो सकते हैं। कुल मिलाकर किसानों की यह समस्या बेहद गंभीर हो चुकी है।’’

अगर आपको 'साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन' का यह प्रयास पसंद आया हो, तो कृपया फॉलोअर बन कर हमारा उत्साह अवश्य बढ़ाएँ।
बी.बी.सी. कहता है...........




ताजमहल...........

एक छुपा हुआ सत्य..........

कभी मत कहो कि.........

यह एक मकबरा है..........



प्रो.पी. एन. ओक. को छोड़ कर किसी ने कभी भी इस कथन को चुनौती नही दी कि........



"ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था"





प्रो.ओक. अपनी पुस्तक "TAJ MAHAL - THE TRUE STORY" द्वारा इस



बात में विश्वास रखते हैं कि,--



सारा विश्व इस धोखे में है कि खूबसूरत इमारत ताजमहल को मुग़ल बादशाह

शाहजहाँ ने बनवाया था.....



ओक कहते हैं कि......



ताजमहल प्रारम्भ से ही बेगम मुमताज का मकबरा न होकर,एक हिंदू प्राचीन शिव

मन्दिर है जिसे तब तेजो महालय कहा जाता था.



अपने अनुसंधान के दौरान ओक ने खोजा कि इस शिव मन्दिर को शाहजहाँ ने जयपुर

के महाराज जयसिंह से अवैध तरीके से छीन लिया था और इस पर अपना कब्ज़ा कर

लिया था,,



=> शाहजहाँ के दरबारी लेखक "मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी "ने अपने

"बादशाहनामा" में मुग़ल शासक बादशाह का सम्पूर्ण वृतांत 1000 से ज़्यादा

पृष्ठों मे लिखा है,,जिसके खंड एक के पृष्ठ 402 और 403 पर इस बात का

उल्लेख है कि, शाहजहाँ की बेगम मुमताज-उल-ज़मानी जिसे मृत्यु के बाद,

बुरहानपुर मध्य प्रदेश में अस्थाई तौर पर दफना दिया गया था और इसके ०६

माह बाद,तारीख़ 15 ज़मदी-उल- अउवल दिन शुक्रवार,को अकबराबाद आगरा लाया

गया फ़िर उसे महाराजा जयसिंह से लिए गए,आगरा में स्थित एक असाधारण रूप से

सुंदर और शानदार भवन (इमारते आलीशान) मे पुनः दफनाया गया,लाहौरी के

अनुसार राजा जयसिंह अपने पुरखों कि इस आली मंजिल से बेहद प्यार करते थे

,पर बादशाह के दबाव मे वह इसे देने के लिए तैयार हो गए थे.



इस बात कि पुष्टि के लिए यहाँ ये बताना अत्यन्त आवश्यक है कि जयपुर के

पूर्व महाराज के गुप्त संग्रह में वे दोनो आदेश अभी तक रक्खे हुए हैं जो

शाहजहाँ द्वारा ताज भवन समर्पित करने के लिए राजा

जयसिंह को दिए गए थे.......



=> यह सभी जानते हैं कि मुस्लिम शासकों के समय प्रायः मृत दरबारियों और

राजघरानों के लोगों को दफनाने के लिए, छीनकर कब्जे में लिए गए मंदिरों और

भवनों का प्रयोग किया जाता था ,



उदाहरनार्थ हुमायूँ, अकबर, एतमाउददौला और सफदर जंग ऐसे ही भवनों मे

दफनाये गए हैं ....



=> प्रो. ओक कि खोज ताजमहल के नाम से प्रारम्भ होती है---------



=> "महल" शब्द, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में

भवनों के लिए प्रयोग नही किया जाता...



यहाँ यह व्याख्या करना कि महल शब्द मुमताज महल से लिया गया है......वह कम

से कम दो प्रकार से तर्कहीन है---------





पहला -----शाहजहाँ कि पत्नी का नाम मुमताज महल कभी नही था,,,बल्कि उसका

नाम मुमताज-उल-ज़मानी था ...





और दूसरा-----किसी भवन का नामकरण किसी महिला के नाम के आधार पर रखने के

लिए केवल अन्तिम आधे भाग (ताज)का ही प्रयोग किया जाए और प्रथम अर्ध भाग

(मुम) को छोड़ दिया जाए,,,यह समझ से परे है...



प्रो.ओक दावा करते हैं कि,ताजमहल नाम तेजो महालय (भगवान शिव का महल) का

बिगड़ा हुआ संस्करण है, साथ ही साथ ओक कहते हैं कि----



मुमताज और शाहजहाँ कि प्रेम कहानी,चापलूस इतिहासकारों की भयंकर भूल और

लापरवाह पुरातत्वविदों की सफ़ाई से स्वयं गढ़ी गई कोरी अफवाह मात्र है

क्योंकि शाहजहाँ के समय का कम से कम एक शासकीय अभिलेख इस प्रेम कहानी की

पुष्टि नही करता है.....



इसके अतिरिक्त बहुत से प्रमाण ओक के कथन का प्रत्यक्षतः समर्थन कर रहे हैं......

तेजो महालय (ताजमहल) मुग़ल बादशाह के युग से पहले बना था और यह भगवान्

शिव को समर्पित था तथा आगरा के राजपूतों द्वारा पूजा जाता था-----



==> न्यूयार्क के पुरातत्वविद प्रो. मर्विन मिलर ने ताज के यमुना की तरफ़

के दरवाजे की लकड़ी की कार्बन डेटिंग के आधार पर 1985 में यह सिद्ध किया

कि यह दरवाजा सन् 1359 के आसपास अर्थात् शाहजहाँ के काल से लगभग 300 वर्ष

पुराना है...



==> मुमताज कि मृत्यु जिस वर्ष (1631) में हुई थी उसी वर्ष के अंग्रेज

भ्रमण कर्ता पीटर मुंडी का लेख भी इसका समर्थन करता है कि ताजमहल मुग़ल

बादशाह के पहले का एक अति महत्वपूर्ण भवन था......



==>यूरोपियन यात्री जॉन अल्बर्ट मैनडेल्स्लो ने सन् 1638 (मुमताज कि

मृत्यु के 07 साल बाद) में आगरा भ्रमण किया और इस शहर के सम्पूर्ण जीवन

वृत्तांत का वर्णन किया,,परन्तु उसने ताज के बनने का कोई भी सन्दर्भ नही

प्रस्तुत किया,जबकि भ्रांतियों मे
मुमताज और शाहजहाँ कि प्रेम कहानी,चापलूस इतिहासकारों की भयंकर भूल और


लापरवाह पुरातत्वविदों की सफ़ाई से स्वयं गढ़ी गई कोरी अफवाह मात्र है

क्योंकि शाहजहाँ के समय का कम से कम एक शासकीय अभिलेख इस प्रेम कहानी की

पुष्टि नही करता है.....



इसके अतिरिक्त बहुत से प्रमाण ओक के कथन का प्रत्यक्षतः समर्थन कर रहे हैं......

तेजो महालय (ताजमहल) मुग़ल बादशाह के युग से पहले बना था और यह भगवान्

शिव को समर्पित था तथा आगरा के राजपूतों द्वारा पूजा जाता था-----



==> न्यूयार्क के पुरातत्वविद प्रो. मर्विन मिलर ने ताज के यमुना की तरफ़

के दरवाजे की लकड़ी की कार्बन डेटिंग के आधार पर 1985 में यह सिद्ध किया

कि यह दरवाजा सन् 1359 के आसपास अर्थात् शाहजहाँ के काल से लगभग 300 वर्ष

पुराना है...



==> मुमताज कि मृत्यु जिस वर्ष (1631) में हुई थी उसी वर्ष के अंग्रेज

भ्रमण कर्ता पीटर मुंडी का लेख भी इसका समर्थन करता है कि ताजमहल मुग़ल

बादशाह के पहले का एक अति महत्वपूर्ण भवन था......



==>यूरोपियन यात्री जॉन अल्बर्ट मैनडेल्स्लो ने सन् 1638 (मुमताज कि

मृत्यु के 07 साल बाद) में आगरा भ्रमण किया और इस शहर के सम्पूर्ण जीवन

वृत्तांत का वर्णन किया,,परन्तु उसने ताज के बनने का कोई भी सन्दर्भ नही

प्रस्तुत किया,जबकि भ्रांतियों मे यह कहा जाता है कि ताज का निर्माण

कार्य 1631 से 1651 तक जोर शोर से चल रहा था......



==> फ्रांसीसी यात्री फविक्स बर्निअर एम.डी. जो औरंगजेब द्वारा गद्दीनशीन

होने के समय भारत आया था और लगभग दस साल यहाँ रहा,के लिखित विवरण से पता

चलता है कि,औरंगजेब के शासन के समय यह झूठ फैलाया जाना शुरू किया गया कि

ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था.......



प्रो. ओक. बहुत सी आकृतियों और शिल्प सम्बन्धी असंगताओं को इंगित करते

हैं जो इस विश्वास का समर्थन करते हैं कि,ताजमहल विशाल मकबरा न होकर

विशेषतः हिंदू शिव मन्दिर है.......



आज भी ताजमहल के बहुत से कमरे शाहजहाँ के काल से बंद पड़े हैं,जो आम जनता

की पहुँच से परे हैं



प्रो. ओक., जोर देकर कहते हैं कि हिंदू मंदिरों में ही पूजा एवं धार्मिक

संस्कारों के लिए भगवान् शिव की मूर्ति,त्रिशूल,कलश और ॐ आदि वस्तुएं

प्रयोग की जाती हैं.......



==> ताज महल के सम्बन्ध में यह आम किवदंत्ती प्रचलित है कि ताजमहल के

अन्दर मुमताज की कब्र पर सदैव बूँद बूँद कर पानी टपकता रहता है,, यदि यह

सत्य है तो पूरे विश्व मे किसी किभी कब्र पर बूँद बूँद कर पानी नही

टपकाया जाता,जबकि

प्रत्येक हिंदू शिव मन्दिर में ही शिवलिंग पर बूँद बूँद कर पानी टपकाने की

व्यवस्था की जाती है,फ़िर ताजमहल (मकबरे) में बूँद बूँद कर पानी टपकाने का क्या

मतलब....????



==> राजनीतिक भर्त्सना के डर से इंदिरा सरकार ने ओक की सभी पुस्तकें स्टोर्स से

वापस ले लीं थीं और इन पुस्तकों के प्रथम संस्करण को छापने वाले संपादकों को

भयंकर परिणाम भुगत लेने की धमकियां भी दी गईं थीं....



==> प्रो. पी. एन. ओक के अनुसंधान को ग़लत या सिद्ध करने का केवल एक ही रास्ता है

कि वर्तमान केन्द्र सरकार बंद कमरों को संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षण में

खुलवाए, और अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों को छानबीन करने दे ....



ज़रा सोचिये....!!!!!!



कि यदि ओक का अनुसंधान पूर्णतयः सत्य है तो किसी देशी राजा के बनवाए गए

संगमरमरी आकर्षण वाले खूबसूरत, शानदार एवं विश्व के महान आश्चर्यों में से

एक भवन, "तेजो महालय" को बनवाने का श्रेय बाहर से आए मुग़ल बादशाह शाहजहाँ

को क्यों......?????



तथा......



इससे जुड़ी तमाम यादों का सम्बन्ध मुमताज-उल-ज़मानी से क्यों........???????



""""आंसू टपक रहे हैं, हवेली के बाम से.......



रूहें लिपट के रोटी हैं हर खासों आम से.......



अपनों ने बुना था हमें, कुदरत के काम से......



फ़िर भी यहाँ जिंदा हैं हम गैरों के नाम

Thursday, May 27, 2010

भारत में स्वाधीनता के बाद भी अंग्रेजी कानून और मानसिकता जारी है। इसीलिए इस्लामी आतंकवाद के सामने हिन्दू आतंकवाद का शिगूफा कुछ कांग्रेसी नेता छेड़ रहे हैं। इसकी आड़ में वे उन हिन्दू संगठनों को लपेटने के चक्कर में हैं, जिनकी देशभक्ति तथा सेवा भावना पर विरोधी भी संदेह नहीं करते। किसी समय इस झूठ मंडली की नेता सुभद्रा जोशी हुआ करती थीं; पर अब लगता है इसका भार बेरोजगार दिग्विजय सिंह ने उठा लिया है।




ये लोग हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबेल्स के चेले हैं। उसके दो सिद्धांत थे। एक – किसी भी झूठ को सौ बार बोलने से वह सच हो जाता है। दो – यदि झूठ ही बोलना है, तो सौ गुना बड़ा बोलो। इससे सबको लगेगा कि बात भले ही पूरी सच न हो; पर कुछ है जरूर। इसी सिद्धांत पर दिग्विजय सिंह अजमेर, हैदराबाद, मालेगांव या गोवा आदि के बम विस्फोटों के तार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल आदि से जोड़ रहे हैं। इसके लिए उन्होंने तथा उनकी सेक्यूलर मंडली ने ‘हिन्दू आतंकवाद’ नामक शब्द खोजा है। उन्हें लगता है कि दुनिया भर में फैल रहे इस्लामी आतंकवाद के सामने इसे खड़ाकर भारत में मुसलमान वोटों की फसल काटी जा सकती है। और इस समय कांग्रेस का सबसे प्रमुख एजेंडा यही है। सच्चर, रंगनाथ मिश्र, सगीर अहमद रिपोर्टों की कवायद के बाद यह उनका अगला कदम है।



सच तो यह है कि हिन्दू कभी आतंकवादी हो ही नहीं सकता। आतंकवाद का हिन्दुओं के संस्कार और व्यवहार से कोई तालमेल नहीं है। वैदिक, रामायण या महाभारत काल में ऐसे लोगों को असुर या राक्षस कहते थे। वे निरपराध लोगों को मारते थे, उन्हें गुलाम बनाते थे। इसे ही साहित्य की भाषा में कह दिया गया कि वे लोगों को खा लेते थे; पर वर्तमान आतंकवादी उनसे भी बढ़कर हैं। ये विधर्मियों को ही नहीं, स्वधर्मियों और स्वयं को भी मार देते हैं। आत्मघाती हमले लिट्टे और प्रभाकरण की देन हैं। प्रभाकरण ईसाई था, यह सबको पता है। इन दिनों हो रहे अधिकांश हमले आत्मघाती हैं, जिनमें हर धर्म, वर्ग और आयु के लोग मर रहे हैं। स्पष्ट है कि यह आतंक उस राक्षसी आतंक से भिन्न है।



वस्तुतः हिन्दू चिंतन में आतंक नाम की चीज ही नहीं है। वहां तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की भावना और भोजन से पूर्व गाय, कुत्ते और कौए के लिए भी अंश निकालने का प्रावधान है। ‘अतिथि देवो भव’ का सूत्र को तो शासन ने भी अपना लिया है। अपनी रोटी खाना प्रकृति, दूसरे की रोटी खाना विकृति और अपनी रोटी दूसरे को खिला देना संस्कृति है। यह संस्कृति हर हिन्दू के स्वभाव में है। ऐसे लोग आतंकवादी नहीं हो सकते; पर मुसलमान वोटों के लिए एक-दो दुर्घटनाओं के बाद कुछ सिरफिरों को पकड़कर उसे हिन्दू आतंकवाद नाम दिया जा रहा है। यह ब्रिटिश सरकार की ‘इम्पीरियल पुलिस’ जैसा व्यवहार है, जिसमें कहीं भी झगड़ा या दंगा होने पर दोनों ओर के लोगों को पकड़ लिया जाता था।



दिग्विजय सिंह संघ या विश्व हिन्दू परिषद की कार्यप्रणाली को न समझते हों, यह असभंव है। वे लश्कर, सिमी या हजारों नामों से काम करने वाले इन आतंकी गिरोहों को न जानते हों, यह भी असंभव है; पर आखों पर जब काला चश्मा लगा हो, तो फिर सब काला दिखेगा ही।



संघ को समझने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं होती। देश भर में हर दिन सुबह-शाम संघ की लगभग 50,000 शाखाएं सार्वजनिक स्थानों पर लगती हैं। इनमें से किसी में भी जाकर या उसे देखकर संघ को समझ सकते हैं। शाखा में प्रारम्भ के 40 मिनट शारीरिक कार्यक्रम होते हैं। बुजुर्ग लोग आसन करते हैं, तो नवयुवक और बालक खेल व व्यायाम। इसके बाद वे कोई देशभक्ति पूर्ण गीत बोलते हैं। किसी महामानव के जीवन का कोई प्रसंग स्मरण करते हैं और फिर भगवा ध्वज के सामने पंक्तियों में खड़े होकर भारत माता की वंदना के साथ एक घंटे की शाखा सम्पन्न हो जाती है।



मई-जून मास में देश भर में संघ के एक सप्ताह से 30 दिन तक के प्रशिक्षण वर्ग होते हैं। प्रत्येक में 100 से लेकर 1,000 तक शिक्षार्थी भाग लेते हैं। इन्हें प्राथमिक शिक्षा वर्ग तथा संघ शिक्षा वर्ग कहते हैं। इनमें औसत 50,000 युवक प्रतिवर्ष सहभागी होते हैं। इनके समापन कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में जनता तथा पत्रकार आते हैं। प्रतिदिन समाज के प्रबुद्ध एवं प्रभावी लोगों को बुलाकर संघ की कार्यपद्धति को निकट से देखने का अवसर दिया जाता है। आज तक किसी शिक्षार्थी, शिक्षक या नागरिक ने नहीं कहा कि उसे इन शिविरों में हिंसक गतिविधि दिखाई दी है।



एक मजेदार बात यह भी है कि संघ पर आतंकवादी होने का आरोप लगाने वाले लोग पहले संघ वालों की लाठी को देखकर हंसते थे। वे कहते थे कि इससे ए.के.47 का सामना कैसे होगा; पर अब उन्हें वही लाठी खतरनाक लग रही है।



संघ के स्वयंसेवक देश में हजारों संगठन तथा संस्थाएं चलाते हैं। इनके प्रशिक्षण वर्ग भी वर्ष भर चलते रहते हैं। इनमें भी लाखों लोग भाग ले चुके हैं। विश्व हिन्दू परिषद वाले सत्संग और सेवा कार्यों का प्रशिक्षण देते हैं। बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी वाले नियुद्ध (जूडो, कराटे) तथा एयर गन से निशानेबाजी भी सिखाते हैं। इससे मन में साहस का संचार होकर आत्मविश्वास बढ़ता है। इन शिविरों के समापन कार्यक्रम भी सार्वजनिक होते हैं। संघ और संघ प्रेरित संगठनों का व्यापक साहित्य प्रायः हर बड़े नगर के कार्यालय पर उपलब्ध है। अब तक हजारों पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं तथा करोड़ों पुस्तकें बिकी होंगी। किसी पाठक ने यह नहीं कहा कि उसे इस पुस्तक में से हिंसा की गंध आती है।



संघ प्रेरित संस्थाओं की अर्थ व्यवस्था भी खुली होती है। वे समाज से पैसा लेते हैं तथा प्रतिवर्ष उसका अंकेक्षण किया जाता है। सच तो यह है कि जिस व्यक्ति, संस्था या संगठन का व्यापक उद्देश्य हो, जिसे हर जाति, वर्ग, अवस्था और आर्थिक स्थिति वाले, नगर और ग्राम के लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ना हो, वह हिंसक हो ही नहीं सकता। हिंसावादी होने के लिए गुप्तता अनिवार्य है और संघ का सारा काम खुला, सार्वजनिक और संविधान की मर्यादा में होता है। संघ पर 1947 के बाद तीन बार प्रतिबंध लग चुका है। उस समय कार्यालय पुलिस के कब्जे में थे। तब भी उन्हें वहां से कोई आपत्तिजनक सामग्री नहीं मिली।



दूसरी ओर आतंकी गिरोह गुप्त रूप से काम करते हैं। वे इस्लामी हों या ईसाई, नक्सली हों या माओवादी; सब भूमिगत रहकर काम करते हैं। उनके पर्चे किसी बम विस्फोट या नरसंहार के बाद ही मिलते हैं। उनके प्रशिक्षण शिविर पुलिस, प्रशासन या जनता की नजरों से दूर घने जंगलों में होते हैं। ये गिरोह जनता, व्यापारी तथा सरकारी अधिकारियों से जबरन धन वसूली करते हैं। न देने वाले की हत्या इनके बायें हाथ का खेल है। ऐसे सब गिरोहों को बड़ी मात्रा में विदेशों से भी धन तथा हथियार मिलते हैं।



पिछले दिनों अजमेर, मालेगांव, गोवा या हैदराबाद जैसी कुछ घटनाएं प्रकाश में आयी हैं। यद्यपि अभी इनकी जांच चल रही है और सत्य कब तक सामने आयेगा, कहना कठिन है। इनके साथ ‘अभिनव भारत’ या ‘सनातन’ जैसी संस्थाओं का नाम आ रहा है। इनका संघ या विश्व हिन्दू परिषद से कोई संबंध नहीं है। यदि कुछ लोग इन घटनाओं में पकड़ में आये हैं, जो संघ के कार्यकर्ता रहे हैं, उनसे पूछताछ में ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह निन्दनीय कार्य उन्होंने अपनी इच्छा से किया होगा। इसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं, संघ नहीं। क्योंकि संघ कभी किसी हिंसक कार्य का समर्थन नहीं करता।



संघ का जन्म हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए हुआ है। और हिंसा से विघटन पैदा होता है, संगठन नहीं। संघ मुस्लिम और ईसाई तुष्टीकरण का विरोधी है। वह उस मनोवृति का भी विरोधी है, जिसने देश को बंाटा और अब अगले बंटवारे के षड्यन्त्र रच रहे हैं। इसके बाद भी संघ का हिंसा में विश्वास नहीं है। वह मुसलमान तथा ईसाइयों में से भी अच्छे लोगों को खोज रहा है। संघ किसी को अछूत नहीं मानता। उसे सबके बीच काम करना है और सबको जोड़ना है। ऐसे में वह किसी वर्ग, मजहब या पंथ के सब लोगों के प्रति विद्वेष रखकर नहीं चल सकता।



इसलिए हिन्दू आतंकवाद या उससे संघ परिवार के संगठनों को जोड़ना केवल और केवल एक षड्यन्त्र है। यह खिसियानी बिल्ली के खंभा नोचने का प्रयास मात्र है। दिग्विजय सिंह हों या उनकी महारानी, वे आज तक किसी इस्लामी आतंकवादी को फांसी नहीं चढ़ा सके हैं। अब हिन्दू आतंकवाद का नाम लेकर वे इस तराजू को बराबर करना चाहते हैं। उनका यह षड्यन्त्र हर बार की तरह इस बार भी विफल होगा।



इतिहास इस बात का साक्षी है कि संघ हर चोट के बाद पहले से अधिक सबल हुआ है। 1948, 1975 और 1992 का उदाहरण बहुत पुराना नहीं है। यदि कांग्रेस फिर संघ वालों को आजमाना चाहे, तो उसका स्वागत है।



हमने चिराग रख दिया तूफां के सामने



पीछे हटेगा इश्क किसी इम्तहां से क्या ?
भारत में स्वाधीनता के बाद भी अंग्रेजी कानून और मानसिकता जारी है। इसीलिए इस्लामी आतंकवाद के सामने हिन्दू आतंकवाद का शिगूफा कुछ कांग्रेसी नेता छेड़ रहे हैं। इसकी आड़ में वे उन हिन्दू संगठनों को लपेटने के चक्कर में हैं, जिनकी देशभक्ति तथा सेवा भावना पर विरोधी भी संदेह नहीं करते। किसी समय इस झूठ मंडली की नेता सुभद्रा जोशी हुआ करती थीं; पर अब लगता है इसका भार बेरोजगार दिग्विजय सिंह ने उठा लिया है।




ये लोग हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबेल्स के चेले हैं। उसके दो सिद्धांत थे। एक – किसी भी झूठ को सौ बार बोलने से वह सच हो जाता है। दो – यदि झूठ ही बोलना है, तो सौ गुना बड़ा बोलो। इससे सबको लगेगा कि बात भले ही पूरी सच न हो; पर कुछ है जरूर। इसी सिद्धांत पर दिग्विजय सिंह अजमेर, हैदराबाद, मालेगांव या गोवा आदि के बम विस्फोटों के तार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल आदि से जोड़ रहे हैं। इसके लिए उन्होंने तथा उनकी सेक्यूलर मंडली ने ‘हिन्दू आतंकवाद’ नामक शब्द खोजा है। उन्हें लगता है कि दुनिया भर में फैल रहे इस्लामी आतंकवाद के सामने इसे खड़ाकर भारत में मुसलमान वोटों की फसल काटी जा सकती है। और इस समय कांग्रेस का सबसे प्रमुख एजेंडा यही है। सच्चर, रंगनाथ मिश्र, सगीर अहमद रिपोर्टों की कवायद के बाद यह उनका अगला कदम है।



सच तो यह है कि हिन्दू कभी आतंकवादी हो ही नहीं सकता। आतंकवाद का हिन्दुओं के संस्कार और व्यवहार से कोई तालमेल नहीं है। वैदिक, रामायण या महाभारत काल में ऐसे लोगों को असुर या राक्षस कहते थे। वे निरपराध लोगों को मारते थे, उन्हें गुलाम बनाते थे। इसे ही साहित्य की भाषा में कह दिया गया कि वे लोगों को खा लेते थे; पर वर्तमान आतंकवादी उनसे भी बढ़कर हैं। ये विधर्मियों को ही नहीं, स्वधर्मियों और स्वयं को भी मार देते हैं। आत्मघाती हमले लिट्टे और प्रभाकरण की देन हैं। प्रभाकरण ईसाई था, यह सबको पता है। इन दिनों हो रहे अधिकांश हमले आत्मघाती हैं, जिनमें हर धर्म, वर्ग और आयु के लोग मर रहे हैं। स्पष्ट है कि यह आतंक उस राक्षसी आतंक से भिन्न है।



वस्तुतः हिन्दू चिंतन में आतंक नाम की चीज ही नहीं है। वहां तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की भावना और भोजन से पूर्व गाय, कुत्ते और कौए के लिए भी अंश निकालने का प्रावधान है। ‘अतिथि देवो भव’ का सूत्र को तो शासन ने भी अपना लिया है। अपनी रोटी खाना प्रकृति, दूसरे की रोटी खाना विकृति और अपनी रोटी दूसरे को खिला देना संस्कृति है। यह संस्कृति हर हिन्दू के स्वभाव में है। ऐसे लोग आतंकवादी नहीं हो सकते; पर मुसलमान वोटों के लिए एक-दो दुर्घटनाओं के बाद कुछ सिरफिरों को पकड़कर उसे हिन्दू आतंकवाद नाम दिया जा रहा है। यह ब्रिटिश सरकार की ‘इम्पीरियल पुलिस’ जैसा व्यवहार है, जिसमें कहीं भी झगड़ा या दंगा होने पर दोनों ओर के लोगों को पकड़ लिया जाता था।



दिग्विजय सिंह संघ या विश्व हिन्दू परिषद की कार्यप्रणाली को न समझते हों, यह असभंव है। वे लश्कर, सिमी या हजारों नामों से काम करने वाले इन आतंकी गिरोहों को न जानते हों, यह भी असंभव है; पर आखों पर जब काला चश्मा लगा हो, तो फिर सब काला दिखेगा ही।



संघ को समझने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं होती। देश भर में हर दिन सुबह-शाम संघ की लगभग 50,000 शाखाएं सार्वजनिक स्थानों पर लगती हैं। इनमें से किसी में भी जाकर या उसे देखकर संघ को समझ सकते हैं। शाखा में प्रारम्भ के 40 मिनट शारीरिक कार्यक्रम होते हैं। बुजुर्ग लोग आसन करते हैं, तो नवयुवक और बालक खेल व व्यायाम। इसके बाद वे कोई देशभक्ति पूर्ण गीत बोलते हैं। किसी महामानव के जीवन का कोई प्रसंग स्मरण करते हैं और फिर भगवा ध्वज के सामने पंक्तियों में खड़े होकर भारत माता की वंदना के साथ एक घंटे की शाखा सम्पन्न हो जाती है।



मई-जून मास में देश भर में संघ के एक सप्ताह से 30 दिन तक के प्रशिक्षण वर्ग होते हैं। प्रत्येक में 100 से लेकर 1,000 तक शिक्षार्थी भाग लेते हैं। इन्हें प्राथमिक शिक्षा वर्ग तथा संघ शिक्षा वर्ग कहते हैं। इनमें औसत 50,000 युवक प्रतिवर्ष सहभागी होते हैं। इनके समापन कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में जनता तथा पत्रकार आते हैं। प्रतिदिन समाज के प्रबुद्ध एवं प्रभावी लोगों को बुलाकर संघ की कार्यपद्धति को निकट से देखने का अवसर दिया जाता है। आज तक किसी शिक्षार्थी, शिक्षक या नागरिक ने नहीं कहा कि उसे इन शिविरों में हिंसक गतिविधि दिखाई दी है।



एक मजेदार बात यह भी है कि संघ पर आतंकवादी होने का आरोप लगाने वाले लोग पहले संघ वालों की लाठी को देखकर हंसते थे। वे कहते थे कि इससे ए.के.47 का सामना कैसे होगा; पर अब उन्हें वही लाठी खतरनाक लग रही है।



संघ के स्वयंसेवक देश में हजारों संगठन तथा संस्थाएं चलाते हैं। इनके प्रशिक्षण वर्ग भी वर्ष भर चलते रहते हैं। इनमें भी लाखों लोग भाग ले चुके हैं। विश्व हिन्दू परिषद वाले सत्संग और सेवा कार्यों का प्रशिक्षण देते हैं। बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी वाले नियुद्ध (जूडो, कराटे) तथा एयर गन से निशानेबाजी भी सिखाते हैं। इससे मन में साहस का संचार होकर आत्मविश्वास बढ़ता है। इन शिविरों के समापन कार्यक्रम भी सार्वजनिक होते हैं। संघ और संघ प्रेरित संगठनों का व्यापक साहित्य प्रायः हर बड़े नगर के कार्यालय पर उपलब्ध है। अब तक हजारों पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं तथा करोड़ों पुस्तकें बिकी होंगी। किसी पाठक ने यह नहीं कहा कि उसे इस पुस्तक में से हिंसा की गंध आती है।



संघ प्रेरित संस्थाओं की अर्थ व्यवस्था भी खुली होती है। वे समाज से पैसा लेते हैं तथा प्रतिवर्ष उसका अंकेक्षण किया जाता है। सच तो यह है कि जिस व्यक्ति, संस्था या संगठन का व्यापक उद्देश्य हो, जिसे हर जाति, वर्ग, अवस्था और आर्थिक स्थिति वाले, नगर और ग्राम के लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ना हो, वह हिंसक हो ही नहीं सकता। हिंसावादी होने के लिए गुप्तता अनिवार्य है और संघ का सारा काम खुला, सार्वजनिक और संविधान की मर्यादा में होता है। संघ पर 1947 के बाद तीन बार प्रतिबंध लग चुका है। उस समय कार्यालय पुलिस के कब्जे में थे। तब भी उन्हें वहां से कोई आपत्तिजनक सामग्री नहीं मिली।



दूसरी ओर आतंकी गिरोह गुप्त रूप से काम करते हैं। वे इस्लामी हों या ईसाई, नक्सली हों या माओवादी; सब भूमिगत रहकर काम करते हैं। उनके पर्चे किसी बम विस्फोट या नरसंहार के बाद ही मिलते हैं। उनके प्रशिक्षण शिविर पुलिस, प्रशासन या जनता की नजरों से दूर घने जंगलों में होते हैं। ये गिरोह जनता, व्यापारी तथा सरकारी अधिकारियों से जबरन धन वसूली करते हैं। न देने वाले की हत्या इनके बायें हाथ का खेल है। ऐसे सब गिरोहों को बड़ी मात्रा में विदेशों से भी धन तथा हथियार मिलते हैं।



पिछले दिनों अजमेर, मालेगांव, गोवा या हैदराबाद जैसी कुछ घटनाएं प्रकाश में आयी हैं। यद्यपि अभी इनकी जांच चल रही है और सत्य कब तक सामने आयेगा, कहना कठिन है। इनके साथ ‘अभिनव भारत’ या ‘सनातन’ जैसी संस्थाओं का नाम आ रहा है। इनका संघ या विश्व हिन्दू परिषद से कोई संबंध नहीं है। यदि कुछ लोग इन घटनाओं में पकड़ में आये हैं, जो संघ के कार्यकर्ता रहे हैं, उनसे पूछताछ में ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह निन्दनीय कार्य उन्होंने अपनी इच्छा से किया होगा। इसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं, संघ नहीं। क्योंकि संघ कभी किसी हिंसक कार्य का समर्थन नहीं करता।



संघ का जन्म हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए हुआ है। और हिंसा से विघटन पैदा होता है, संगठन नहीं। संघ मुस्लिम और ईसाई तुष्टीकरण का विरोधी है। वह उस मनोवृति का भी विरोधी है, जिसने देश को बंाटा और अब अगले बंटवारे के षड्यन्त्र रच रहे हैं। इसके बाद भी संघ का हिंसा में विश्वास नहीं है। वह मुसलमान तथा ईसाइयों में से भी अच्छे लोगों को खोज रहा है। संघ किसी को अछूत नहीं मानता। उसे सबके बीच काम करना है और सबको जोड़ना है। ऐसे में वह किसी वर्ग, मजहब या पंथ के सब लोगों के प्रति विद्वेष रखकर नहीं चल सकता।



इसलिए हिन्दू आतंकवाद या उससे संघ परिवार के संगठनों को जोड़ना केवल और केवल एक षड्यन्त्र है। यह खिसियानी बिल्ली के खंभा नोचने का प्रयास मात्र है। दिग्विजय सिंह हों या उनकी महारानी, वे आज तक किसी इस्लामी आतंकवादी को फांसी नहीं चढ़ा सके हैं। अब हिन्दू आतंकवाद का नाम लेकर वे इस तराजू को बराबर करना चाहते हैं। उनका यह षड्यन्त्र हर बार की तरह इस बार भी विफल होगा।



इतिहास इस बात का साक्षी है कि संघ हर चोट के बाद पहले से अधिक सबल हुआ है। 1948, 1975 और 1992 का उदाहरण बहुत पुराना नहीं है। यदि कांग्रेस फिर संघ वालों को आजमाना चाहे, तो उसका स्वागत है।



हमने चिराग रख दिया तूफां के सामने



पीछे हटेगा इश्क किसी इम्तहां से क्या ?
भारत में स्वाधीनता के बाद भी अंग्रेजी कानून और मानसिकता जारी है। इसीलिए इस्लामी आतंकवाद के सामने हिन्दू आतंकवाद का शिगूफा कुछ कांग्रेसी नेता छेड़ रहे हैं। इसकी आड़ में वे उन हिन्दू संगठनों को लपेटने के चक्कर में हैं, जिनकी देशभक्ति तथा सेवा भावना पर विरोधी भी संदेह नहीं करते। किसी समय इस झूठ मंडली की नेता सुभद्रा जोशी हुआ करती थीं; पर अब लगता है इसका भार बेरोजगार दिग्विजय सिंह ने उठा लिया है।




ये लोग हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबेल्स के चेले हैं। उसके दो सिद्धांत थे। एक – किसी भी झूठ को सौ बार बोलने से वह सच हो जाता है। दो – यदि झूठ ही बोलना है, तो सौ गुना बड़ा बोलो। इससे सबको लगेगा कि बात भले ही पूरी सच न हो; पर कुछ है जरूर। इसी सिद्धांत पर दिग्विजय सिंह अजमेर, हैदराबाद, मालेगांव या गोवा आदि के बम विस्फोटों के तार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल आदि से जोड़ रहे हैं। इसके लिए उन्होंने तथा उनकी सेक्यूलर मंडली ने ‘हिन्दू आतंकवाद’ नामक शब्द खोजा है। उन्हें लगता है कि दुनिया भर में फैल रहे इस्लामी आतंकवाद के सामने इसे खड़ाकर भारत में मुसलमान वोटों की फसल काटी जा सकती है। और इस समय कांग्रेस का सबसे प्रमुख एजेंडा यही है। सच्चर, रंगनाथ मिश्र, सगीर अहमद रिपोर्टों की कवायद के बाद यह उनका अगला कदम है।



सच तो यह है कि हिन्दू कभी आतंकवादी हो ही नहीं सकता। आतंकवाद का हिन्दुओं के संस्कार और व्यवहार से कोई तालमेल नहीं है। वैदिक, रामायण या महाभारत काल में ऐसे लोगों को असुर या राक्षस कहते थे। वे निरपराध लोगों को मारते थे, उन्हें गुलाम बनाते थे। इसे ही साहित्य की भाषा में कह दिया गया कि वे लोगों को खा लेते थे; पर वर्तमान आतंकवादी उनसे भी बढ़कर हैं। ये विधर्मियों को ही नहीं, स्वधर्मियों और स्वयं को भी मार देते हैं। आत्मघाती हमले लिट्टे और प्रभाकरण की देन हैं। प्रभाकरण ईसाई था, यह सबको पता है। इन दिनों हो रहे अधिकांश हमले आत्मघाती हैं, जिनमें हर धर्म, वर्ग और आयु के लोग मर रहे हैं। स्पष्ट है कि यह आतंक उस राक्षसी आतंक से भिन्न है।



वस्तुतः हिन्दू चिंतन में आतंक नाम की चीज ही नहीं है। वहां तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की भावना और भोजन से पूर्व गाय, कुत्ते और कौए के लिए भी अंश निकालने का प्रावधान है। ‘अतिथि देवो भव’ का सूत्र को तो शासन ने भी अपना लिया है। अपनी रोटी खाना प्रकृति, दूसरे की रोटी खाना विकृति और अपनी रोटी दूसरे को खिला देना संस्कृति है। यह संस्कृति हर हिन्दू के स्वभाव में है। ऐसे लोग आतंकवादी नहीं हो सकते; पर मुसलमान वोटों के लिए एक-दो दुर्घटनाओं के बाद कुछ सिरफिरों को पकड़कर उसे हिन्दू आतंकवाद नाम दिया जा रहा है। यह ब्रिटिश सरकार की ‘इम्पीरियल पुलिस’ जैसा व्यवहार है, जिसमें कहीं भी झगड़ा या दंगा होने पर दोनों ओर के लोगों को पकड़ लिया जाता था।



दिग्विजय सिंह संघ या विश्व हिन्दू परिषद की कार्यप्रणाली को न समझते हों, यह असभंव है। वे लश्कर, सिमी या हजारों नामों से काम करने वाले इन आतंकी गिरोहों को न जानते हों, यह भी असंभव है; पर आखों पर जब काला चश्मा लगा हो, तो फिर सब काला दिखेगा ही।



संघ को समझने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं होती। देश भर में हर दिन सुबह-शाम संघ की लगभग 50,000 शाखाएं सार्वजनिक स्थानों पर लगती हैं। इनमें से किसी में भी जाकर या उसे देखकर संघ को समझ सकते हैं। शाखा में प्रारम्भ के 40 मिनट शारीरिक कार्यक्रम होते हैं। बुजुर्ग लोग आसन करते हैं, तो नवयुवक और बालक खेल व व्यायाम। इसके बाद वे कोई देशभक्ति पूर्ण गीत बोलते हैं। किसी महामानव के जीवन का कोई प्रसंग स्मरण करते हैं और फिर भगवा ध्वज के सामने पंक्तियों में खड़े होकर भारत माता की वंदना के साथ एक घंटे की शाखा सम्पन्न हो जाती है।



मई-जून मास में देश भर में संघ के एक सप्ताह से 30 दिन तक के प्रशिक्षण वर्ग होते हैं। प्रत्येक में 100 से लेकर 1,000 तक शिक्षार्थी भाग लेते हैं। इन्हें प्राथमिक शिक्षा वर्ग तथा संघ शिक्षा वर्ग कहते हैं। इनमें औसत 50,000 युवक प्रतिवर्ष सहभागी होते हैं। इनके समापन कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में जनता तथा पत्रकार आते हैं। प्रतिदिन समाज के प्रबुद्ध एवं प्रभावी लोगों को बुलाकर संघ की कार्यपद्धति को निकट से देखने का अवसर दिया जाता है। आज तक किसी शिक्षार्थी, शिक्षक या नागरिक ने नहीं कहा कि उसे इन शिविरों में हिंसक गतिविधि दिखाई दी है।



एक मजेदार बात यह भी है कि संघ पर आतंकवादी होने का आरोप लगाने वाले लोग पहले संघ वालों की लाठी को देखकर हंसते थे। वे कहते थे कि इससे ए.के.47 का सामना कैसे होगा; पर अब उन्हें वही लाठी खतरनाक लग रही है।



संघ के स्वयंसेवक देश में हजारों संगठन तथा संस्थाएं चलाते हैं। इनके प्रशिक्षण वर्ग भी वर्ष भर चलते रहते हैं। इनमें भी लाखों लोग भाग ले चुके हैं। विश्व हिन्दू परिषद वाले सत्संग और सेवा कार्यों का प्रशिक्षण देते हैं। बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी वाले नियुद्ध (जूडो, कराटे) तथा एयर गन से निशानेबाजी भी सिखाते हैं। इससे मन में साहस का संचार होकर आत्मविश्वास बढ़ता है। इन शिविरों के समापन कार्यक्रम भी सार्वजनिक होते हैं। संघ और संघ प्रेरित संगठनों का व्यापक साहित्य प्रायः हर बड़े नगर के कार्यालय पर उपलब्ध है। अब तक हजारों पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं तथा करोड़ों पुस्तकें बिकी होंगी। किसी पाठक ने यह नहीं कहा कि उसे इस पुस्तक में से हिंसा की गंध आती है।



संघ प्रेरित संस्थाओं की अर्थ व्यवस्था भी खुली होती है। वे समाज से पैसा लेते हैं तथा प्रतिवर्ष उसका अंकेक्षण किया जाता है। सच तो यह है कि जिस व्यक्ति, संस्था या संगठन का व्यापक उद्देश्य हो, जिसे हर जाति, वर्ग, अवस्था और आर्थिक स्थिति वाले, नगर और ग्राम के लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ना हो, वह हिंसक हो ही नहीं सकता। हिंसावादी होने के लिए गुप्तता अनिवार्य है और संघ का सारा काम खुला, सार्वजनिक और संविधान की मर्यादा में होता है। संघ पर 1947 के बाद तीन बार प्रतिबंध लग चुका है। उस समय कार्यालय पुलिस के कब्जे में थे। तब भी उन्हें वहां से कोई आपत्तिजनक सामग्री नहीं मिली।



दूसरी ओर आतंकी गिरोह गुप्त रूप से काम करते हैं। वे इस्लामी हों या ईसाई, नक्सली हों या माओवादी; सब भूमिगत रहकर काम करते हैं। उनके पर्चे किसी बम विस्फोट या नरसंहार के बाद ही मिलते हैं। उनके प्रशिक्षण शिविर पुलिस, प्रशासन या जनता की नजरों से दूर घने जंगलों में होते हैं। ये गिरोह जनता, व्यापारी तथा सरकारी अधिकारियों से जबरन धन वसूली करते हैं। न देने वाले की हत्या इनके बायें हाथ का खेल है। ऐसे सब गिरोहों को बड़ी मात्रा में विदेशों से भी धन तथा हथियार मिलते हैं।



पिछले दिनों अजमेर, मालेगांव, गोवा या हैदराबाद जैसी कुछ घटनाएं प्रकाश में आयी हैं। यद्यपि अभी इनकी जांच चल रही है और सत्य कब तक सामने आयेगा, कहना कठिन है। इनके साथ ‘अभिनव भारत’ या ‘सनातन’ जैसी संस्थाओं का नाम आ रहा है। इनका संघ या विश्व हिन्दू परिषद से कोई संबंध नहीं है। यदि कुछ लोग इन घटनाओं में पकड़ में आये हैं, जो संघ के कार्यकर्ता रहे हैं, उनसे पूछताछ में ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह निन्दनीय कार्य उन्होंने अपनी इच्छा से किया होगा। इसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं, संघ नहीं। क्योंकि संघ कभी किसी हिंसक कार्य का समर्थन नहीं करता।



संघ का जन्म हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए हुआ है। और हिंसा से विघटन पैदा होता है, संगठन नहीं। संघ मुस्लिम और ईसाई तुष्टीकरण का विरोधी है। वह उस मनोवृति का भी विरोधी है, जिसने देश को बंाटा और अब अगले बंटवारे के षड्यन्त्र रच रहे हैं। इसके बाद भी संघ का हिंसा में विश्वास नहीं है। वह मुसलमान तथा ईसाइयों में से भी अच्छे लोगों को खोज रहा है। संघ किसी को अछूत नहीं मानता। उसे सबके बीच काम करना है और सबको जोड़ना है। ऐसे में वह किसी वर्ग, मजहब या पंथ के सब लोगों के प्रति विद्वेष रखकर नहीं चल सकता।



इसलिए हिन्दू आतंकवाद या उससे संघ परिवार के संगठनों को जोड़ना केवल और केवल एक षड्यन्त्र है। यह खिसियानी बिल्ली के खंभा नोचने का प्रयास मात्र है। दिग्विजय सिंह हों या उनकी महारानी, वे आज तक किसी इस्लामी आतंकवादी को फांसी नहीं चढ़ा सके हैं। अब हिन्दू आतंकवाद का नाम लेकर वे इस तराजू को बराबर करना चाहते हैं। उनका यह षड्यन्त्र हर बार की तरह इस बार भी विफल होगा।



इतिहास इस बात का साक्षी है कि संघ हर चोट के बाद पहले से अधिक सबल हुआ है। 1948, 1975 और 1992 का उदाहरण बहुत पुराना नहीं है। यदि कांग्रेस फिर संघ वालों को आजमाना चाहे, तो उसका स्वागत है।



हमने चिराग रख दिया तूफां के सामने



पीछे हटेगा इश्क किसी इम्तहां से क्या ?
भारत में स्वाधीनता के बाद भी अंग्रेजी कानून और मानसिकता जारी है। इसीलिए इस्लामी आतंकवाद के सामने हिन्दू आतंकवाद का शिगूफा कुछ कांग्रेसी नेता छेड़ रहे हैं। इसकी आड़ में वे उन हिन्दू संगठनों को लपेटने के चक्कर में हैं, जिनकी देशभक्ति तथा सेवा भावना पर विरोधी भी संदेह नहीं करते। किसी समय इस झूठ मंडली की नेता सुभद्रा जोशी हुआ करती थीं; पर अब लगता है इसका भार बेरोजगार दिग्विजय सिंह ने उठा लिया है।




ये लोग हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबेल्स के चेले हैं। उसके दो सिद्धांत थे। एक – किसी भी झूठ को सौ बार बोलने से वह सच हो जाता है। दो – यदि झूठ ही बोलना है, तो सौ गुना बड़ा बोलो। इससे सबको लगेगा कि बात भले ही पूरी सच न हो; पर कुछ है जरूर। इसी सिद्धांत पर दिग्विजय सिंह अजमेर, हैदराबाद, मालेगांव या गोवा आदि के बम विस्फोटों के तार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल आदि से जोड़ रहे हैं। इसके लिए उन्होंने तथा उनकी सेक्यूलर मंडली ने ‘हिन्दू आतंकवाद’ नामक शब्द खोजा है। उन्हें लगता है कि दुनिया भर में फैल रहे इस्लामी आतंकवाद के सामने इसे खड़ाकर भारत में मुसलमान वोटों की फसल काटी जा सकती है। और इस समय कांग्रेस का सबसे प्रमुख एजेंडा यही है। सच्चर, रंगनाथ मिश्र, सगीर अहमद रिपोर्टों की कवायद के बाद यह उनका अगला कदम है।



सच तो यह है कि हिन्दू कभी आतंकवादी हो ही नहीं सकता। आतंकवाद का हिन्दुओं के संस्कार और व्यवहार से कोई तालमेल नहीं है। वैदिक, रामायण या महाभारत काल में ऐसे लोगों को असुर या राक्षस कहते थे। वे निरपराध लोगों को मारते थे, उन्हें गुलाम बनाते थे। इसे ही साहित्य की भाषा में कह दिया गया कि वे लोगों को खा लेते थे; पर वर्तमान आतंकवादी उनसे भी बढ़कर हैं। ये विधर्मियों को ही नहीं, स्वधर्मियों और स्वयं को भी मार देते हैं। आत्मघाती हमले लिट्टे और प्रभाकरण की देन हैं। प्रभाकरण ईसाई था, यह सबको पता है। इन दिनों हो रहे अधिकांश हमले आत्मघाती हैं, जिनमें हर धर्म, वर्ग और आयु के लोग मर रहे हैं। स्पष्ट है कि यह आतंक उस राक्षसी आतंक से भिन्न है।



वस्तुतः हिन्दू चिंतन में आतंक नाम की चीज ही नहीं है। वहां तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की भावना और भोजन से पूर्व गाय, कुत्ते और कौए के लिए भी अंश निकालने का प्रावधान है। ‘अतिथि देवो भव’ का सूत्र को तो शासन ने भी अपना लिया है। अपनी रोटी खाना प्रकृति, दूसरे की रोटी खाना विकृति और अपनी रोटी दूसरे को खिला देना संस्कृति है। यह संस्कृति हर हिन्दू के स्वभाव में है। ऐसे लोग आतंकवादी नहीं हो सकते; पर मुसलमान वोटों के लिए एक-दो दुर्घटनाओं के बाद कुछ सिरफिरों को पकड़कर उसे हिन्दू आतंकवाद नाम दिया जा रहा है। यह ब्रिटिश सरकार की ‘इम्पीरियल पुलिस’ जैसा व्यवहार है, जिसमें कहीं भी झगड़ा या दंगा होने पर दोनों ओर के लोगों को पकड़ लिया जाता था।



दिग्विजय सिंह संघ या विश्व हिन्दू परिषद की कार्यप्रणाली को न समझते हों, यह असभंव है। वे लश्कर, सिमी या हजारों नामों से काम करने वाले इन आतंकी गिरोहों को न जानते हों, यह भी असंभव है; पर आखों पर जब काला चश्मा लगा हो, तो फिर सब काला दिखेगा ही।



संघ को समझने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं होती। देश भर में हर दिन सुबह-शाम संघ की लगभग 50,000 शाखाएं सार्वजनिक स्थानों पर लगती हैं। इनमें से किसी में भी जाकर या उसे देखकर संघ को समझ सकते हैं। शाखा में प्रारम्भ के 40 मिनट शारीरिक कार्यक्रम होते हैं। बुजुर्ग लोग आसन करते हैं, तो नवयुवक और बालक खेल व व्यायाम। इसके बाद वे कोई देशभक्ति पूर्ण गीत बोलते हैं। किसी महामानव के जीवन का कोई प्रसंग स्मरण करते हैं और फिर भगवा ध्वज के सामने पंक्तियों में खड़े होकर भारत माता की वंदना के साथ एक घंटे की शाखा सम्पन्न हो जाती है।



मई-जून मास में देश भर में संघ के एक सप्ताह से 30 दिन तक के प्रशिक्षण वर्ग होते हैं। प्रत्येक में 100 से लेकर 1,000 तक शिक्षार्थी भाग लेते हैं। इन्हें प्राथमिक शिक्षा वर्ग तथा संघ शिक्षा वर्ग कहते हैं। इनमें औसत 50,000 युवक प्रतिवर्ष सहभागी होते हैं। इनके समापन कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में जनता तथा पत्रकार आते हैं। प्रतिदिन समाज के प्रबुद्ध एवं प्रभावी लोगों को बुलाकर संघ की कार्यपद्धति को निकट से देखने का अवसर दिया जाता है। आज तक किसी शिक्षार्थी, शिक्षक या नागरिक ने नहीं कहा कि उसे इन शिविरों में हिंसक गतिविधि दिखाई दी है।



एक मजेदार बात यह भी है कि संघ पर आतंकवादी होने का आरोप लगाने वाले लोग पहले संघ वालों की लाठी को देखकर हंसते थे। वे कहते थे कि इससे ए.के.47 का सामना कैसे होगा; पर अब उन्हें वही लाठी खतरनाक लग रही है।



संघ के स्वयंसेवक देश में हजारों संगठन तथा संस्थाएं चलाते हैं। इनके प्रशिक्षण वर्ग भी वर्ष भर चलते रहते हैं। इनमें भी लाखों लोग भाग ले चुके हैं। विश्व हिन्दू परिषद वाले सत्संग और सेवा कार्यों का प्रशिक्षण देते हैं। बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी वाले नियुद्ध (जूडो, कराटे) तथा एयर गन से निशानेबाजी भी सिखाते हैं। इससे मन में साहस का संचार होकर आत्मविश्वास बढ़ता है। इन शिविरों के समापन कार्यक्रम भी सार्वजनिक होते हैं। संघ और संघ प्रेरित संगठनों का व्यापक साहित्य प्रायः हर बड़े नगर के कार्यालय पर उपलब्ध है। अब तक हजारों पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं तथा करोड़ों पुस्तकें बिकी होंगी। किसी पाठक ने यह नहीं कहा कि उसे इस पुस्तक में से हिंसा की गंध आती है।



संघ प्रेरित संस्थाओं की अर्थ व्यवस्था भी खुली होती है। वे समाज से पैसा लेते हैं तथा प्रतिवर्ष उसका अंकेक्षण किया जाता है। सच तो यह है कि जिस व्यक्ति, संस्था या संगठन का व्यापक उद्देश्य हो, जिसे हर जाति, वर्ग, अवस्था और आर्थिक स्थिति वाले, नगर और ग्राम के लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ना हो, वह हिंसक हो ही नहीं सकता। हिंसावादी होने के लिए गुप्तता अनिवार्य है और संघ का सारा काम खुला, सार्वजनिक और संविधान की मर्यादा में होता है। संघ पर 1947 के बाद तीन बार प्रतिबंध लग चुका है। उस समय कार्यालय पुलिस के कब्जे में थे। तब भी उन्हें वहां से कोई आपत्तिजनक सामग्री नहीं मिली।



दूसरी ओर आतंकी गिरोह गुप्त रूप से काम करते हैं। वे इस्लामी हों या ईसाई, नक्सली हों या माओवादी; सब भूमिगत रहकर काम करते हैं। उनके पर्चे किसी बम विस्फोट या नरसंहार के बाद ही मिलते हैं। उनके प्रशिक्षण शिविर पुलिस, प्रशासन या जनता की नजरों से दूर घने जंगलों में होते हैं। ये गिरोह जनता, व्यापारी तथा सरकारी अधिकारियों से जबरन धन वसूली करते हैं। न देने वाले की हत्या इनके बायें हाथ का खेल है। ऐसे सब गिरोहों को बड़ी मात्रा में विदेशों से भी धन तथा हथियार मिलते हैं।



पिछले दिनों अजमेर, मालेगांव, गोवा या हैदराबाद जैसी कुछ घटनाएं प्रकाश में आयी हैं। यद्यपि अभी इनकी जांच चल रही है और सत्य कब तक सामने आयेगा, कहना कठिन है। इनके साथ ‘अभिनव भारत’ या ‘सनातन’ जैसी संस्थाओं का नाम आ रहा है। इनका संघ या विश्व हिन्दू परिषद से कोई संबंध नहीं है। यदि कुछ लोग इन घटनाओं में पकड़ में आये हैं, जो संघ के कार्यकर्ता रहे हैं, उनसे पूछताछ में ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह निन्दनीय कार्य उन्होंने अपनी इच्छा से किया होगा। इसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं, संघ नहीं। क्योंकि संघ कभी किसी हिंसक कार्य का समर्थन नहीं करता।



संघ का जन्म हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए हुआ है। और हिंसा से विघटन पैदा होता है, संगठन नहीं। संघ मुस्लिम और ईसाई तुष्टीकरण का विरोधी है। वह उस मनोवृति का भी विरोधी है, जिसने देश को बंाटा और अब अगले बंटवारे के षड्यन्त्र रच रहे हैं। इसके बाद भी संघ का हिंसा में विश्वास नहीं है। वह मुसलमान तथा ईसाइयों में से भी अच्छे लोगों को खोज रहा है। संघ किसी को अछूत नहीं मानता। उसे सबके बीच काम करना है और सबको जोड़ना है। ऐसे में वह किसी वर्ग, मजहब या पंथ के सब लोगों के प्रति विद्वेष रखकर नहीं चल सकता।



इसलिए हिन्दू आतंकवाद या उससे संघ परिवार के संगठनों को जोड़ना केवल और केवल एक षड्यन्त्र है। यह खिसियानी बिल्ली के खंभा नोचने का प्रयास मात्र है। दिग्विजय सिंह हों या उनकी महारानी, वे आज तक किसी इस्लामी आतंकवादी को फांसी नहीं चढ़ा सके हैं। अब हिन्दू आतंकवाद का नाम लेकर वे इस तराजू को बराबर करना चाहते हैं। उनका यह षड्यन्त्र हर बार की तरह इस बार भी विफल होगा।



इतिहास इस बात का साक्षी है कि संघ हर चोट के बाद पहले से अधिक सबल हुआ है। 1948, 1975 और 1992 का उदाहरण बहुत पुराना नहीं है। यदि कांग्रेस फिर संघ वालों को आजमाना चाहे, तो उसका स्वागत है।



हमने चिराग रख दिया तूफां के सामने



पीछे हटेगा इश्क किसी इम्तहां से क्या ?
6अप्रैल 2010- नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में मकराना के जंगलों में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की एक टुकड़ी पर हमला किया, 76 जवान शहीद।

तारीख: 8 मई 2010- बीजापुर जिले में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के बुलेट प्रूफ वाहन को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया, 7 जवानों की मौत हो गई। तारीख : 16 मई 2010-राजनांदगांव के तेरेगांव के नजदीक नक्सलियों ने मुखबिरी के आरोप में सरपंच सहित छह ग्रामीणों को मौत के घाट उतार दिया।

तारीख: 17 मई 2010- सुकमा से दंतेवाड़ा जा रही एक यात्री बस को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया। इस हमले में 50 यात्रियों की मौत हो गई। मरने वालों में 20 विशेष पुलिस अधिकारी [एसपीओ] भी थे।

20 जून 2008- उड़ीसा के बालीमेला जलाशय में नक्सलियों ने एक नाव पर सवार चार विशेष पुलिस अधिकारियों व 60 ग्रेहाउंड कमांडो पर हमला किया। 38 जवान मारे गए।
16 जून 2008- उड़ीसा के मलकानगिरी जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर पुलिस वैन को उड़ गया। 21 पुलिसकर्मियों की मौत।

13 अप्रैल 2009- उड़ीसा के कोरापुट जिले में बाक्साइट की एक खान पर हमला। अ‌र्द्धसैनिक बल के 10 जवान शहीद।
22 मई 2009- महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के जंगल में 16 पुलिसकर्मियों की हत्या।





























































































10 जून 2009- झारखंड के सारंदा के जंगलों में नियमित पेट्रोलिंग के दौरान सुरक्षा बलों पर हम ला। नौ पुलिसकर्मी मारे गए, जिसमें सीआरपीएफ के जवान भी शामिल थे।











13 जून 2009-झारखंड में बोकारो के पास एक छोटे से कस्बे में बारूदी सुरंग की चपेट में आकर 10 पुलिसकर्मियों की मौत हो गई और कई घायल हो गए।











27 जुलाई 2009-छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर छह लोगों की हत्या।











26 सितंबर 2009- छत्तीसगढ़ के जगदलपुर जिले के परागुडा गांव में भाजपा सांसद बलिराम क श्यप के बेटे की हत्या कर दी।











8 अक्टूबर 2009-महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में पुलिस चौकी पर हमला। 17 पुलिसकर्मी मारे गए।











15 फरवरी 2010-पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर जिले के सिलदा में एक पुलिस कैंप पर हमला। इस्टर्न फ्रंटियर राइफल्स के 24 जवान शहीद।











4 अप्रैल 2010-उड़ीसा के कोराटपुर जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर नक्सल विरोधी विशेष बल के 11 जवानों की हत्या कर दी।











6 अप्रैल 2010-अब तक के सबसे बड़े नक्सली हमले में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में एक पुलिसकर्मी सहित सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद।











8 मई 2010-छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में नक्सलियों ने एक बुलेटप्रूफ वाहन उड़ाया। सीआरपीएफ के आठ जवान मारे गए।











16 मई 2010- राजनांदगांव के तेरेगांव के नजदीक नक्सलियों ने मुखबिरी के आरोप में सरपंच सहित छह ग्रामीणों को
हरियाणा प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक एसपीएस राठौर के द्वारा रूचिका गहरोत्रा के साथ की गई ज्यादती, रूचिका का काल कलवित होना और इंसाफ के लिए बीस साल तक रगडना, यह सब अभी लोगों की स्मृति से विस्मृत नहीं हुआ है, कि अचानक ही देश के हृदय प्रदेश के छतरपुर जिले में दो कोमलांगी बालाओं द्वारा पुलिस की अमानवीय बर्बरता के सामने घुटने टेककर आत्महत्या करने का दिल दहलाने वाला वाक्या सामने आया है।




एक ओर मध्य प्रदेश के निजाम शिवराज सिंह चौहान अपनी कमान वाले सूबे को स्वर्णिम प्रदेश बनाने के ताने बाने बुन रहें हैं, वहीं दूसरी और उनकी सरकार के ही खाकी वर्दी वाले नुमाईंदों द्वारा आवाम के साथ बर्बरता की नायाब पेशकश प्रस्तुत की जा रही है। शिवराज सिंह चौहान इस हादसे में यह कहकर अपना पल्ला झाडने का प्रयास कर रहे हैं कि रक्षक ही भक्षक बन गए हैं। मामले की जांच अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक स्तर के अधिकारी से करवाई जा रही है। इस मामले में छतरपुर के पुलिस अधीक्षक प्रेम सिंह बिष्ट ने ओरछा रोड थाना प्रभारी के.के.खनेजा सहित तीन को निलंबित कर दिया है।



दरअसल बिन मां की दो बच्चियों के पिता राजकुमार सिंह देश के नौनिहालों का भविष्य संवारने का काम करते हैं, वे पेशे से शिक्षक हैं। जब इनमें से एक अपने मित्र के साथ झांसी मार्ग से अपने घर लौट रही थी, तब ओरछा रोड थाने में पदस्थ सिपाही अरविंद पटेल और कन्हैया लाल ने उन्हेें धमकाया और जबरिया उस युवती को निर्वस्त्र कर अपने मोबाईल से उसके अश्लील वीडियो बना लिए। पीडिता ने इसकी शिकायत पुलिस अधीक्षक प्रेम सिंह बिष्ट से की, मगर नतीजा सिफर ही निकला।



शिव के राज में मध्य प्रदेश में भ्रष्टाचार और बेलगाम अफसरशाही के बेलगाम घोडे तो पहले से ही दौडते आ रहे हैं, अब रियाया की जान माल का जिम्मा संभालने वाली खाकी वर्दी पहनने वालों के हौसले इतने बुलंद हो गए हैं कि वे अबोध मासूम बालाओें की इज्जत पर सरेआम हाथ डालने का दुस्साहस भी करने लगे हैं। इनके इस तरह के दुष्कृत्य की अगर उच्चाधिकारियों से शिकायत की जाती है, तो उच्चाधिकारी दोषियों को इस शर्त पर निलंबित करते हैं कि अगर पीडिता अपनी शिकायत वापस ले लें तो उन पर कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी।



जाहिर है कि उच्चाधिकारियों के इस तरह के प्रश्रय का लाभ उठाकर आरोपियों द्वारा अपनी खाकी वर्दी का रौब तो गांठा ही जाएगा। फिर अगर हाथ में लट्ठ लिए सिपाही गर्जेगा तो बेचारी आम जनता तो चूहे की तरह बिलों में छिपने को मजबूर होगी ही। गौरतलब होगा कि अभी दो दिन पहले ही इंदौर के अन्नपूर्णा नगर थाने में प्रदेश की सरकारी और गैरसरकारी जमीनों की हेराफेरी के एक बहुत बडे आरोपी और भूमाफिया बॉबी छावडा को इंदौर पुलिस हवालात में एयर कंडीशनर की व्यवस्था के लिए चर्चित होती है, फिर दो दिन बाद ही छतरपुर में अबोध बालाओं को इहलीला समाप्त करने पर मजबूर कर देती है।



छतरपुर की यह घटना निश्चित तौर पर मध्य प्रदेश पुलिस के साथ ही साथ सूबे के निजाम शिवराज सिंह चौहान के माथे पर कभी न धुलने वाले कलंक के मानिंद ही माना जा सकता है। याद पडता है कि जैसे ही भारतीय जनता पार्टी ने मध्य प्रदेश में सत्ता संभाली थी, तभी सवर्ण और दलित के बीच हुई तकरार के चलते सिवनी जिले में भोमाटोला कांड घटित हुआ था, इसमें सर्वण समाज के दर्जनों लोगों ने सारे गांव के सामने एक अधेड दलित महिला और उसकी जवान बहू का बलात्कार किया था। इस मामले में दोषियों को सजा मिल चुकी है, पर यह कांड भाजपा के सत्ता में आने के साथ ही हुआ था।



इस मामले में बताया जाता है कि भोपाल में प्रशिक्षण ले रहे छतरपुर के पुलिस अधीक्षक ने प्रभारी पुलिस अधीक्षक एवं छतरपुर के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक को निर्देश दिए थे कि दोनों ही आरोपियों को निलंबित किया जाए। जैसे ही उपर से कार्यवाही के डंडे की आशंका हुई इन दोनों ही आरोपियों ने पीडिता के बयान लेने गए सहयोगी आरक्षक दिनेश सिंह और प्रवीण त्रिपाठी के माध्यम से दोनों ही बालाओं पर अपनी शिकायत वापस लेने दबाव बनाया। किसी भी अधिकारी ने यह जानने का प्रयास अब तक नहीं किया है कि महिलाओं के बयान लेने के लिए महिला पुलिस को ले जाना सिंह और त्रिपाठी ने उचित क्यों नहीं समझा।



छतरपुर की यह घटना प्रदेश के उस हर मां बाप की पेशानी पर चिंता की लकीरें उभार सकती है, जिनकी जवान बच्चियां हैं। खाकी वर्दी के गुरूर में कोई भी सरकारी नुमाईंदा किसी के साथ भी मनमानी कर सकता है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि मध्य प्रदेश सूबे में आज की तारीख में कानून और व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं बची है। प्रदेश में पूरी तरह जंगलराज कायम है। कहीं आम जनता पर जुल्म ढाया जा रहा है तो कहीं मीडिया के इस तरह की गफलतों के खिलाफ आवाज उठाने पर उनके खिलाफ दमनात्मक कार्यवाहियां की जा रहीं हैं। यह सब देख सुन कर भी सूबे के निजाम ‘‘नीरो‘‘ के मानिंद बांसुरी बजा रहे हैं।



रूचिका का मामला देश में मीडिया ने उछाला। जोर शोर से उछले मामले में भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी राठौर को सजा दिलवाने में बीस बरस का समय लग गया है। उस हिसाब से यह मामला तो बहुत छोटा ही है। आज प्रिंट मीडिया की यह सुर्खियां बना हुआ है, पर निहित स्वार्थ में उलझा मीडिया भी इस खबर को एकध सप्ताह में बीच के पन्नों में लाकर इसका दम तोड देगा। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को चेतना होगा। मीडिया को मध्य प्रदेश सरकार की तंद्रा तोडनी होगी। इस मामले में पुलिस अधीक्षक या प्रभारी पुलिस अधीक्षक को नैतिक जिम्मेदारी लेनी ही होगी, क्योंकि हर मामले में विभाग का प्रमुख ही जवाबदार होता है। सरकार को इस मामले में कठोर कदम उठाना ही होगा, अन्यथा आने वाले समय में शांत और सौम्य समझे जाने
M.F. Hussain एक महान चित्रकार है. चित्रकार कहुँ या कलाकार कहुँ. कलाकार है भई. कई तरह की कलाएँ जानते है. कैसे प्रसिद्धि पानी है. कैसे मार्केटिंग करनी है. तभी तो दिन दूनि रात चौगुनी प्रगति करके यहाँ तक पहुँचे है. उन्हे यह भी अच्छी तरह आता है कि कला के नाम पर बेवजह झमेला कैसे खडा करना चाहिए. यह तो और भी अच्छी तरह पता है कि ईस देश मे एक ही सम्प्रदाय ऐसा है जिसकी जितनी चाहे खिल्ली उडा लो कोई कुछ नही कहने वाला, क्योंकि देश धर्मनिरपेक्ष है. यानि Pro Muslim हो चलेगा पर Pro Hindu तो भूल कर भी नही हो सकते. अरे कही आप साम्प्रदायिक ना हो जाओ. तो ईन जैसे पेंटरो को शह मिल जाती है कि जो जी में आए बना डालो. क्या फर्क पडता है.


पहले इन्होने सिता को नग्न करके हनुमान की पूँछ पर बिठा दिया. थोडा शोर शराबा हुआ जो मुफ्त कि publicity मे रूपान्तरित हो गया. अब तो इन्होने हदें ही पार कर दी.

Thursday, May 20, 2010

6अप्रैल 2010- नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में मकराना के जंगलों में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की एक टुकड़ी पर हमला किया, 76 जवान शहीद।






तारीख: 8 मई 2010- बीजापुर जिले में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के बुलेट प्रूफ वाहन को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया, 7 जवानों की मौत हो गई। तारीख : 16 मई 2010-राजनांदगांव के तेरेगांव के नजदीक नक्सलियों ने मुखबिरी के आरोप में सरपंच सहित छह ग्रामीणों को मौत के घाट उतार दिया।





तारीख: 17 मई 2010- सुकमा से दंतेवाड़ा जा रही एक यात्री बस को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया। इस हमले में 50 यात्रियों की मौत हो गई। मरने वालों में 20 विशेष पुलिस अधिकारी [एसपीओ] भी थे।





प्रमुख नक्सली हमले

20 जून 2008- उड़ीसा के बालीमेला जलाशय में नक्सलियों ने एक नाव पर सवार चार विशेष पुलिस अधिकारियों व 60 ग्रेहाउंड कमांडो पर हमला किया। 38 जवान मारे गए।





16 जून 2008- उड़ीसा के मलकानगिरी जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर पुलिस वैन को उड़ गया। 21 पुलिसकर्मियों की मौत।





13 अप्रैल 2009- उड़ीसा के कोरापुट जिले में बाक्साइट की एक खान पर हमला। अ‌र्द्धसैनिक बल के 10 जवान शहीद।





22 मई 2009- महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के जंगल में 16 पुलिसकर्मियों की हत्या।





10 जून 2009- झारखंड के सारंदा के जंगलों में नियमित पेट्रोलिंग के दौरान सुरक्षा बलों पर हम ला। नौ पुलिसकर्मी मारे गए, जिसमें सीआरपीएफ के जवान भी शामिल थे।





13 जून 2009-झारखंड में बोकारो के पास एक छोटे से कस्बे में बारूदी सुरंग की चपेट में आकर 10 पुलिसकर्मियों की मौत हो गई और कई घायल हो गए।





27 जुलाई 2009-छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर छह लोगों की हत्या।





26 सितंबर 2009- छत्तीसगढ़ के जगदलपुर जिले के परागुडा गांव में भाजपा सांसद बलिराम क श्यप के बेटे की हत्या कर दी।





8 अक्टूबर 2009-महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में पुलिस चौकी पर हमला। 17 पुलिसकर्मी मारे गए।





15 फरवरी 2010-पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर जिले के सिलदा में एक पुलिस कैंप पर हमला। इस्टर्न फ्रंटियर राइफल्स के 24 जवान शहीद।





4 अप्रैल 2010-उड़ीसा के कोराटपुर जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर नक्सल विरोधी विशेष बल के 11 जवानों की हत्या कर दी।





6 अप्रैल 2010-अब तक के सबसे बड़े नक्सली हमले में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में एक पुलिसकर्मी सहित सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद।





8 मई 2010-छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में नक्सलियों ने एक बुलेटप्रूफ वाहन उड़ाया। सीआरपीएफ के आठ जवान मारे गए।





16 मई 2010- राजनांदगांव के तेरेगांव के नजदीक नक्सलियों ने मुखबिरी के आरोप में सरपंच सहित छह ग्रामीणों को मौत के घाट उतार दिया।

Wednesday, May 19, 2010

http://www.visfot.com/news_never_die/3468.html

उत्तर प्रदेश में बहुजन से सर्वजन की ओर जानें का दावा करनें वाली मायावती सरकार इस देश-प्रदेश के हिन्दुओं खासकर सवर्णों (हिन्दू देवी-देवताओं, हिन्दू धर्म ग्रन्थों) को बुरी तरह से अपमानित करनें का अभियान किस तरह चला रही है इसका प्रत्यक्ष नजारा देखना हो तो ‘अम्बेडकर टुडे’ पत्रिका का मई- 2010 का ताजा अंक देखिए जिसके संरक्षकों में मायावती मंत्रिमण्डल के चार-चार वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री शामिल हैं। इस पत्रिका के मई-2010 के अंक का दावा है कि- ‘हिन्दू धर्म’ मानव मूल्यों पर कलंक है, त्याज्य धर्म है, वेद- जंगली विधान है, पिशाच सिद्धान्त है, हिन्दू धर्म ग्रन्थ- धर्म शास्त्र- धर्म शास्त्र- धार्मिक आतंक है, हिन्दू धर्म व्यवस्था का जेलखाना है, रामायण- धार्मिक चिन्तन की जहरीली पोथी है, और सृष्टिकर्ता (ब्रह्या)- बेटी***(कन्यागामी) हैं तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी- दलितों का दुश्मन नम्बर-1 हैं।




उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में स्थित जौनपुर निश्चित रूप से सवर्ण बाहुल्य जनपद है। जौनपुर के कुल दस विधानसभा सीटों में से चार पर बसपा के सवर्ण ही चुनाव जीते हैं। इसी जनपद के मछलीशहर विधानसभा सीट से मायावती मंत्रिमण्डल के एक कुख्यात मंत्री सुभाष पाण्डेय चुनाव जीत कर मंत्री पद पर विराजमान हैं। इसी एक तथ्य से यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वांचल के इस जनपद के सवर्ण समाज नें खुले दिल से मायावती के ‘बहु प्रचारित सर्वजन’ की राजनीति का स्वीकार किया है। लेकिन हैरतअंगेज तथ्य तो यह भी है कि इसी जौनपुर जिला मुख्यालय से मात्र तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित भगौतीपुर (शीतला माता मंदिर धाम-चौकियाँ) से एक मासिक पत्रिका ‘अम्बेडकर टुडे’ प्रकाशित होती है जिसके मुद्रक-प्रकाशक एवं सम्पादक हैं कोई डाक्टर राजीव रत्न। डॉ0 राजीव रत्न के सम्पादन में प्रकाशित होनें वाली मासिक पत्रिका का बहुत मजबूत दावा है कि उसे बहुजन समाज पार्टी के संगठन से लेकर बसपा सरकार तक का भरपूर संरक्षण प्राप्त है और यह पत्रिका बहुजन समाज पार्टी के वैचारिक पक्ष को इस देश-प्रदेश के आम आदमी के सामनें लानें के लिए ही एक सोची-समझी रणनीति के तहत प्रकाशित हो रही है।



यही कारण है कि इस पत्रिका के सम्पादक डॉ0 राजीव रत्न अपनी इस पत्रिका के विशेष संरक्षकों में मायावती मंत्रिमण्डल के पांच वरिष्ठ मंत्रियों क्रमशः स्वामी प्रसाद मौर्य (प्रदेश बसपा के अध्यक्ष भी हैं।), बाबू सिंह कुशवाहा, पारसनाथ मौर्य, नसीमुद्दीन सिद्दकी, एवं दद्दू प्रसाद का नाम बहुत ही गर्व के साथ घोषित करते हैं। पत्रिका का तो यहाँ तक दावा है कि पत्रिका का प्रकाशन व्यवसायिक न होकर पूर्ण रूप से बहुजन आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर जन-जन तक पहुँचानें एवं बुद्ध के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए किया जा रहा है। बावजूद इसके पत्रिका के इसी अंक में कानपुर विकास प्राधिकरण, मुरादाबाद विकास प्रधिकरण, आवास बन्धु-आवास एवं शहरी नियोजन विभाग, नगर निगम- कानपुर, नगर पंचायत- जलालपुर-बिजनौर एवं अन्य कई स्थानों के लाखों रूपयों का विज्ञापन छपा हुआ है। जाहिर है बसपाई मिशन में जी-जान से लगी इस पत्रिका को लाखों रूपयों का विज्ञापन देकर बसपा सरकार ही इसे इसे फलनें-फूलनें का मार्ग सुगमता पूर्वक उपलब्ध करा रही है। इस पत्रिका के कथनी-करनी का एक शर्मनाक तथ्य तो यह भी है कि पत्रिका के सम्पादक जहाँ यह दावा करते थक नहीं रहे हैं कि पत्रिका का उद्देश्य व्यवसायिक नही है, वहीं पत्रिका के इसी अंक के पृष्ठ संख्या- 29 पर सम्पादक की तरफ से एक सूचना प्रकाशित की गई है कि- ‘अम्बेडकर टुडे’ पत्रिका के जिन कार्ड धारकों के कार्ड की वैद्यता समाप्त हो गई है या फिर जो लोग पत्रिका का कार्ड चाहते हैं वे पांच सौ रूपये का बैंक ड्राफ्ट या फिर पोस्टल आर्डर ‘अम्बेडकर टुडे’ के नाम देकर कार्ड प्राप्त कर सकते हैं।



इतना ही नहीं ‘बसपाई मिशन’ को अंजाम तक पहुँचानें में लगी इस पत्रिका के गोरखधंधे एवं इसके चार सौ बीसी का इससे ज्यादा ज्वलंत साक्ष्य और क्या होगा कि- पत्रिका के पृष्ट संख्या- (विषय सूची के पेज पर) पर भारत सरकार का सिम्बल ‘मोनोग्राम’ ‘अशोक का लाट’ छपा हुआ है। जबकि यह जग जाहिर है एवं संविधान में भी यह स्पष्ट है कि- ‘इस देश का कोई भी नागरिक, व्यवसायिक प्रतिष्ठान या फिर संस्था अपनें व्यवसाय या फिर संस्था में भारत सरकार क सिम्बल ‘अशोक के लाट’ का उपयोग नही कर सकता। बावजूद इसके प्रदेश सरकार एवं उसक वरिष्ठ मंत्रियों के संरक्षण में यह पत्रिका खुलेआम उपरोक्त नियमों-कानूनों की धज्जियाँ उड़ाते हुए। ‘अशोक की लाट का प्रयोग धड़ल्ले से कर रही है। बसपाई मिशन में जी-जान होनें से जुटी इस पत्रिका के मई-2010 के पृष्ठ संख्या- 44 से पृष्ठ संख्या-55 (कुल 12 पेज) तक एक विस्तृत लेख ‘धर्म के नाम पर शोषण का धंधा- वेदों में अन्ध विश्वास’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है। इस लेख के लेखक कौशाम्बी जनपद के कोई बड़े लाल मौर्य हैं (जिनका मोबाइल नम्बर- 9838963187 है।) इस लेख के कथित विद्वान लेखक बड़ेलाल मार्य नें वेदों में मुख्यतः अथर्व वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद के अनेकोनेक श्लोकों का कुछ इस तरह से पास्टमार्टम किया है कि- यदि आज भगवान वेद व्यास होते और विद्वान लेखक की विद्वता को देखते तो शायद वे भी चकरा जाते।



विद्वान लेखकों नें अथर्ववेद में उल्लिखित-वेदों में वशीकरण, मंत्र, वेदों में हिंसा (ऋग्वेद) आदि का कुछ इस तरह से वर्णन किया है कि लेखक के विचार को पढ़कर ही पढ़ने वाला शर्मशार हो जाए। लेखक का कथन है कि- देवराज इन्द्र बैल का मांस खाते थे (पृष्ठ संख्या- 53)। पृष्ठ संख्या- 53 पर ही दिया गया है कि वैदिक काल में देवताओं और अतिथियों को तो गो मांस से ही तृप्त किया जाता था। पृष्ठ संख्या-54 पर विद्वान लेखक का कथन प्रकाशित है कि- ‘वेदों के अध्ययन से कहीं भी गंभीर चिन्तन, दर्शन और धर्म की व्याख्या प्रतीत नहीं होती। ऋग्वेद संहिता में कहीं से ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि यह देववाणी है, बल्कि इसके अध्ययन से पता चलता है कि यह पूरी शैतानी पोथियाँ हैं। आगे कहा गया है कि- वेदों में सुन्दरी और सुरा का भरपूर बखान है, जो भोग और उपभोग की सामग्री है। पत्रिका के इसी अंक के पृष्ठ संख्या- 31 पर मुरैना-मध्यप्रदेश के किसी आश्विनी कुमार शाक्य द्वारा हिन्दुओं खाशकर सवर्णों की अस्मिता, मानबिन्दुओं, हिन्दू मंदिरों, हिन्दू धर्म, वेद, उपनिषद, हिन्दू धर्म ग्रन्थ, रामायण, ईश्वर, 33 करोड़ देवता, सृष्टिकर्ता ब्रह्या, वैदिक युग, ब्राह्यण, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, को निम्न कोटि की भाषा शैली में गालियाँ देते हुए किस तरह लांक्षित एवं अपमानित किया गया है इसके लिए देखें पत्रिका में प्रकाशित बॉक्स की पठनीय सामग्री।



उत्तर प्रदेश की बसपा सरकार द्वारा पालित एवं वित्तीय रूप से पोषित ‘अम्बेडकर टुडे’ पत्रिका के इस भड़काऊ लेख नें प्रदेश में ‘सवर्ण बनाम अवर्ण’ के बीच भीषण टकराव का बीजारोपड़ तो निश्चित रूप से कर ही दिया है। पत्रिका के इस लेख पर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से मात्र अस्सी किलोमीटर दूर रायबरेली में 14 मई को अनेक हिन्दू संगठनों नें कड़ी आपत्ति दर्ज कराते हुए पत्रिका की होली जलाई जिस पर जिला प्रशासन नें पूरे इलाके को पुलिस छावनी के रूप में तब्दील कर दिया था। रायबरेली में स्थिति पर काबू तो पा लिया गया है पर यदि इसकी लपटें रायबरेली की सीमा से दूर निकली तो इस पर आसानी से काबू पाना मुश्किल होगा।



इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि-2007 के विधानसभा चुनाव के समय बसपा सुप्रिमों मायावती जिस ‘सोशल इन्जीनियरिंग’ कथित ‘सर्वजन’ के नारे के दम पर सवर्णों को आगे करके स्पष्ट बहुमत हाशिल कर प्रदेश की सत्ता पर काबिज हुई थीं। उनका सर्वजन का वह फार्मूला लोकसभा चुनाव आते-आते फुस्स होकर रह गया। राजनीति के चौसर की मंजी खिलाड़ी मायावती को अंततः यह समझानें में देर नहीं लगी कि- 2007 के विधानसभा के जिस चुनाव में दलित-ब्राह्यण गठजोड़ के कारण प्रदेश में पूर्ण बहुमत के साथ उनकी सरकार सत्तारूढ़ हुई वहीं गठजोड़ लोकसभा चुनाव आते-आते बुरी तरह से बिखर गया। कारण स्पष्ट था कि सवर्णाें के साथ मायावती की नजदीकियों के कारण दलित बसपा से दरकिनार हो कांग्रेस के पाले में खिसक गया था। स्थिति की गंभीरता को भांपते हुए मायावती नें अंततः एक बार फिर दलितों की ओर रूख करते हुए सवर्णों से किनारा करना शुरू कर दिया है। इसी क्रम में मायावती नें सोशल इन्जीनियरिंग के कथित जनक सतीश मिश्र को सत्ता के गलियारे से दूर तक दलितों को यह संदेश देनें का यह अथक प्रयास किया है कि- दलितों को छोड़कर राजनीति में टिके रहना बसपा के लिए असंभव है। बसपा का दलितों के प्रति पुनः उमड़ा प्रेम तथा सवर्णों को किनारे करनें की रणनीति एवं दलित आंदोलन में जुटी उक्त पत्रिका के संयुक्त प्रयास का सूक्ष्मतः अवलोकन पर अन्ततः यह स्पष्ट होनें में देर नहीं लगती कि मायावती सरकार का सर्वजन का नारा बुरी तरह से फ्लाप हो गया है तथा उसके मन में दलितों के प्रति मोह एक बार पुनः हिलोरें मारनें लगा है।



उपरोक्त तथ्यों को देखते हुए अंततः यहाँ यह कहना गलत न होगा कि श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज नें सही लिखा है- ‘उधरे अंत न होय निबाहू। कालिनेमि जिमि रावन राहू’। अर्थात- कोई राक्षस भले ही सन्त भेष धारण कर लोगों को दिग्भ्रमित करनें का दुष्चर्क रचे, कुछ समय तक वह भले ही अपनें स्वांग में कामयाब रहे पर बहुत जल्द ही उसका राक्षसी स्वरूप लोगों के सामनें आ ही पाता है। कुछ इसी तरह की लोकोक्ति आम जनमानस में प्रचलित हैं कि- लोहे पर सोनें की पालिस कर कुछ समय के लिए लोहे को सोना प्रदर्शित कर लिया जाय पर सोनें का रंग उतरते ही लोहा पुनः अपनें असली स्वरूप में आ ही जाता है। उपरोक्त दोनों ही तर्क उत्तर प्रदेश में तथाकथित ‘सर्वजन सरकार’ की मुखिया मायावती एवं उनके मंत्रिमण्डलीय सहयोगियों पर अक्षरशः फिट बैठ रही है।



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एक २२ साल का युवा जिसे देशभक्ति की सोच हासिल है तभी आर्मी ज्वाइन करने की चाह जगी लेकिन फिजिकल में असफल होने के बाद वापस पढ़ रहा है और अब एक नई सोच नेवी ज्वाइन करने की शोक लिखना ,पढना और सोच की गह्रइयो में ख़ुद को झोककर मोती निकाल लाना और इसमें सफल होने की चाह