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Friday, June 4, 2010

ध्र्म्परिवार्त्न की समस्या आतंकवाद से gambhir

ध्र्म्परिवार्त्न की समस्या आतंकवाद से गंभीर है .क्यों की आतंकवाद दहशत पैदा करता है देशवासियों में देशभक्ति का जनून कम नही करता .परन्तु ध्र्म्परिवार्त्न इंसान की सोच को बदल कर रख देता है जिससे उसकी मानसिकता देश को नुक्सान पहुचानेवाली हो जाती है . आतंकवाद किसी एक जगह हमला करता है लेकिन ध्र्मान्तर्ण देश के हर कोने प़र . आज देश धर्म्परिवार्त्न की समस्या से जूझ रहा है पैसो के बल प़र या डरा धमकाकर गरीब लोगो को इसाई अथवा मुस्लिम बनाया जा रहा है . जिससे देश में अलगावाद की स्थिति उत्पन्न होने की सम्भावना बनी रहती है . रूस भी इसी समस्या से पीड़ित है और रूस के भी भारत की ही तरह टुकड़े किये गये है . भारत की सरकारे इसाई मिशनरियों और कट्टर मुल्लाओ प़र नियन्त्रण कसने की जगह उन्हें संरक्षण दे रही है . जिसके चलते अधिक से अधिक गरीबो का ध्र्मान्तर्ण कराया जा रहा है . एक तरफ भारत को विकसित देश बनाने की बाते हो रही है विकास की बाते कर देश को बरगलाया जा रहा है दूसरी और बंगलादेशी घुसपैठियों , इसाई मशीनरियो को देश में कुछ भी करने का लाइसेंस दिया जा रहा है . काश्मीर में जो कुछ होता रहता है वह सरकार की गलत नीतियों का ही नतीजा है . तरिपूरा , आन्ध्र ,  झारखंड  ,उड़ीसा जैसे राज्यों में इसाई मशीनरियो और बंगलादेशी घुसपैठियों की जनसंख्या बढ़ रही है . परतु सरकार इतिहास से सीख न लेकर फिर से भारत में एसे लोगो को बढावा दे रही है जिनका मकसद भारत को तोड़ना है .
श्री एवं श्रीमती वॉट्स की मेहनत और “राष्ट्रीय कार्य” का फ़ल उन्हें दिखाई भी देने लगा है, क्योंकि उत्तर-पूर्व के राज्यों मिजोरम, नागालैण्ड और मणिपुर में पिछले 25 वर्षों में ईसाई जनसंख्या में 200% का अभूतपूर्व उछाल आया है। त्रिपुरा जैसे प्रदेश में जहाँ आज़ादी के समय एक भी ईसाई नहीं था, 60 साल में एक लाख बीस हजार हो गये हैं, (हालांकि त्रिपुरा में कई सालों से वामपंथी शासन है, लेकिन इससे चर्च की गतिविधि पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता, क्योंकि वामपंथियों के अनुसार सिर्फ़ “हिन्दू धर्म” ही दुश्मनी रखने योग्य है, बाकी के धर्म तो उनके परम दोस्त हैं) इसी प्रकार अरुणाचल प्रदेश में सन् 1961 की जनगणना में सिर्फ़ 1710 ईसाई थे जो अब बढ़कर एक लाख के आसपास हो गये हैं तथा चर्चों की संख्या भी 780 हो गई है।

Sunday, May 30, 2010

किसानो की स्थिति बदतर हो रही है

भारत में किसान को धरतिपूत्र कहा जाता है किसान की मेहनत से ही देश में अनाज पैदा होता है   .लेकिन आम आदमी यह नही जानता   इस देश में कितने किसान हर साल आत्महत्या कर रहे हैं. पिछले बारह सालों में दो  लाख किसानो ने आत्महत्या की .राष्ट्रीय अपराध लेखा ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार  १९९७ से अब तक १,९९,१३२किसानों आत्महत्या कर चुके है .सन 2008 में 16,196 किसानों ने  . पत्रकार पी साईनाथ  ‘द हिंदू’ में प्रकाशित अपने लेख में  खुलासा करते  है कि 2008 में 5  राज्यों-महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा 10,797 किसान  आत्महत्या कर चुके है  ।२००८   में देश भर से जिन 16,196 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं, उसका 66.7 प्रतिशत हिस्सा इन राज्यों से है . इसमें  महाराष्ट्र सबसे आगे है, महाराष्ट्रा में  3,802 किसान मोत को गला लगा चुके है हैं। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा उन्नीस सो सतानवे  से अब तक ४१,४०१ किसानों ने आत्महत्याए कर चुके है .

यह हालात भारत के उस आदमी के है जिसे धरती पुत्र कहा गया है . किसान जो देश के लिये अन्न पैदा करता  है वह आज आत्महत्या करने को मजबूर  है . आजादी के ६३ साल पश्चात हम आज भी गरीबी , भुखमरी से लड़ रहे है .यह देश की अंदरूनी हकीकत है जो शर्मनाक भी है और दर्दनाक भी .परन्तु इस हालात प़र किसकी नजर है मीडिया की भारत सरकार की . नही किसी की भी नही है क्या मीडिया भारत की जनता को किसानो का दर्द दिखा रहा है . सरकारों के क्या कहने सरकार का ध्यान आम आदमी प़र होता तो स्थिति यह कतई  नही होती .



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Saturday, May 29, 2010

khap panchayt

चंडीगढ़। उद्योगपति और कांग्रेस सांसद नवीन जिंदल ने हरियाणा खाप पंचायतों द्वारा हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन करके सगोत्रीय शादी पर प्रतिबंध लगाने की मांग का समर्थन किया।

10 मई 2010


 
 
13 अप्रैल 2010


इंडो-एशियन न्यूज सर्विस



कुरुक्षेत्र। हरियाणा और आस-पास के राज्यों की खाप पंचायतों की शीर्ष संस्था ने 'ऑनर किलिंग' (कथित सम्मान के लिए की जानेवाली हत्या) के अपराध में पिछले महीने मौत की सजा पाए छह लोगों को अपना समर्थन देने का फैसला किया है।

मनोज-बबली हत्याकांड: 5 हत्यारों को फांसी की सजा

खाप महापंचायत ने मंगलवार को हिंदू विवाह कानून में एक संशोधन करके समान गोत्र में विवाह को प्रतिबंधित करने की भी मांग की। खाप नेताओं ने न्यायालय के निर्णय के विरोध में दिल्ली को उत्तर भारत के महत्वपूर्ण शहरों से जोड़नेवाले राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक एक पर प्रदर्शन करने और चंडीगढ़ तथा अंबाला में सड़क जाम करने का फैसला किया।

 
 
कुरुक्षेत्र। हरियाणा और आस-पास के राज्यों की खाप पंचायतों की शीर्ष संस्था ने 'ऑनर किलिंग' (कथित सम्मान के लिए की जानेवाली हत्या) के अपराध में पिछले महीने मौत की सजा पाए छह लोगों को अपना समर्थन देने का फैसला किया है।




खाप महापंचायत ने मंगलवार को हिंदू विवाह कानून में एक संशोधन करके समान गोत्र में विवाह को प्रतिबंधित करने की भी मांग की। खाप नेताओं ने न्यायालय के निर्णय के विरोध में दिल्ली को उत्तर भारत के महत्वपूर्ण शहरों से जोड़नेवाले राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक एक पर प्रदर्शन करने और चंडीगढ़ तथा अंबाला में सड़क जाम करने का फैसला किया।

chmda ke jute pashuo par atyaachaar

लखनऊ। हिन्दुस्तान ही नहीं पूरी दुनिया में चमड़े के बने जूते, बेल्ट और टोपी की मांग बहुत ज्यादा है, लेकिन इन्हें इस्तेमाल करने वाले यह नहीं जानते कि चमड़ा निकालने के लिये जानवरों की हड्डियों के जोडों को चटकाया जाता है और उन्हें उल्टा लटका कर उनकी गर्दन काट दी जाती है। एक सर्वेक्षण के अनुसार चमड़े के लिये दुनिया भर में हर सेकेंड 70 से अधिक गाय, भैंस, सुअर, भेड़ और अन्य जानवरों को मौत के घाट उतार दिया जाता है।










‘फैशन सप्ताह’ में चमड़े के विकल्पों पर जोर









ज्यादातर चमडा गाय, भैंस, भेड, बकरी आदि की खाल से बनाया जाता है। इसके अलावा घोडा, सुअर, मगरमच्छ, सांप और अन्य जानवरों की खालें भी चमडे के स्त्रोत हैं। एशिया के कुछ हिस्सों में चमडे की खातिर कुत्तों और बिल्लियों को भी मारा जाता है। चमडा और उससे बने सामान खरीदते समय यह नहीं बताया जा सकता कि यह किस जानवर से बना है। चमड़े की खातिर गाय और भैंस के सींग तोड दिये जाते हैं और उन्हें भूखा प्यासा रखा जाता है।



पशुओं पर क्रूरता के खिलाफ काम कर रही अंतर्राष्ट्रीय संस्था पीपुल फार एथिकल ट्रीटमेंट आफ एनिमल (पेटा) ने लोगों से चमडे के बजाय वनस्पतियों से बने जूते, बेल्ट और टोपी का इस्तेमाल करने की अपील की है। वनस्पतियों से बने सामान चमडे की अपेक्षा साठ से सत्तर प्रतिशत तक सस्ते होते हैं।



भारत में पेटा की प्रमुख अनुराधा साहनी ने यूनीवार्ता से कहा कि देश में चमडे को इंडियन कौंसिल आफ एग्रीकल्चर रिसर्च में मांस के सह उद्योग की संज्ञा दी गयी है, जबकि वास्तविकता यह है कि निर्यात के रूप में यह मांस की अपेक्षा अधिक मूल्य पाता है।



उन्होंनें कहा कि चमडे की खरीद परिवहन में पशुओं के प्रति क्रूरता और कसाईखाने में उनके साथ दर्दनाक व्यवहार को खुला समर्थन देती है। डेयरी में जब दुधारू गाय दूध देना बंद कर देती है तो उनकी खाल का इस्तेमाल चमडे के रूप में किया जाता है। उनके बछडों को भी अक्सर जहर दे दिया जाता है या भूखा प्यासा रखा जाता है ताकि उनके चमडे की ऊंची कीमत मिल सके।



सुश्री साहनी ने कहा कि तकरीबन सभी पशु जिनको अंततः बेल्ट या जूते का रूप लेने को मजबूर होना पडता है, उन्हें कसाईखाने में अत्यंत क्रूर व्यवहार झेलना पडता है। उन्हें तंग जगहों में बेरहमी से ठूंस कर रखा जाता है तथा बिना बेहेशी की दवा दिये उनके पूछ और सींग काट दिये जाते हैं।



चमडे के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले कई पशु इतने बीमार और जख्मी होते है कि वह चलने की हालत में नहीं होते और उन्हें घसीटकर कसाईखाने तक ले जाना पडता है। चलाने के लिये कईयों की आंखों में मिर्च और तम्बाकू भी झोंक दिया जाता है। उनकी पूंछ को दर्दनाक तरीके से मोड कर तोडा जाता है।









बेहाल चमड़ा उद्योग









चमडे को टूटने से बचाने के लिये कई तरह के रसायन जानवरों को लगाये जाते हैं। उनमें से कुछ काफी जहरीले होते हैं। ऐसे रसायन कसाईखाने में काम करने वालों को भी नुकसान पहुंचा देते हैं।



उन्होंनें कहा कि बेंगलूर और कोलकाता में नगरपालिका के कसाईखानों में जानवरों को बेरहमी से कत्ल करने की जगह पर ले जाते देखा गया। उनको बिखरे खून और अन्य जानवरों के शरीर से निकाली गयी अंतडियों के ढेर पर पटक दिया गया था। जानवर भय से कांप रहे थे और उनकी आंखें फैल गयी थीं। उनकी आंखों से आंसूओं का झरना बह रहा था। वह लाचार होकर अपने साथियों को मरता देख रहे थे और अपनी बारी का इन्तजार कर रहे थे।

hinduo ne muslim ki lkadki ki shaadi krai

24 मई 2010




इंडो-एशियन न्यूज सर्विस





बागपत। उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के एक गांव के हिंदुओं ने सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल पेश करते हुए चंदा इकट्ठा करके एक गरीब मुस्लिम लड़की की धूमधाम से शादी कराई।



बागपत जिले के सुन्हेड़ा गांव में हिंदुओं ने जाति-धर्म के बंधनों से ऊपर उठकर रविवार शाम को यह शादी करवाई। उन्हें लगता है कि उनके इस कदम से दोनों समुदायों के रिश्तों में और प्रगाढ़ता आएगी।



सुन्हेड़ा गांव की असमां (21) जब केवल छह साल की थी तब उसके पिता अजीज की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी। मां महरुनिसां ने किसी तरह दूसरों के घर काम करके उसका पालन-पोषण किया, लेकिन घर की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह असमां की शादी धूमधाम से करके अपने मरहूम पति की अंतिम इच्छा को पूरी कर पाती।



ग्रामीणों को मरहूम अजीज की अंतिम इच्छा की जानकारी थी। असमां जब शादी के लायक हुई तब उन्होंने आगे बढ़कर उसके निकाह की जिम्मेदारी उठाई। असमां के लिए वर का चुनाव ग्रामीणों ने ही किया।



स्थानीय जयपाल तोमर करते हैं कि असमां के लिए अच्छा वर तलाशने की जिम्मेदारी गांव के वरिष्ठ लोगों पर थी। जयपाल ने कहा, "वैसे तो असमां के लिए कई रिश्ते आए पर हमें लगा कि पास के गांव में कपड़े की दुकान चलाने वाला मुश्ताक ही उसके लिए योग्य है। उसकी मां मेहरूनिसां से सलाह करने के बाद तकरीबन तीन महीने पहले शादी तय कर दी गई।"



आसमां की शादी पूरी तरह से मुस्लिम रीति-रिवाज से हुई। गांव के सरपंच महिपाल सिंह ने आईएएनएस से बातचीत में कहा कि करीब 800 लोगों ने शरीक होकर नव-विवाहित जोड़े को अपना आशीर्वाद दिया। असमां की शादी करने के अलावा ग्रामीणों ने उसे रोजमर्रा की जरूरतों से जुड़े ढेरों उपहार भी दिए।



उन्होंने कहा कि इस तरह की शादी केवल ग्रामीणों के अभूतपूर्व सहयोग से संभव हो सकती थी। शादी में आने वाले खर्च के बारे में पूछे जाने पर सिंह ने कहा कि यह बतलाना ग्रामीणों की भावनाओं को ठेस पहुंचाना होगा, क्योंकि उनके लिए यह पैसे से कहीं ज्यादा भावनाओ से जुड़ा मामला था।



सिंह ने कहा, " मैं कहना चाहता हूं कि ग्रामीणों ने मिलकर इस शादी में खाने-पीने से लेकर साज-सज्जा और संगीत का बेहतरीन इंतजाम किया था। आमतौर पर शहरों में होने वाली शादियों से कमतर व्यवस्था नहीं थी।"
पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में नक्सलियों ने रेलवे की पटरिया उखाड़ दी . जिससे ७६ यात्रियों की मोत हो गयी नक्सली मोत का तांडव हर दुसरे या तीसरे दिन रच रहे है .जनता रो रही है ,बिलख रही है .आये दिन होने वाले हमलो से परेशान है और सर पटक- पटक कर उस दिन को याद कर रही है जब उसने देश की बागडोर युपीए के हाथ में सोपी थी . प्रधानमन्त्री विदेशी दोरो में मस्त रहते है , चिदम्बरम सिमित अधिकार होने की बात कहते है .राहुल दलितों के घर सो रहे है खाना ख़ा रहे है .इन सबके बीच में आम आदमी पिस रहा है अपनी जान गवा रहा है .न ही रेल सुरक्षित है और न ही बसे एयरपोर्ट . भारत के ग्रहमंत्री पाकिस्तान को सलाह देते है 'आतंक प़र लगाम लगाओ ' .परन्तु अपने देश की जो बागडोर उन्होंने अपने हाथ ली है वह उसे नही संभाल पा रहे है .देश का नेत्रित्व कमजोर हाथो में है जो देशहित में फैसला लेने से पहले वोट बैंक को तोलता है . प्रधानमन्त्री , ग्रहमंत्री,या वित् मंत्री ,या सोनिया, राहुल जो वायदे चुनावों में इन्होने किये थे उन वायदों को निभाने में विफल साबित हुए है .फिर भी राहुल गरीबो , दलितों के घर खाना खाकर २०१४ की राजनितिक जमीन तयार करने में जुटे है . यह कैसी सरकार है जो वर्तमान स्थिति को संभालने में विफल है परन्तु सत्ता मोह में आगे की रणनीति बनाने में जुटी है . लोकसभा चुनावों में आडवानी जी ने कमजोर प्रधान मंत्री का मुदा उठाया था किन्तु यहाँ कमजोरी केवल एक व्यक्ति में नही सभी मंत्रियो में है . देश भले ही खंडित हो , नक्सलवाद पनपे इन्हें कोई मतलब नही है ये लोग केवल विकास का नारा देकर अपना फ़र्ज़ पूरा कर रहे है . क्या आतंक और नक्सल के रहते भारत कभी विकसित हो सकता है .जनता से विकास के नाम प़र वोट बटोरने वाली पार्टी देश की सुरक्षा से खिलवाड़ कर रही है .आम आदमी परेशान है वह सोच रहा है यह कैसी सरकार है

Friday, May 28, 2010

अभी हाल ही में हुई विमान दुर्घटना तो आपको याद होगी, जिसमें विमान रनवे से फिसल कर बगल की खाई में गिर गया था और उसमें सवार अधिकतर यात्री मारे गये थे। लेकिन आपको शायद यह याद न हो कि इस देश में कितने किसान हर साल आत्महत्या करते हैं। जी हाँ, पिछले 12 सालों में यह संख्या 2 लाख तक जा पहुँची है। किसानों की इन त्रासद स्थितियों पर पढिये शिरीष खरे का यह चौंकाने वाले आलेख।




राष्ट्रीय अपराध लेखा ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 1997 से अबतक कुल 1,99,132 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। जबकि 2008 में 16,196 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं।





जाने माने पत्रकार पी साईनाथ ने ‘द हिंदू’ में प्रकाशित अपने लेख में भी यह खुलासा किया है कि 2008 में 5 बड़े राज्यों-महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जिन्हें ‘आत्महत्या-क्षेत्र’ कहा जाता है, में सबसे ज्यादा 10,797 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। यानि 2008 में देश भर से जिन 16,196 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं, उसका 66.7 प्रतिशत हिस्सा अकेले ‘आत्महत्या-क्षेत्र’ से है। इसमें भी महाराष्ट्र सबसे आगे है, जहां 3,802 किसानों ने मौत को गले लगाया हैं। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 1997 से अब तक 41,404 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। यह देशभर में हुई कुल किसान आत्महत्याओं की संख्या का 1/5वां से अधिक भाग है।





राष्ट्रीय अपराध लेखा ब्यूरो की यह रिपोर्ट कहती है कि 1997 से 2002 के बीच ‘आत्महत्या-क्षेत्र’ से 55,769 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। जबकि 2003 से 2008 के बीच यह आकड़ा 67,054 तक पहुंच गया। जिसमें किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं में औसतन सलाना 1,900 की बढ़ोतरी दर्ज हुई। सालाना औसत के मद्देनजर 2003 से हर 30 मिनट में एक किसान आत्महत्या करता है। यह रिपोर्ट कहती है कि हालांकि 2007 के मुकाबले आत्महत्याओं में थोड़ी कमी तो आई है, मगर कोई उल्लेखनीय बदलाव दिखाई नहीं देता है।





मद्रास इंस्टीट्यूट आफ डेवलपमेंट स्टडीज से जुड़े रहे जानेमाने अर्थशास्त्री प्रोफेसर के नागराज कहते हैं कि ‘‘अगर 2008 में 70,000 करोड़ रुपए के कर्ज की माफी और खेती के लिए दी जाने वाली सहायता के बाद यह हालात है तो सूखाग्रस्त 2009 के बाद के हालात तो और भी भयावह हो सकते हैं। कुल मिलाकर किसानों की यह समस्या बेहद गंभीर हो चुकी है।’’

अगर आपको 'साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन' का यह प्रयास पसंद आया हो, तो कृपया फॉलोअर बन कर हमारा उत्साह अवश्य बढ़ाएँ।
बी.बी.सी. कहता है...........




ताजमहल...........

एक छुपा हुआ सत्य..........

कभी मत कहो कि.........

यह एक मकबरा है..........



प्रो.पी. एन. ओक. को छोड़ कर किसी ने कभी भी इस कथन को चुनौती नही दी कि........



"ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था"





प्रो.ओक. अपनी पुस्तक "TAJ MAHAL - THE TRUE STORY" द्वारा इस



बात में विश्वास रखते हैं कि,--



सारा विश्व इस धोखे में है कि खूबसूरत इमारत ताजमहल को मुग़ल बादशाह

शाहजहाँ ने बनवाया था.....



ओक कहते हैं कि......



ताजमहल प्रारम्भ से ही बेगम मुमताज का मकबरा न होकर,एक हिंदू प्राचीन शिव

मन्दिर है जिसे तब तेजो महालय कहा जाता था.



अपने अनुसंधान के दौरान ओक ने खोजा कि इस शिव मन्दिर को शाहजहाँ ने जयपुर

के महाराज जयसिंह से अवैध तरीके से छीन लिया था और इस पर अपना कब्ज़ा कर

लिया था,,



=> शाहजहाँ के दरबारी लेखक "मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी "ने अपने

"बादशाहनामा" में मुग़ल शासक बादशाह का सम्पूर्ण वृतांत 1000 से ज़्यादा

पृष्ठों मे लिखा है,,जिसके खंड एक के पृष्ठ 402 और 403 पर इस बात का

उल्लेख है कि, शाहजहाँ की बेगम मुमताज-उल-ज़मानी जिसे मृत्यु के बाद,

बुरहानपुर मध्य प्रदेश में अस्थाई तौर पर दफना दिया गया था और इसके ०६

माह बाद,तारीख़ 15 ज़मदी-उल- अउवल दिन शुक्रवार,को अकबराबाद आगरा लाया

गया फ़िर उसे महाराजा जयसिंह से लिए गए,आगरा में स्थित एक असाधारण रूप से

सुंदर और शानदार भवन (इमारते आलीशान) मे पुनः दफनाया गया,लाहौरी के

अनुसार राजा जयसिंह अपने पुरखों कि इस आली मंजिल से बेहद प्यार करते थे

,पर बादशाह के दबाव मे वह इसे देने के लिए तैयार हो गए थे.



इस बात कि पुष्टि के लिए यहाँ ये बताना अत्यन्त आवश्यक है कि जयपुर के

पूर्व महाराज के गुप्त संग्रह में वे दोनो आदेश अभी तक रक्खे हुए हैं जो

शाहजहाँ द्वारा ताज भवन समर्पित करने के लिए राजा

जयसिंह को दिए गए थे.......



=> यह सभी जानते हैं कि मुस्लिम शासकों के समय प्रायः मृत दरबारियों और

राजघरानों के लोगों को दफनाने के लिए, छीनकर कब्जे में लिए गए मंदिरों और

भवनों का प्रयोग किया जाता था ,



उदाहरनार्थ हुमायूँ, अकबर, एतमाउददौला और सफदर जंग ऐसे ही भवनों मे

दफनाये गए हैं ....



=> प्रो. ओक कि खोज ताजमहल के नाम से प्रारम्भ होती है---------



=> "महल" शब्द, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में

भवनों के लिए प्रयोग नही किया जाता...



यहाँ यह व्याख्या करना कि महल शब्द मुमताज महल से लिया गया है......वह कम

से कम दो प्रकार से तर्कहीन है---------





पहला -----शाहजहाँ कि पत्नी का नाम मुमताज महल कभी नही था,,,बल्कि उसका

नाम मुमताज-उल-ज़मानी था ...





और दूसरा-----किसी भवन का नामकरण किसी महिला के नाम के आधार पर रखने के

लिए केवल अन्तिम आधे भाग (ताज)का ही प्रयोग किया जाए और प्रथम अर्ध भाग

(मुम) को छोड़ दिया जाए,,,यह समझ से परे है...



प्रो.ओक दावा करते हैं कि,ताजमहल नाम तेजो महालय (भगवान शिव का महल) का

बिगड़ा हुआ संस्करण है, साथ ही साथ ओक कहते हैं कि----



मुमताज और शाहजहाँ कि प्रेम कहानी,चापलूस इतिहासकारों की भयंकर भूल और

लापरवाह पुरातत्वविदों की सफ़ाई से स्वयं गढ़ी गई कोरी अफवाह मात्र है

क्योंकि शाहजहाँ के समय का कम से कम एक शासकीय अभिलेख इस प्रेम कहानी की

पुष्टि नही करता है.....



इसके अतिरिक्त बहुत से प्रमाण ओक के कथन का प्रत्यक्षतः समर्थन कर रहे हैं......

तेजो महालय (ताजमहल) मुग़ल बादशाह के युग से पहले बना था और यह भगवान्

शिव को समर्पित था तथा आगरा के राजपूतों द्वारा पूजा जाता था-----



==> न्यूयार्क के पुरातत्वविद प्रो. मर्विन मिलर ने ताज के यमुना की तरफ़

के दरवाजे की लकड़ी की कार्बन डेटिंग के आधार पर 1985 में यह सिद्ध किया

कि यह दरवाजा सन् 1359 के आसपास अर्थात् शाहजहाँ के काल से लगभग 300 वर्ष

पुराना है...



==> मुमताज कि मृत्यु जिस वर्ष (1631) में हुई थी उसी वर्ष के अंग्रेज

भ्रमण कर्ता पीटर मुंडी का लेख भी इसका समर्थन करता है कि ताजमहल मुग़ल

बादशाह के पहले का एक अति महत्वपूर्ण भवन था......



==>यूरोपियन यात्री जॉन अल्बर्ट मैनडेल्स्लो ने सन् 1638 (मुमताज कि

मृत्यु के 07 साल बाद) में आगरा भ्रमण किया और इस शहर के सम्पूर्ण जीवन

वृत्तांत का वर्णन किया,,परन्तु उसने ताज के बनने का कोई भी सन्दर्भ नही

प्रस्तुत किया,जबकि भ्रांतियों मे
मुमताज और शाहजहाँ कि प्रेम कहानी,चापलूस इतिहासकारों की भयंकर भूल और


लापरवाह पुरातत्वविदों की सफ़ाई से स्वयं गढ़ी गई कोरी अफवाह मात्र है

क्योंकि शाहजहाँ के समय का कम से कम एक शासकीय अभिलेख इस प्रेम कहानी की

पुष्टि नही करता है.....



इसके अतिरिक्त बहुत से प्रमाण ओक के कथन का प्रत्यक्षतः समर्थन कर रहे हैं......

तेजो महालय (ताजमहल) मुग़ल बादशाह के युग से पहले बना था और यह भगवान्

शिव को समर्पित था तथा आगरा के राजपूतों द्वारा पूजा जाता था-----



==> न्यूयार्क के पुरातत्वविद प्रो. मर्विन मिलर ने ताज के यमुना की तरफ़

के दरवाजे की लकड़ी की कार्बन डेटिंग के आधार पर 1985 में यह सिद्ध किया

कि यह दरवाजा सन् 1359 के आसपास अर्थात् शाहजहाँ के काल से लगभग 300 वर्ष

पुराना है...



==> मुमताज कि मृत्यु जिस वर्ष (1631) में हुई थी उसी वर्ष के अंग्रेज

भ्रमण कर्ता पीटर मुंडी का लेख भी इसका समर्थन करता है कि ताजमहल मुग़ल

बादशाह के पहले का एक अति महत्वपूर्ण भवन था......



==>यूरोपियन यात्री जॉन अल्बर्ट मैनडेल्स्लो ने सन् 1638 (मुमताज कि

मृत्यु के 07 साल बाद) में आगरा भ्रमण किया और इस शहर के सम्पूर्ण जीवन

वृत्तांत का वर्णन किया,,परन्तु उसने ताज के बनने का कोई भी सन्दर्भ नही

प्रस्तुत किया,जबकि भ्रांतियों मे यह कहा जाता है कि ताज का निर्माण

कार्य 1631 से 1651 तक जोर शोर से चल रहा था......



==> फ्रांसीसी यात्री फविक्स बर्निअर एम.डी. जो औरंगजेब द्वारा गद्दीनशीन

होने के समय भारत आया था और लगभग दस साल यहाँ रहा,के लिखित विवरण से पता

चलता है कि,औरंगजेब के शासन के समय यह झूठ फैलाया जाना शुरू किया गया कि

ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था.......



प्रो. ओक. बहुत सी आकृतियों और शिल्प सम्बन्धी असंगताओं को इंगित करते

हैं जो इस विश्वास का समर्थन करते हैं कि,ताजमहल विशाल मकबरा न होकर

विशेषतः हिंदू शिव मन्दिर है.......



आज भी ताजमहल के बहुत से कमरे शाहजहाँ के काल से बंद पड़े हैं,जो आम जनता

की पहुँच से परे हैं



प्रो. ओक., जोर देकर कहते हैं कि हिंदू मंदिरों में ही पूजा एवं धार्मिक

संस्कारों के लिए भगवान् शिव की मूर्ति,त्रिशूल,कलश और ॐ आदि वस्तुएं

प्रयोग की जाती हैं.......



==> ताज महल के सम्बन्ध में यह आम किवदंत्ती प्रचलित है कि ताजमहल के

अन्दर मुमताज की कब्र पर सदैव बूँद बूँद कर पानी टपकता रहता है,, यदि यह

सत्य है तो पूरे विश्व मे किसी किभी कब्र पर बूँद बूँद कर पानी नही

टपकाया जाता,जबकि

प्रत्येक हिंदू शिव मन्दिर में ही शिवलिंग पर बूँद बूँद कर पानी टपकाने की

व्यवस्था की जाती है,फ़िर ताजमहल (मकबरे) में बूँद बूँद कर पानी टपकाने का क्या

मतलब....????



==> राजनीतिक भर्त्सना के डर से इंदिरा सरकार ने ओक की सभी पुस्तकें स्टोर्स से

वापस ले लीं थीं और इन पुस्तकों के प्रथम संस्करण को छापने वाले संपादकों को

भयंकर परिणाम भुगत लेने की धमकियां भी दी गईं थीं....



==> प्रो. पी. एन. ओक के अनुसंधान को ग़लत या सिद्ध करने का केवल एक ही रास्ता है

कि वर्तमान केन्द्र सरकार बंद कमरों को संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षण में

खुलवाए, और अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों को छानबीन करने दे ....



ज़रा सोचिये....!!!!!!



कि यदि ओक का अनुसंधान पूर्णतयः सत्य है तो किसी देशी राजा के बनवाए गए

संगमरमरी आकर्षण वाले खूबसूरत, शानदार एवं विश्व के महान आश्चर्यों में से

एक भवन, "तेजो महालय" को बनवाने का श्रेय बाहर से आए मुग़ल बादशाह शाहजहाँ

को क्यों......?????



तथा......



इससे जुड़ी तमाम यादों का सम्बन्ध मुमताज-उल-ज़मानी से क्यों........???????



""""आंसू टपक रहे हैं, हवेली के बाम से.......



रूहें लिपट के रोटी हैं हर खासों आम से.......



अपनों ने बुना था हमें, कुदरत के काम से......



फ़िर भी यहाँ जिंदा हैं हम गैरों के नाम

Thursday, May 27, 2010

भारत में स्वाधीनता के बाद भी अंग्रेजी कानून और मानसिकता जारी है। इसीलिए इस्लामी आतंकवाद के सामने हिन्दू आतंकवाद का शिगूफा कुछ कांग्रेसी नेता छेड़ रहे हैं। इसकी आड़ में वे उन हिन्दू संगठनों को लपेटने के चक्कर में हैं, जिनकी देशभक्ति तथा सेवा भावना पर विरोधी भी संदेह नहीं करते। किसी समय इस झूठ मंडली की नेता सुभद्रा जोशी हुआ करती थीं; पर अब लगता है इसका भार बेरोजगार दिग्विजय सिंह ने उठा लिया है।




ये लोग हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबेल्स के चेले हैं। उसके दो सिद्धांत थे। एक – किसी भी झूठ को सौ बार बोलने से वह सच हो जाता है। दो – यदि झूठ ही बोलना है, तो सौ गुना बड़ा बोलो। इससे सबको लगेगा कि बात भले ही पूरी सच न हो; पर कुछ है जरूर। इसी सिद्धांत पर दिग्विजय सिंह अजमेर, हैदराबाद, मालेगांव या गोवा आदि के बम विस्फोटों के तार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल आदि से जोड़ रहे हैं। इसके लिए उन्होंने तथा उनकी सेक्यूलर मंडली ने ‘हिन्दू आतंकवाद’ नामक शब्द खोजा है। उन्हें लगता है कि दुनिया भर में फैल रहे इस्लामी आतंकवाद के सामने इसे खड़ाकर भारत में मुसलमान वोटों की फसल काटी जा सकती है। और इस समय कांग्रेस का सबसे प्रमुख एजेंडा यही है। सच्चर, रंगनाथ मिश्र, सगीर अहमद रिपोर्टों की कवायद के बाद यह उनका अगला कदम है।



सच तो यह है कि हिन्दू कभी आतंकवादी हो ही नहीं सकता। आतंकवाद का हिन्दुओं के संस्कार और व्यवहार से कोई तालमेल नहीं है। वैदिक, रामायण या महाभारत काल में ऐसे लोगों को असुर या राक्षस कहते थे। वे निरपराध लोगों को मारते थे, उन्हें गुलाम बनाते थे। इसे ही साहित्य की भाषा में कह दिया गया कि वे लोगों को खा लेते थे; पर वर्तमान आतंकवादी उनसे भी बढ़कर हैं। ये विधर्मियों को ही नहीं, स्वधर्मियों और स्वयं को भी मार देते हैं। आत्मघाती हमले लिट्टे और प्रभाकरण की देन हैं। प्रभाकरण ईसाई था, यह सबको पता है। इन दिनों हो रहे अधिकांश हमले आत्मघाती हैं, जिनमें हर धर्म, वर्ग और आयु के लोग मर रहे हैं। स्पष्ट है कि यह आतंक उस राक्षसी आतंक से भिन्न है।



वस्तुतः हिन्दू चिंतन में आतंक नाम की चीज ही नहीं है। वहां तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की भावना और भोजन से पूर्व गाय, कुत्ते और कौए के लिए भी अंश निकालने का प्रावधान है। ‘अतिथि देवो भव’ का सूत्र को तो शासन ने भी अपना लिया है। अपनी रोटी खाना प्रकृति, दूसरे की रोटी खाना विकृति और अपनी रोटी दूसरे को खिला देना संस्कृति है। यह संस्कृति हर हिन्दू के स्वभाव में है। ऐसे लोग आतंकवादी नहीं हो सकते; पर मुसलमान वोटों के लिए एक-दो दुर्घटनाओं के बाद कुछ सिरफिरों को पकड़कर उसे हिन्दू आतंकवाद नाम दिया जा रहा है। यह ब्रिटिश सरकार की ‘इम्पीरियल पुलिस’ जैसा व्यवहार है, जिसमें कहीं भी झगड़ा या दंगा होने पर दोनों ओर के लोगों को पकड़ लिया जाता था।



दिग्विजय सिंह संघ या विश्व हिन्दू परिषद की कार्यप्रणाली को न समझते हों, यह असभंव है। वे लश्कर, सिमी या हजारों नामों से काम करने वाले इन आतंकी गिरोहों को न जानते हों, यह भी असंभव है; पर आखों पर जब काला चश्मा लगा हो, तो फिर सब काला दिखेगा ही।



संघ को समझने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं होती। देश भर में हर दिन सुबह-शाम संघ की लगभग 50,000 शाखाएं सार्वजनिक स्थानों पर लगती हैं। इनमें से किसी में भी जाकर या उसे देखकर संघ को समझ सकते हैं। शाखा में प्रारम्भ के 40 मिनट शारीरिक कार्यक्रम होते हैं। बुजुर्ग लोग आसन करते हैं, तो नवयुवक और बालक खेल व व्यायाम। इसके बाद वे कोई देशभक्ति पूर्ण गीत बोलते हैं। किसी महामानव के जीवन का कोई प्रसंग स्मरण करते हैं और फिर भगवा ध्वज के सामने पंक्तियों में खड़े होकर भारत माता की वंदना के साथ एक घंटे की शाखा सम्पन्न हो जाती है।



मई-जून मास में देश भर में संघ के एक सप्ताह से 30 दिन तक के प्रशिक्षण वर्ग होते हैं। प्रत्येक में 100 से लेकर 1,000 तक शिक्षार्थी भाग लेते हैं। इन्हें प्राथमिक शिक्षा वर्ग तथा संघ शिक्षा वर्ग कहते हैं। इनमें औसत 50,000 युवक प्रतिवर्ष सहभागी होते हैं। इनके समापन कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में जनता तथा पत्रकार आते हैं। प्रतिदिन समाज के प्रबुद्ध एवं प्रभावी लोगों को बुलाकर संघ की कार्यपद्धति को निकट से देखने का अवसर दिया जाता है। आज तक किसी शिक्षार्थी, शिक्षक या नागरिक ने नहीं कहा कि उसे इन शिविरों में हिंसक गतिविधि दिखाई दी है।



एक मजेदार बात यह भी है कि संघ पर आतंकवादी होने का आरोप लगाने वाले लोग पहले संघ वालों की लाठी को देखकर हंसते थे। वे कहते थे कि इससे ए.के.47 का सामना कैसे होगा; पर अब उन्हें वही लाठी खतरनाक लग रही है।



संघ के स्वयंसेवक देश में हजारों संगठन तथा संस्थाएं चलाते हैं। इनके प्रशिक्षण वर्ग भी वर्ष भर चलते रहते हैं। इनमें भी लाखों लोग भाग ले चुके हैं। विश्व हिन्दू परिषद वाले सत्संग और सेवा कार्यों का प्रशिक्षण देते हैं। बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी वाले नियुद्ध (जूडो, कराटे) तथा एयर गन से निशानेबाजी भी सिखाते हैं। इससे मन में साहस का संचार होकर आत्मविश्वास बढ़ता है। इन शिविरों के समापन कार्यक्रम भी सार्वजनिक होते हैं। संघ और संघ प्रेरित संगठनों का व्यापक साहित्य प्रायः हर बड़े नगर के कार्यालय पर उपलब्ध है। अब तक हजारों पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं तथा करोड़ों पुस्तकें बिकी होंगी। किसी पाठक ने यह नहीं कहा कि उसे इस पुस्तक में से हिंसा की गंध आती है।



संघ प्रेरित संस्थाओं की अर्थ व्यवस्था भी खुली होती है। वे समाज से पैसा लेते हैं तथा प्रतिवर्ष उसका अंकेक्षण किया जाता है। सच तो यह है कि जिस व्यक्ति, संस्था या संगठन का व्यापक उद्देश्य हो, जिसे हर जाति, वर्ग, अवस्था और आर्थिक स्थिति वाले, नगर और ग्राम के लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ना हो, वह हिंसक हो ही नहीं सकता। हिंसावादी होने के लिए गुप्तता अनिवार्य है और संघ का सारा काम खुला, सार्वजनिक और संविधान की मर्यादा में होता है। संघ पर 1947 के बाद तीन बार प्रतिबंध लग चुका है। उस समय कार्यालय पुलिस के कब्जे में थे। तब भी उन्हें वहां से कोई आपत्तिजनक सामग्री नहीं मिली।



दूसरी ओर आतंकी गिरोह गुप्त रूप से काम करते हैं। वे इस्लामी हों या ईसाई, नक्सली हों या माओवादी; सब भूमिगत रहकर काम करते हैं। उनके पर्चे किसी बम विस्फोट या नरसंहार के बाद ही मिलते हैं। उनके प्रशिक्षण शिविर पुलिस, प्रशासन या जनता की नजरों से दूर घने जंगलों में होते हैं। ये गिरोह जनता, व्यापारी तथा सरकारी अधिकारियों से जबरन धन वसूली करते हैं। न देने वाले की हत्या इनके बायें हाथ का खेल है। ऐसे सब गिरोहों को बड़ी मात्रा में विदेशों से भी धन तथा हथियार मिलते हैं।



पिछले दिनों अजमेर, मालेगांव, गोवा या हैदराबाद जैसी कुछ घटनाएं प्रकाश में आयी हैं। यद्यपि अभी इनकी जांच चल रही है और सत्य कब तक सामने आयेगा, कहना कठिन है। इनके साथ ‘अभिनव भारत’ या ‘सनातन’ जैसी संस्थाओं का नाम आ रहा है। इनका संघ या विश्व हिन्दू परिषद से कोई संबंध नहीं है। यदि कुछ लोग इन घटनाओं में पकड़ में आये हैं, जो संघ के कार्यकर्ता रहे हैं, उनसे पूछताछ में ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह निन्दनीय कार्य उन्होंने अपनी इच्छा से किया होगा। इसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं, संघ नहीं। क्योंकि संघ कभी किसी हिंसक कार्य का समर्थन नहीं करता।



संघ का जन्म हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए हुआ है। और हिंसा से विघटन पैदा होता है, संगठन नहीं। संघ मुस्लिम और ईसाई तुष्टीकरण का विरोधी है। वह उस मनोवृति का भी विरोधी है, जिसने देश को बंाटा और अब अगले बंटवारे के षड्यन्त्र रच रहे हैं। इसके बाद भी संघ का हिंसा में विश्वास नहीं है। वह मुसलमान तथा ईसाइयों में से भी अच्छे लोगों को खोज रहा है। संघ किसी को अछूत नहीं मानता। उसे सबके बीच काम करना है और सबको जोड़ना है। ऐसे में वह किसी वर्ग, मजहब या पंथ के सब लोगों के प्रति विद्वेष रखकर नहीं चल सकता।



इसलिए हिन्दू आतंकवाद या उससे संघ परिवार के संगठनों को जोड़ना केवल और केवल एक षड्यन्त्र है। यह खिसियानी बिल्ली के खंभा नोचने का प्रयास मात्र है। दिग्विजय सिंह हों या उनकी महारानी, वे आज तक किसी इस्लामी आतंकवादी को फांसी नहीं चढ़ा सके हैं। अब हिन्दू आतंकवाद का नाम लेकर वे इस तराजू को बराबर करना चाहते हैं। उनका यह षड्यन्त्र हर बार की तरह इस बार भी विफल होगा।



इतिहास इस बात का साक्षी है कि संघ हर चोट के बाद पहले से अधिक सबल हुआ है। 1948, 1975 और 1992 का उदाहरण बहुत पुराना नहीं है। यदि कांग्रेस फिर संघ वालों को आजमाना चाहे, तो उसका स्वागत है।



हमने चिराग रख दिया तूफां के सामने



पीछे हटेगा इश्क किसी इम्तहां से क्या ?
भारत में स्वाधीनता के बाद भी अंग्रेजी कानून और मानसिकता जारी है। इसीलिए इस्लामी आतंकवाद के सामने हिन्दू आतंकवाद का शिगूफा कुछ कांग्रेसी नेता छेड़ रहे हैं। इसकी आड़ में वे उन हिन्दू संगठनों को लपेटने के चक्कर में हैं, जिनकी देशभक्ति तथा सेवा भावना पर विरोधी भी संदेह नहीं करते। किसी समय इस झूठ मंडली की नेता सुभद्रा जोशी हुआ करती थीं; पर अब लगता है इसका भार बेरोजगार दिग्विजय सिंह ने उठा लिया है।




ये लोग हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबेल्स के चेले हैं। उसके दो सिद्धांत थे। एक – किसी भी झूठ को सौ बार बोलने से वह सच हो जाता है। दो – यदि झूठ ही बोलना है, तो सौ गुना बड़ा बोलो। इससे सबको लगेगा कि बात भले ही पूरी सच न हो; पर कुछ है जरूर। इसी सिद्धांत पर दिग्विजय सिंह अजमेर, हैदराबाद, मालेगांव या गोवा आदि के बम विस्फोटों के तार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल आदि से जोड़ रहे हैं। इसके लिए उन्होंने तथा उनकी सेक्यूलर मंडली ने ‘हिन्दू आतंकवाद’ नामक शब्द खोजा है। उन्हें लगता है कि दुनिया भर में फैल रहे इस्लामी आतंकवाद के सामने इसे खड़ाकर भारत में मुसलमान वोटों की फसल काटी जा सकती है। और इस समय कांग्रेस का सबसे प्रमुख एजेंडा यही है। सच्चर, रंगनाथ मिश्र, सगीर अहमद रिपोर्टों की कवायद के बाद यह उनका अगला कदम है।



सच तो यह है कि हिन्दू कभी आतंकवादी हो ही नहीं सकता। आतंकवाद का हिन्दुओं के संस्कार और व्यवहार से कोई तालमेल नहीं है। वैदिक, रामायण या महाभारत काल में ऐसे लोगों को असुर या राक्षस कहते थे। वे निरपराध लोगों को मारते थे, उन्हें गुलाम बनाते थे। इसे ही साहित्य की भाषा में कह दिया गया कि वे लोगों को खा लेते थे; पर वर्तमान आतंकवादी उनसे भी बढ़कर हैं। ये विधर्मियों को ही नहीं, स्वधर्मियों और स्वयं को भी मार देते हैं। आत्मघाती हमले लिट्टे और प्रभाकरण की देन हैं। प्रभाकरण ईसाई था, यह सबको पता है। इन दिनों हो रहे अधिकांश हमले आत्मघाती हैं, जिनमें हर धर्म, वर्ग और आयु के लोग मर रहे हैं। स्पष्ट है कि यह आतंक उस राक्षसी आतंक से भिन्न है।



वस्तुतः हिन्दू चिंतन में आतंक नाम की चीज ही नहीं है। वहां तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की भावना और भोजन से पूर्व गाय, कुत्ते और कौए के लिए भी अंश निकालने का प्रावधान है। ‘अतिथि देवो भव’ का सूत्र को तो शासन ने भी अपना लिया है। अपनी रोटी खाना प्रकृति, दूसरे की रोटी खाना विकृति और अपनी रोटी दूसरे को खिला देना संस्कृति है। यह संस्कृति हर हिन्दू के स्वभाव में है। ऐसे लोग आतंकवादी नहीं हो सकते; पर मुसलमान वोटों के लिए एक-दो दुर्घटनाओं के बाद कुछ सिरफिरों को पकड़कर उसे हिन्दू आतंकवाद नाम दिया जा रहा है। यह ब्रिटिश सरकार की ‘इम्पीरियल पुलिस’ जैसा व्यवहार है, जिसमें कहीं भी झगड़ा या दंगा होने पर दोनों ओर के लोगों को पकड़ लिया जाता था।



दिग्विजय सिंह संघ या विश्व हिन्दू परिषद की कार्यप्रणाली को न समझते हों, यह असभंव है। वे लश्कर, सिमी या हजारों नामों से काम करने वाले इन आतंकी गिरोहों को न जानते हों, यह भी असंभव है; पर आखों पर जब काला चश्मा लगा हो, तो फिर सब काला दिखेगा ही।



संघ को समझने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं होती। देश भर में हर दिन सुबह-शाम संघ की लगभग 50,000 शाखाएं सार्वजनिक स्थानों पर लगती हैं। इनमें से किसी में भी जाकर या उसे देखकर संघ को समझ सकते हैं। शाखा में प्रारम्भ के 40 मिनट शारीरिक कार्यक्रम होते हैं। बुजुर्ग लोग आसन करते हैं, तो नवयुवक और बालक खेल व व्यायाम। इसके बाद वे कोई देशभक्ति पूर्ण गीत बोलते हैं। किसी महामानव के जीवन का कोई प्रसंग स्मरण करते हैं और फिर भगवा ध्वज के सामने पंक्तियों में खड़े होकर भारत माता की वंदना के साथ एक घंटे की शाखा सम्पन्न हो जाती है।



मई-जून मास में देश भर में संघ के एक सप्ताह से 30 दिन तक के प्रशिक्षण वर्ग होते हैं। प्रत्येक में 100 से लेकर 1,000 तक शिक्षार्थी भाग लेते हैं। इन्हें प्राथमिक शिक्षा वर्ग तथा संघ शिक्षा वर्ग कहते हैं। इनमें औसत 50,000 युवक प्रतिवर्ष सहभागी होते हैं। इनके समापन कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में जनता तथा पत्रकार आते हैं। प्रतिदिन समाज के प्रबुद्ध एवं प्रभावी लोगों को बुलाकर संघ की कार्यपद्धति को निकट से देखने का अवसर दिया जाता है। आज तक किसी शिक्षार्थी, शिक्षक या नागरिक ने नहीं कहा कि उसे इन शिविरों में हिंसक गतिविधि दिखाई दी है।



एक मजेदार बात यह भी है कि संघ पर आतंकवादी होने का आरोप लगाने वाले लोग पहले संघ वालों की लाठी को देखकर हंसते थे। वे कहते थे कि इससे ए.के.47 का सामना कैसे होगा; पर अब उन्हें वही लाठी खतरनाक लग रही है।



संघ के स्वयंसेवक देश में हजारों संगठन तथा संस्थाएं चलाते हैं। इनके प्रशिक्षण वर्ग भी वर्ष भर चलते रहते हैं। इनमें भी लाखों लोग भाग ले चुके हैं। विश्व हिन्दू परिषद वाले सत्संग और सेवा कार्यों का प्रशिक्षण देते हैं। बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी वाले नियुद्ध (जूडो, कराटे) तथा एयर गन से निशानेबाजी भी सिखाते हैं। इससे मन में साहस का संचार होकर आत्मविश्वास बढ़ता है। इन शिविरों के समापन कार्यक्रम भी सार्वजनिक होते हैं। संघ और संघ प्रेरित संगठनों का व्यापक साहित्य प्रायः हर बड़े नगर के कार्यालय पर उपलब्ध है। अब तक हजारों पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं तथा करोड़ों पुस्तकें बिकी होंगी। किसी पाठक ने यह नहीं कहा कि उसे इस पुस्तक में से हिंसा की गंध आती है।



संघ प्रेरित संस्थाओं की अर्थ व्यवस्था भी खुली होती है। वे समाज से पैसा लेते हैं तथा प्रतिवर्ष उसका अंकेक्षण किया जाता है। सच तो यह है कि जिस व्यक्ति, संस्था या संगठन का व्यापक उद्देश्य हो, जिसे हर जाति, वर्ग, अवस्था और आर्थिक स्थिति वाले, नगर और ग्राम के लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ना हो, वह हिंसक हो ही नहीं सकता। हिंसावादी होने के लिए गुप्तता अनिवार्य है और संघ का सारा काम खुला, सार्वजनिक और संविधान की मर्यादा में होता है। संघ पर 1947 के बाद तीन बार प्रतिबंध लग चुका है। उस समय कार्यालय पुलिस के कब्जे में थे। तब भी उन्हें वहां से कोई आपत्तिजनक सामग्री नहीं मिली।



दूसरी ओर आतंकी गिरोह गुप्त रूप से काम करते हैं। वे इस्लामी हों या ईसाई, नक्सली हों या माओवादी; सब भूमिगत रहकर काम करते हैं। उनके पर्चे किसी बम विस्फोट या नरसंहार के बाद ही मिलते हैं। उनके प्रशिक्षण शिविर पुलिस, प्रशासन या जनता की नजरों से दूर घने जंगलों में होते हैं। ये गिरोह जनता, व्यापारी तथा सरकारी अधिकारियों से जबरन धन वसूली करते हैं। न देने वाले की हत्या इनके बायें हाथ का खेल है। ऐसे सब गिरोहों को बड़ी मात्रा में विदेशों से भी धन तथा हथियार मिलते हैं।



पिछले दिनों अजमेर, मालेगांव, गोवा या हैदराबाद जैसी कुछ घटनाएं प्रकाश में आयी हैं। यद्यपि अभी इनकी जांच चल रही है और सत्य कब तक सामने आयेगा, कहना कठिन है। इनके साथ ‘अभिनव भारत’ या ‘सनातन’ जैसी संस्थाओं का नाम आ रहा है। इनका संघ या विश्व हिन्दू परिषद से कोई संबंध नहीं है। यदि कुछ लोग इन घटनाओं में पकड़ में आये हैं, जो संघ के कार्यकर्ता रहे हैं, उनसे पूछताछ में ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह निन्दनीय कार्य उन्होंने अपनी इच्छा से किया होगा। इसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं, संघ नहीं। क्योंकि संघ कभी किसी हिंसक कार्य का समर्थन नहीं करता।



संघ का जन्म हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए हुआ है। और हिंसा से विघटन पैदा होता है, संगठन नहीं। संघ मुस्लिम और ईसाई तुष्टीकरण का विरोधी है। वह उस मनोवृति का भी विरोधी है, जिसने देश को बंाटा और अब अगले बंटवारे के षड्यन्त्र रच रहे हैं। इसके बाद भी संघ का हिंसा में विश्वास नहीं है। वह मुसलमान तथा ईसाइयों में से भी अच्छे लोगों को खोज रहा है। संघ किसी को अछूत नहीं मानता। उसे सबके बीच काम करना है और सबको जोड़ना है। ऐसे में वह किसी वर्ग, मजहब या पंथ के सब लोगों के प्रति विद्वेष रखकर नहीं चल सकता।



इसलिए हिन्दू आतंकवाद या उससे संघ परिवार के संगठनों को जोड़ना केवल और केवल एक षड्यन्त्र है। यह खिसियानी बिल्ली के खंभा नोचने का प्रयास मात्र है। दिग्विजय सिंह हों या उनकी महारानी, वे आज तक किसी इस्लामी आतंकवादी को फांसी नहीं चढ़ा सके हैं। अब हिन्दू आतंकवाद का नाम लेकर वे इस तराजू को बराबर करना चाहते हैं। उनका यह षड्यन्त्र हर बार की तरह इस बार भी विफल होगा।



इतिहास इस बात का साक्षी है कि संघ हर चोट के बाद पहले से अधिक सबल हुआ है। 1948, 1975 और 1992 का उदाहरण बहुत पुराना नहीं है। यदि कांग्रेस फिर संघ वालों को आजमाना चाहे, तो उसका स्वागत है।



हमने चिराग रख दिया तूफां के सामने



पीछे हटेगा इश्क किसी इम्तहां से क्या ?
भारत में स्वाधीनता के बाद भी अंग्रेजी कानून और मानसिकता जारी है। इसीलिए इस्लामी आतंकवाद के सामने हिन्दू आतंकवाद का शिगूफा कुछ कांग्रेसी नेता छेड़ रहे हैं। इसकी आड़ में वे उन हिन्दू संगठनों को लपेटने के चक्कर में हैं, जिनकी देशभक्ति तथा सेवा भावना पर विरोधी भी संदेह नहीं करते। किसी समय इस झूठ मंडली की नेता सुभद्रा जोशी हुआ करती थीं; पर अब लगता है इसका भार बेरोजगार दिग्विजय सिंह ने उठा लिया है।




ये लोग हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबेल्स के चेले हैं। उसके दो सिद्धांत थे। एक – किसी भी झूठ को सौ बार बोलने से वह सच हो जाता है। दो – यदि झूठ ही बोलना है, तो सौ गुना बड़ा बोलो। इससे सबको लगेगा कि बात भले ही पूरी सच न हो; पर कुछ है जरूर। इसी सिद्धांत पर दिग्विजय सिंह अजमेर, हैदराबाद, मालेगांव या गोवा आदि के बम विस्फोटों के तार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल आदि से जोड़ रहे हैं। इसके लिए उन्होंने तथा उनकी सेक्यूलर मंडली ने ‘हिन्दू आतंकवाद’ नामक शब्द खोजा है। उन्हें लगता है कि दुनिया भर में फैल रहे इस्लामी आतंकवाद के सामने इसे खड़ाकर भारत में मुसलमान वोटों की फसल काटी जा सकती है। और इस समय कांग्रेस का सबसे प्रमुख एजेंडा यही है। सच्चर, रंगनाथ मिश्र, सगीर अहमद रिपोर्टों की कवायद के बाद यह उनका अगला कदम है।



सच तो यह है कि हिन्दू कभी आतंकवादी हो ही नहीं सकता। आतंकवाद का हिन्दुओं के संस्कार और व्यवहार से कोई तालमेल नहीं है। वैदिक, रामायण या महाभारत काल में ऐसे लोगों को असुर या राक्षस कहते थे। वे निरपराध लोगों को मारते थे, उन्हें गुलाम बनाते थे। इसे ही साहित्य की भाषा में कह दिया गया कि वे लोगों को खा लेते थे; पर वर्तमान आतंकवादी उनसे भी बढ़कर हैं। ये विधर्मियों को ही नहीं, स्वधर्मियों और स्वयं को भी मार देते हैं। आत्मघाती हमले लिट्टे और प्रभाकरण की देन हैं। प्रभाकरण ईसाई था, यह सबको पता है। इन दिनों हो रहे अधिकांश हमले आत्मघाती हैं, जिनमें हर धर्म, वर्ग और आयु के लोग मर रहे हैं। स्पष्ट है कि यह आतंक उस राक्षसी आतंक से भिन्न है।



वस्तुतः हिन्दू चिंतन में आतंक नाम की चीज ही नहीं है। वहां तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की भावना और भोजन से पूर्व गाय, कुत्ते और कौए के लिए भी अंश निकालने का प्रावधान है। ‘अतिथि देवो भव’ का सूत्र को तो शासन ने भी अपना लिया है। अपनी रोटी खाना प्रकृति, दूसरे की रोटी खाना विकृति और अपनी रोटी दूसरे को खिला देना संस्कृति है। यह संस्कृति हर हिन्दू के स्वभाव में है। ऐसे लोग आतंकवादी नहीं हो सकते; पर मुसलमान वोटों के लिए एक-दो दुर्घटनाओं के बाद कुछ सिरफिरों को पकड़कर उसे हिन्दू आतंकवाद नाम दिया जा रहा है। यह ब्रिटिश सरकार की ‘इम्पीरियल पुलिस’ जैसा व्यवहार है, जिसमें कहीं भी झगड़ा या दंगा होने पर दोनों ओर के लोगों को पकड़ लिया जाता था।



दिग्विजय सिंह संघ या विश्व हिन्दू परिषद की कार्यप्रणाली को न समझते हों, यह असभंव है। वे लश्कर, सिमी या हजारों नामों से काम करने वाले इन आतंकी गिरोहों को न जानते हों, यह भी असंभव है; पर आखों पर जब काला चश्मा लगा हो, तो फिर सब काला दिखेगा ही।



संघ को समझने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं होती। देश भर में हर दिन सुबह-शाम संघ की लगभग 50,000 शाखाएं सार्वजनिक स्थानों पर लगती हैं। इनमें से किसी में भी जाकर या उसे देखकर संघ को समझ सकते हैं। शाखा में प्रारम्भ के 40 मिनट शारीरिक कार्यक्रम होते हैं। बुजुर्ग लोग आसन करते हैं, तो नवयुवक और बालक खेल व व्यायाम। इसके बाद वे कोई देशभक्ति पूर्ण गीत बोलते हैं। किसी महामानव के जीवन का कोई प्रसंग स्मरण करते हैं और फिर भगवा ध्वज के सामने पंक्तियों में खड़े होकर भारत माता की वंदना के साथ एक घंटे की शाखा सम्पन्न हो जाती है।



मई-जून मास में देश भर में संघ के एक सप्ताह से 30 दिन तक के प्रशिक्षण वर्ग होते हैं। प्रत्येक में 100 से लेकर 1,000 तक शिक्षार्थी भाग लेते हैं। इन्हें प्राथमिक शिक्षा वर्ग तथा संघ शिक्षा वर्ग कहते हैं। इनमें औसत 50,000 युवक प्रतिवर्ष सहभागी होते हैं। इनके समापन कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में जनता तथा पत्रकार आते हैं। प्रतिदिन समाज के प्रबुद्ध एवं प्रभावी लोगों को बुलाकर संघ की कार्यपद्धति को निकट से देखने का अवसर दिया जाता है। आज तक किसी शिक्षार्थी, शिक्षक या नागरिक ने नहीं कहा कि उसे इन शिविरों में हिंसक गतिविधि दिखाई दी है।



एक मजेदार बात यह भी है कि संघ पर आतंकवादी होने का आरोप लगाने वाले लोग पहले संघ वालों की लाठी को देखकर हंसते थे। वे कहते थे कि इससे ए.के.47 का सामना कैसे होगा; पर अब उन्हें वही लाठी खतरनाक लग रही है।



संघ के स्वयंसेवक देश में हजारों संगठन तथा संस्थाएं चलाते हैं। इनके प्रशिक्षण वर्ग भी वर्ष भर चलते रहते हैं। इनमें भी लाखों लोग भाग ले चुके हैं। विश्व हिन्दू परिषद वाले सत्संग और सेवा कार्यों का प्रशिक्षण देते हैं। बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी वाले नियुद्ध (जूडो, कराटे) तथा एयर गन से निशानेबाजी भी सिखाते हैं। इससे मन में साहस का संचार होकर आत्मविश्वास बढ़ता है। इन शिविरों के समापन कार्यक्रम भी सार्वजनिक होते हैं। संघ और संघ प्रेरित संगठनों का व्यापक साहित्य प्रायः हर बड़े नगर के कार्यालय पर उपलब्ध है। अब तक हजारों पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं तथा करोड़ों पुस्तकें बिकी होंगी। किसी पाठक ने यह नहीं कहा कि उसे इस पुस्तक में से हिंसा की गंध आती है।



संघ प्रेरित संस्थाओं की अर्थ व्यवस्था भी खुली होती है। वे समाज से पैसा लेते हैं तथा प्रतिवर्ष उसका अंकेक्षण किया जाता है। सच तो यह है कि जिस व्यक्ति, संस्था या संगठन का व्यापक उद्देश्य हो, जिसे हर जाति, वर्ग, अवस्था और आर्थिक स्थिति वाले, नगर और ग्राम के लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ना हो, वह हिंसक हो ही नहीं सकता। हिंसावादी होने के लिए गुप्तता अनिवार्य है और संघ का सारा काम खुला, सार्वजनिक और संविधान की मर्यादा में होता है। संघ पर 1947 के बाद तीन बार प्रतिबंध लग चुका है। उस समय कार्यालय पुलिस के कब्जे में थे। तब भी उन्हें वहां से कोई आपत्तिजनक सामग्री नहीं मिली।



दूसरी ओर आतंकी गिरोह गुप्त रूप से काम करते हैं। वे इस्लामी हों या ईसाई, नक्सली हों या माओवादी; सब भूमिगत रहकर काम करते हैं। उनके पर्चे किसी बम विस्फोट या नरसंहार के बाद ही मिलते हैं। उनके प्रशिक्षण शिविर पुलिस, प्रशासन या जनता की नजरों से दूर घने जंगलों में होते हैं। ये गिरोह जनता, व्यापारी तथा सरकारी अधिकारियों से जबरन धन वसूली करते हैं। न देने वाले की हत्या इनके बायें हाथ का खेल है। ऐसे सब गिरोहों को बड़ी मात्रा में विदेशों से भी धन तथा हथियार मिलते हैं।



पिछले दिनों अजमेर, मालेगांव, गोवा या हैदराबाद जैसी कुछ घटनाएं प्रकाश में आयी हैं। यद्यपि अभी इनकी जांच चल रही है और सत्य कब तक सामने आयेगा, कहना कठिन है। इनके साथ ‘अभिनव भारत’ या ‘सनातन’ जैसी संस्थाओं का नाम आ रहा है। इनका संघ या विश्व हिन्दू परिषद से कोई संबंध नहीं है। यदि कुछ लोग इन घटनाओं में पकड़ में आये हैं, जो संघ के कार्यकर्ता रहे हैं, उनसे पूछताछ में ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह निन्दनीय कार्य उन्होंने अपनी इच्छा से किया होगा। इसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं, संघ नहीं। क्योंकि संघ कभी किसी हिंसक कार्य का समर्थन नहीं करता।



संघ का जन्म हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए हुआ है। और हिंसा से विघटन पैदा होता है, संगठन नहीं। संघ मुस्लिम और ईसाई तुष्टीकरण का विरोधी है। वह उस मनोवृति का भी विरोधी है, जिसने देश को बंाटा और अब अगले बंटवारे के षड्यन्त्र रच रहे हैं। इसके बाद भी संघ का हिंसा में विश्वास नहीं है। वह मुसलमान तथा ईसाइयों में से भी अच्छे लोगों को खोज रहा है। संघ किसी को अछूत नहीं मानता। उसे सबके बीच काम करना है और सबको जोड़ना है। ऐसे में वह किसी वर्ग, मजहब या पंथ के सब लोगों के प्रति विद्वेष रखकर नहीं चल सकता।



इसलिए हिन्दू आतंकवाद या उससे संघ परिवार के संगठनों को जोड़ना केवल और केवल एक षड्यन्त्र है। यह खिसियानी बिल्ली के खंभा नोचने का प्रयास मात्र है। दिग्विजय सिंह हों या उनकी महारानी, वे आज तक किसी इस्लामी आतंकवादी को फांसी नहीं चढ़ा सके हैं। अब हिन्दू आतंकवाद का नाम लेकर वे इस तराजू को बराबर करना चाहते हैं। उनका यह षड्यन्त्र हर बार की तरह इस बार भी विफल होगा।



इतिहास इस बात का साक्षी है कि संघ हर चोट के बाद पहले से अधिक सबल हुआ है। 1948, 1975 और 1992 का उदाहरण बहुत पुराना नहीं है। यदि कांग्रेस फिर संघ वालों को आजमाना चाहे, तो उसका स्वागत है।



हमने चिराग रख दिया तूफां के सामने



पीछे हटेगा इश्क किसी इम्तहां से क्या ?
भारत में स्वाधीनता के बाद भी अंग्रेजी कानून और मानसिकता जारी है। इसीलिए इस्लामी आतंकवाद के सामने हिन्दू आतंकवाद का शिगूफा कुछ कांग्रेसी नेता छेड़ रहे हैं। इसकी आड़ में वे उन हिन्दू संगठनों को लपेटने के चक्कर में हैं, जिनकी देशभक्ति तथा सेवा भावना पर विरोधी भी संदेह नहीं करते। किसी समय इस झूठ मंडली की नेता सुभद्रा जोशी हुआ करती थीं; पर अब लगता है इसका भार बेरोजगार दिग्विजय सिंह ने उठा लिया है।




ये लोग हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबेल्स के चेले हैं। उसके दो सिद्धांत थे। एक – किसी भी झूठ को सौ बार बोलने से वह सच हो जाता है। दो – यदि झूठ ही बोलना है, तो सौ गुना बड़ा बोलो। इससे सबको लगेगा कि बात भले ही पूरी सच न हो; पर कुछ है जरूर। इसी सिद्धांत पर दिग्विजय सिंह अजमेर, हैदराबाद, मालेगांव या गोवा आदि के बम विस्फोटों के तार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल आदि से जोड़ रहे हैं। इसके लिए उन्होंने तथा उनकी सेक्यूलर मंडली ने ‘हिन्दू आतंकवाद’ नामक शब्द खोजा है। उन्हें लगता है कि दुनिया भर में फैल रहे इस्लामी आतंकवाद के सामने इसे खड़ाकर भारत में मुसलमान वोटों की फसल काटी जा सकती है। और इस समय कांग्रेस का सबसे प्रमुख एजेंडा यही है। सच्चर, रंगनाथ मिश्र, सगीर अहमद रिपोर्टों की कवायद के बाद यह उनका अगला कदम है।



सच तो यह है कि हिन्दू कभी आतंकवादी हो ही नहीं सकता। आतंकवाद का हिन्दुओं के संस्कार और व्यवहार से कोई तालमेल नहीं है। वैदिक, रामायण या महाभारत काल में ऐसे लोगों को असुर या राक्षस कहते थे। वे निरपराध लोगों को मारते थे, उन्हें गुलाम बनाते थे। इसे ही साहित्य की भाषा में कह दिया गया कि वे लोगों को खा लेते थे; पर वर्तमान आतंकवादी उनसे भी बढ़कर हैं। ये विधर्मियों को ही नहीं, स्वधर्मियों और स्वयं को भी मार देते हैं। आत्मघाती हमले लिट्टे और प्रभाकरण की देन हैं। प्रभाकरण ईसाई था, यह सबको पता है। इन दिनों हो रहे अधिकांश हमले आत्मघाती हैं, जिनमें हर धर्म, वर्ग और आयु के लोग मर रहे हैं। स्पष्ट है कि यह आतंक उस राक्षसी आतंक से भिन्न है।



वस्तुतः हिन्दू चिंतन में आतंक नाम की चीज ही नहीं है। वहां तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की भावना और भोजन से पूर्व गाय, कुत्ते और कौए के लिए भी अंश निकालने का प्रावधान है। ‘अतिथि देवो भव’ का सूत्र को तो शासन ने भी अपना लिया है। अपनी रोटी खाना प्रकृति, दूसरे की रोटी खाना विकृति और अपनी रोटी दूसरे को खिला देना संस्कृति है। यह संस्कृति हर हिन्दू के स्वभाव में है। ऐसे लोग आतंकवादी नहीं हो सकते; पर मुसलमान वोटों के लिए एक-दो दुर्घटनाओं के बाद कुछ सिरफिरों को पकड़कर उसे हिन्दू आतंकवाद नाम दिया जा रहा है। यह ब्रिटिश सरकार की ‘इम्पीरियल पुलिस’ जैसा व्यवहार है, जिसमें कहीं भी झगड़ा या दंगा होने पर दोनों ओर के लोगों को पकड़ लिया जाता था।



दिग्विजय सिंह संघ या विश्व हिन्दू परिषद की कार्यप्रणाली को न समझते हों, यह असभंव है। वे लश्कर, सिमी या हजारों नामों से काम करने वाले इन आतंकी गिरोहों को न जानते हों, यह भी असंभव है; पर आखों पर जब काला चश्मा लगा हो, तो फिर सब काला दिखेगा ही।



संघ को समझने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं होती। देश भर में हर दिन सुबह-शाम संघ की लगभग 50,000 शाखाएं सार्वजनिक स्थानों पर लगती हैं। इनमें से किसी में भी जाकर या उसे देखकर संघ को समझ सकते हैं। शाखा में प्रारम्भ के 40 मिनट शारीरिक कार्यक्रम होते हैं। बुजुर्ग लोग आसन करते हैं, तो नवयुवक और बालक खेल व व्यायाम। इसके बाद वे कोई देशभक्ति पूर्ण गीत बोलते हैं। किसी महामानव के जीवन का कोई प्रसंग स्मरण करते हैं और फिर भगवा ध्वज के सामने पंक्तियों में खड़े होकर भारत माता की वंदना के साथ एक घंटे की शाखा सम्पन्न हो जाती है।



मई-जून मास में देश भर में संघ के एक सप्ताह से 30 दिन तक के प्रशिक्षण वर्ग होते हैं। प्रत्येक में 100 से लेकर 1,000 तक शिक्षार्थी भाग लेते हैं। इन्हें प्राथमिक शिक्षा वर्ग तथा संघ शिक्षा वर्ग कहते हैं। इनमें औसत 50,000 युवक प्रतिवर्ष सहभागी होते हैं। इनके समापन कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में जनता तथा पत्रकार आते हैं। प्रतिदिन समाज के प्रबुद्ध एवं प्रभावी लोगों को बुलाकर संघ की कार्यपद्धति को निकट से देखने का अवसर दिया जाता है। आज तक किसी शिक्षार्थी, शिक्षक या नागरिक ने नहीं कहा कि उसे इन शिविरों में हिंसक गतिविधि दिखाई दी है।



एक मजेदार बात यह भी है कि संघ पर आतंकवादी होने का आरोप लगाने वाले लोग पहले संघ वालों की लाठी को देखकर हंसते थे। वे कहते थे कि इससे ए.के.47 का सामना कैसे होगा; पर अब उन्हें वही लाठी खतरनाक लग रही है।



संघ के स्वयंसेवक देश में हजारों संगठन तथा संस्थाएं चलाते हैं। इनके प्रशिक्षण वर्ग भी वर्ष भर चलते रहते हैं। इनमें भी लाखों लोग भाग ले चुके हैं। विश्व हिन्दू परिषद वाले सत्संग और सेवा कार्यों का प्रशिक्षण देते हैं। बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी वाले नियुद्ध (जूडो, कराटे) तथा एयर गन से निशानेबाजी भी सिखाते हैं। इससे मन में साहस का संचार होकर आत्मविश्वास बढ़ता है। इन शिविरों के समापन कार्यक्रम भी सार्वजनिक होते हैं। संघ और संघ प्रेरित संगठनों का व्यापक साहित्य प्रायः हर बड़े नगर के कार्यालय पर उपलब्ध है। अब तक हजारों पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं तथा करोड़ों पुस्तकें बिकी होंगी। किसी पाठक ने यह नहीं कहा कि उसे इस पुस्तक में से हिंसा की गंध आती है।



संघ प्रेरित संस्थाओं की अर्थ व्यवस्था भी खुली होती है। वे समाज से पैसा लेते हैं तथा प्रतिवर्ष उसका अंकेक्षण किया जाता है। सच तो यह है कि जिस व्यक्ति, संस्था या संगठन का व्यापक उद्देश्य हो, जिसे हर जाति, वर्ग, अवस्था और आर्थिक स्थिति वाले, नगर और ग्राम के लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ना हो, वह हिंसक हो ही नहीं सकता। हिंसावादी होने के लिए गुप्तता अनिवार्य है और संघ का सारा काम खुला, सार्वजनिक और संविधान की मर्यादा में होता है। संघ पर 1947 के बाद तीन बार प्रतिबंध लग चुका है। उस समय कार्यालय पुलिस के कब्जे में थे। तब भी उन्हें वहां से कोई आपत्तिजनक सामग्री नहीं मिली।



दूसरी ओर आतंकी गिरोह गुप्त रूप से काम करते हैं। वे इस्लामी हों या ईसाई, नक्सली हों या माओवादी; सब भूमिगत रहकर काम करते हैं। उनके पर्चे किसी बम विस्फोट या नरसंहार के बाद ही मिलते हैं। उनके प्रशिक्षण शिविर पुलिस, प्रशासन या जनता की नजरों से दूर घने जंगलों में होते हैं। ये गिरोह जनता, व्यापारी तथा सरकारी अधिकारियों से जबरन धन वसूली करते हैं। न देने वाले की हत्या इनके बायें हाथ का खेल है। ऐसे सब गिरोहों को बड़ी मात्रा में विदेशों से भी धन तथा हथियार मिलते हैं।



पिछले दिनों अजमेर, मालेगांव, गोवा या हैदराबाद जैसी कुछ घटनाएं प्रकाश में आयी हैं। यद्यपि अभी इनकी जांच चल रही है और सत्य कब तक सामने आयेगा, कहना कठिन है। इनके साथ ‘अभिनव भारत’ या ‘सनातन’ जैसी संस्थाओं का नाम आ रहा है। इनका संघ या विश्व हिन्दू परिषद से कोई संबंध नहीं है। यदि कुछ लोग इन घटनाओं में पकड़ में आये हैं, जो संघ के कार्यकर्ता रहे हैं, उनसे पूछताछ में ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह निन्दनीय कार्य उन्होंने अपनी इच्छा से किया होगा। इसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं, संघ नहीं। क्योंकि संघ कभी किसी हिंसक कार्य का समर्थन नहीं करता।



संघ का जन्म हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए हुआ है। और हिंसा से विघटन पैदा होता है, संगठन नहीं। संघ मुस्लिम और ईसाई तुष्टीकरण का विरोधी है। वह उस मनोवृति का भी विरोधी है, जिसने देश को बंाटा और अब अगले बंटवारे के षड्यन्त्र रच रहे हैं। इसके बाद भी संघ का हिंसा में विश्वास नहीं है। वह मुसलमान तथा ईसाइयों में से भी अच्छे लोगों को खोज रहा है। संघ किसी को अछूत नहीं मानता। उसे सबके बीच काम करना है और सबको जोड़ना है। ऐसे में वह किसी वर्ग, मजहब या पंथ के सब लोगों के प्रति विद्वेष रखकर नहीं चल सकता।



इसलिए हिन्दू आतंकवाद या उससे संघ परिवार के संगठनों को जोड़ना केवल और केवल एक षड्यन्त्र है। यह खिसियानी बिल्ली के खंभा नोचने का प्रयास मात्र है। दिग्विजय सिंह हों या उनकी महारानी, वे आज तक किसी इस्लामी आतंकवादी को फांसी नहीं चढ़ा सके हैं। अब हिन्दू आतंकवाद का नाम लेकर वे इस तराजू को बराबर करना चाहते हैं। उनका यह षड्यन्त्र हर बार की तरह इस बार भी विफल होगा।



इतिहास इस बात का साक्षी है कि संघ हर चोट के बाद पहले से अधिक सबल हुआ है। 1948, 1975 और 1992 का उदाहरण बहुत पुराना नहीं है। यदि कांग्रेस फिर संघ वालों को आजमाना चाहे, तो उसका स्वागत है।



हमने चिराग रख दिया तूफां के सामने



पीछे हटेगा इश्क किसी इम्तहां से क्या ?
6अप्रैल 2010- नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में मकराना के जंगलों में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की एक टुकड़ी पर हमला किया, 76 जवान शहीद।

तारीख: 8 मई 2010- बीजापुर जिले में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के बुलेट प्रूफ वाहन को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया, 7 जवानों की मौत हो गई। तारीख : 16 मई 2010-राजनांदगांव के तेरेगांव के नजदीक नक्सलियों ने मुखबिरी के आरोप में सरपंच सहित छह ग्रामीणों को मौत के घाट उतार दिया।

तारीख: 17 मई 2010- सुकमा से दंतेवाड़ा जा रही एक यात्री बस को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया। इस हमले में 50 यात्रियों की मौत हो गई। मरने वालों में 20 विशेष पुलिस अधिकारी [एसपीओ] भी थे।

20 जून 2008- उड़ीसा के बालीमेला जलाशय में नक्सलियों ने एक नाव पर सवार चार विशेष पुलिस अधिकारियों व 60 ग्रेहाउंड कमांडो पर हमला किया। 38 जवान मारे गए।
16 जून 2008- उड़ीसा के मलकानगिरी जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर पुलिस वैन को उड़ गया। 21 पुलिसकर्मियों की मौत।

13 अप्रैल 2009- उड़ीसा के कोरापुट जिले में बाक्साइट की एक खान पर हमला। अ‌र्द्धसैनिक बल के 10 जवान शहीद।
22 मई 2009- महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के जंगल में 16 पुलिसकर्मियों की हत्या।





























































































10 जून 2009- झारखंड के सारंदा के जंगलों में नियमित पेट्रोलिंग के दौरान सुरक्षा बलों पर हम ला। नौ पुलिसकर्मी मारे गए, जिसमें सीआरपीएफ के जवान भी शामिल थे।











13 जून 2009-झारखंड में बोकारो के पास एक छोटे से कस्बे में बारूदी सुरंग की चपेट में आकर 10 पुलिसकर्मियों की मौत हो गई और कई घायल हो गए।











27 जुलाई 2009-छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर छह लोगों की हत्या।











26 सितंबर 2009- छत्तीसगढ़ के जगदलपुर जिले के परागुडा गांव में भाजपा सांसद बलिराम क श्यप के बेटे की हत्या कर दी।











8 अक्टूबर 2009-महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में पुलिस चौकी पर हमला। 17 पुलिसकर्मी मारे गए।











15 फरवरी 2010-पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर जिले के सिलदा में एक पुलिस कैंप पर हमला। इस्टर्न फ्रंटियर राइफल्स के 24 जवान शहीद।











4 अप्रैल 2010-उड़ीसा के कोराटपुर जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर नक्सल विरोधी विशेष बल के 11 जवानों की हत्या कर दी।











6 अप्रैल 2010-अब तक के सबसे बड़े नक्सली हमले में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में एक पुलिसकर्मी सहित सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद।











8 मई 2010-छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में नक्सलियों ने एक बुलेटप्रूफ वाहन उड़ाया। सीआरपीएफ के आठ जवान मारे गए।











16 मई 2010- राजनांदगांव के तेरेगांव के नजदीक नक्सलियों ने मुखबिरी के आरोप में सरपंच सहित छह ग्रामीणों को
हरियाणा प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक एसपीएस राठौर के द्वारा रूचिका गहरोत्रा के साथ की गई ज्यादती, रूचिका का काल कलवित होना और इंसाफ के लिए बीस साल तक रगडना, यह सब अभी लोगों की स्मृति से विस्मृत नहीं हुआ है, कि अचानक ही देश के हृदय प्रदेश के छतरपुर जिले में दो कोमलांगी बालाओं द्वारा पुलिस की अमानवीय बर्बरता के सामने घुटने टेककर आत्महत्या करने का दिल दहलाने वाला वाक्या सामने आया है।




एक ओर मध्य प्रदेश के निजाम शिवराज सिंह चौहान अपनी कमान वाले सूबे को स्वर्णिम प्रदेश बनाने के ताने बाने बुन रहें हैं, वहीं दूसरी और उनकी सरकार के ही खाकी वर्दी वाले नुमाईंदों द्वारा आवाम के साथ बर्बरता की नायाब पेशकश प्रस्तुत की जा रही है। शिवराज सिंह चौहान इस हादसे में यह कहकर अपना पल्ला झाडने का प्रयास कर रहे हैं कि रक्षक ही भक्षक बन गए हैं। मामले की जांच अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक स्तर के अधिकारी से करवाई जा रही है। इस मामले में छतरपुर के पुलिस अधीक्षक प्रेम सिंह बिष्ट ने ओरछा रोड थाना प्रभारी के.के.खनेजा सहित तीन को निलंबित कर दिया है।



दरअसल बिन मां की दो बच्चियों के पिता राजकुमार सिंह देश के नौनिहालों का भविष्य संवारने का काम करते हैं, वे पेशे से शिक्षक हैं। जब इनमें से एक अपने मित्र के साथ झांसी मार्ग से अपने घर लौट रही थी, तब ओरछा रोड थाने में पदस्थ सिपाही अरविंद पटेल और कन्हैया लाल ने उन्हेें धमकाया और जबरिया उस युवती को निर्वस्त्र कर अपने मोबाईल से उसके अश्लील वीडियो बना लिए। पीडिता ने इसकी शिकायत पुलिस अधीक्षक प्रेम सिंह बिष्ट से की, मगर नतीजा सिफर ही निकला।



शिव के राज में मध्य प्रदेश में भ्रष्टाचार और बेलगाम अफसरशाही के बेलगाम घोडे तो पहले से ही दौडते आ रहे हैं, अब रियाया की जान माल का जिम्मा संभालने वाली खाकी वर्दी पहनने वालों के हौसले इतने बुलंद हो गए हैं कि वे अबोध मासूम बालाओें की इज्जत पर सरेआम हाथ डालने का दुस्साहस भी करने लगे हैं। इनके इस तरह के दुष्कृत्य की अगर उच्चाधिकारियों से शिकायत की जाती है, तो उच्चाधिकारी दोषियों को इस शर्त पर निलंबित करते हैं कि अगर पीडिता अपनी शिकायत वापस ले लें तो उन पर कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी।



जाहिर है कि उच्चाधिकारियों के इस तरह के प्रश्रय का लाभ उठाकर आरोपियों द्वारा अपनी खाकी वर्दी का रौब तो गांठा ही जाएगा। फिर अगर हाथ में लट्ठ लिए सिपाही गर्जेगा तो बेचारी आम जनता तो चूहे की तरह बिलों में छिपने को मजबूर होगी ही। गौरतलब होगा कि अभी दो दिन पहले ही इंदौर के अन्नपूर्णा नगर थाने में प्रदेश की सरकारी और गैरसरकारी जमीनों की हेराफेरी के एक बहुत बडे आरोपी और भूमाफिया बॉबी छावडा को इंदौर पुलिस हवालात में एयर कंडीशनर की व्यवस्था के लिए चर्चित होती है, फिर दो दिन बाद ही छतरपुर में अबोध बालाओं को इहलीला समाप्त करने पर मजबूर कर देती है।



छतरपुर की यह घटना निश्चित तौर पर मध्य प्रदेश पुलिस के साथ ही साथ सूबे के निजाम शिवराज सिंह चौहान के माथे पर कभी न धुलने वाले कलंक के मानिंद ही माना जा सकता है। याद पडता है कि जैसे ही भारतीय जनता पार्टी ने मध्य प्रदेश में सत्ता संभाली थी, तभी सवर्ण और दलित के बीच हुई तकरार के चलते सिवनी जिले में भोमाटोला कांड घटित हुआ था, इसमें सर्वण समाज के दर्जनों लोगों ने सारे गांव के सामने एक अधेड दलित महिला और उसकी जवान बहू का बलात्कार किया था। इस मामले में दोषियों को सजा मिल चुकी है, पर यह कांड भाजपा के सत्ता में आने के साथ ही हुआ था।



इस मामले में बताया जाता है कि भोपाल में प्रशिक्षण ले रहे छतरपुर के पुलिस अधीक्षक ने प्रभारी पुलिस अधीक्षक एवं छतरपुर के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक को निर्देश दिए थे कि दोनों ही आरोपियों को निलंबित किया जाए। जैसे ही उपर से कार्यवाही के डंडे की आशंका हुई इन दोनों ही आरोपियों ने पीडिता के बयान लेने गए सहयोगी आरक्षक दिनेश सिंह और प्रवीण त्रिपाठी के माध्यम से दोनों ही बालाओं पर अपनी शिकायत वापस लेने दबाव बनाया। किसी भी अधिकारी ने यह जानने का प्रयास अब तक नहीं किया है कि महिलाओं के बयान लेने के लिए महिला पुलिस को ले जाना सिंह और त्रिपाठी ने उचित क्यों नहीं समझा।



छतरपुर की यह घटना प्रदेश के उस हर मां बाप की पेशानी पर चिंता की लकीरें उभार सकती है, जिनकी जवान बच्चियां हैं। खाकी वर्दी के गुरूर में कोई भी सरकारी नुमाईंदा किसी के साथ भी मनमानी कर सकता है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि मध्य प्रदेश सूबे में आज की तारीख में कानून और व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं बची है। प्रदेश में पूरी तरह जंगलराज कायम है। कहीं आम जनता पर जुल्म ढाया जा रहा है तो कहीं मीडिया के इस तरह की गफलतों के खिलाफ आवाज उठाने पर उनके खिलाफ दमनात्मक कार्यवाहियां की जा रहीं हैं। यह सब देख सुन कर भी सूबे के निजाम ‘‘नीरो‘‘ के मानिंद बांसुरी बजा रहे हैं।



रूचिका का मामला देश में मीडिया ने उछाला। जोर शोर से उछले मामले में भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी राठौर को सजा दिलवाने में बीस बरस का समय लग गया है। उस हिसाब से यह मामला तो बहुत छोटा ही है। आज प्रिंट मीडिया की यह सुर्खियां बना हुआ है, पर निहित स्वार्थ में उलझा मीडिया भी इस खबर को एकध सप्ताह में बीच के पन्नों में लाकर इसका दम तोड देगा। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को चेतना होगा। मीडिया को मध्य प्रदेश सरकार की तंद्रा तोडनी होगी। इस मामले में पुलिस अधीक्षक या प्रभारी पुलिस अधीक्षक को नैतिक जिम्मेदारी लेनी ही होगी, क्योंकि हर मामले में विभाग का प्रमुख ही जवाबदार होता है। सरकार को इस मामले में कठोर कदम उठाना ही होगा, अन्यथा आने वाले समय में शांत और सौम्य समझे जाने
M.F. Hussain एक महान चित्रकार है. चित्रकार कहुँ या कलाकार कहुँ. कलाकार है भई. कई तरह की कलाएँ जानते है. कैसे प्रसिद्धि पानी है. कैसे मार्केटिंग करनी है. तभी तो दिन दूनि रात चौगुनी प्रगति करके यहाँ तक पहुँचे है. उन्हे यह भी अच्छी तरह आता है कि कला के नाम पर बेवजह झमेला कैसे खडा करना चाहिए. यह तो और भी अच्छी तरह पता है कि ईस देश मे एक ही सम्प्रदाय ऐसा है जिसकी जितनी चाहे खिल्ली उडा लो कोई कुछ नही कहने वाला, क्योंकि देश धर्मनिरपेक्ष है. यानि Pro Muslim हो चलेगा पर Pro Hindu तो भूल कर भी नही हो सकते. अरे कही आप साम्प्रदायिक ना हो जाओ. तो ईन जैसे पेंटरो को शह मिल जाती है कि जो जी में आए बना डालो. क्या फर्क पडता है.


पहले इन्होने सिता को नग्न करके हनुमान की पूँछ पर बिठा दिया. थोडा शोर शराबा हुआ जो मुफ्त कि publicity मे रूपान्तरित हो गया. अब तो इन्होने हदें ही पार कर दी.

Thursday, May 20, 2010

6अप्रैल 2010- नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में मकराना के जंगलों में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की एक टुकड़ी पर हमला किया, 76 जवान शहीद।






तारीख: 8 मई 2010- बीजापुर जिले में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के बुलेट प्रूफ वाहन को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया, 7 जवानों की मौत हो गई। तारीख : 16 मई 2010-राजनांदगांव के तेरेगांव के नजदीक नक्सलियों ने मुखबिरी के आरोप में सरपंच सहित छह ग्रामीणों को मौत के घाट उतार दिया।





तारीख: 17 मई 2010- सुकमा से दंतेवाड़ा जा रही एक यात्री बस को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया। इस हमले में 50 यात्रियों की मौत हो गई। मरने वालों में 20 विशेष पुलिस अधिकारी [एसपीओ] भी थे।





प्रमुख नक्सली हमले

20 जून 2008- उड़ीसा के बालीमेला जलाशय में नक्सलियों ने एक नाव पर सवार चार विशेष पुलिस अधिकारियों व 60 ग्रेहाउंड कमांडो पर हमला किया। 38 जवान मारे गए।





16 जून 2008- उड़ीसा के मलकानगिरी जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर पुलिस वैन को उड़ गया। 21 पुलिसकर्मियों की मौत।





13 अप्रैल 2009- उड़ीसा के कोरापुट जिले में बाक्साइट की एक खान पर हमला। अ‌र्द्धसैनिक बल के 10 जवान शहीद।





22 मई 2009- महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के जंगल में 16 पुलिसकर्मियों की हत्या।





10 जून 2009- झारखंड के सारंदा के जंगलों में नियमित पेट्रोलिंग के दौरान सुरक्षा बलों पर हम ला। नौ पुलिसकर्मी मारे गए, जिसमें सीआरपीएफ के जवान भी शामिल थे।





13 जून 2009-झारखंड में बोकारो के पास एक छोटे से कस्बे में बारूदी सुरंग की चपेट में आकर 10 पुलिसकर्मियों की मौत हो गई और कई घायल हो गए।





27 जुलाई 2009-छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर छह लोगों की हत्या।





26 सितंबर 2009- छत्तीसगढ़ के जगदलपुर जिले के परागुडा गांव में भाजपा सांसद बलिराम क श्यप के बेटे की हत्या कर दी।





8 अक्टूबर 2009-महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में पुलिस चौकी पर हमला। 17 पुलिसकर्मी मारे गए।





15 फरवरी 2010-पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर जिले के सिलदा में एक पुलिस कैंप पर हमला। इस्टर्न फ्रंटियर राइफल्स के 24 जवान शहीद।





4 अप्रैल 2010-उड़ीसा के कोराटपुर जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर नक्सल विरोधी विशेष बल के 11 जवानों की हत्या कर दी।





6 अप्रैल 2010-अब तक के सबसे बड़े नक्सली हमले में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में एक पुलिसकर्मी सहित सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद।





8 मई 2010-छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में नक्सलियों ने एक बुलेटप्रूफ वाहन उड़ाया। सीआरपीएफ के आठ जवान मारे गए।





16 मई 2010- राजनांदगांव के तेरेगांव के नजदीक नक्सलियों ने मुखबिरी के आरोप में सरपंच सहित छह ग्रामीणों को मौत के घाट उतार दिया।

Wednesday, May 19, 2010

http://www.visfot.com/news_never_die/3468.html

उत्तर प्रदेश में बहुजन से सर्वजन की ओर जानें का दावा करनें वाली मायावती सरकार इस देश-प्रदेश के हिन्दुओं खासकर सवर्णों (हिन्दू देवी-देवताओं, हिन्दू धर्म ग्रन्थों) को बुरी तरह से अपमानित करनें का अभियान किस तरह चला रही है इसका प्रत्यक्ष नजारा देखना हो तो ‘अम्बेडकर टुडे’ पत्रिका का मई- 2010 का ताजा अंक देखिए जिसके संरक्षकों में मायावती मंत्रिमण्डल के चार-चार वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री शामिल हैं। इस पत्रिका के मई-2010 के अंक का दावा है कि- ‘हिन्दू धर्म’ मानव मूल्यों पर कलंक है, त्याज्य धर्म है, वेद- जंगली विधान है, पिशाच सिद्धान्त है, हिन्दू धर्म ग्रन्थ- धर्म शास्त्र- धर्म शास्त्र- धार्मिक आतंक है, हिन्दू धर्म व्यवस्था का जेलखाना है, रामायण- धार्मिक चिन्तन की जहरीली पोथी है, और सृष्टिकर्ता (ब्रह्या)- बेटी***(कन्यागामी) हैं तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी- दलितों का दुश्मन नम्बर-1 हैं।




उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में स्थित जौनपुर निश्चित रूप से सवर्ण बाहुल्य जनपद है। जौनपुर के कुल दस विधानसभा सीटों में से चार पर बसपा के सवर्ण ही चुनाव जीते हैं। इसी जनपद के मछलीशहर विधानसभा सीट से मायावती मंत्रिमण्डल के एक कुख्यात मंत्री सुभाष पाण्डेय चुनाव जीत कर मंत्री पद पर विराजमान हैं। इसी एक तथ्य से यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वांचल के इस जनपद के सवर्ण समाज नें खुले दिल से मायावती के ‘बहु प्रचारित सर्वजन’ की राजनीति का स्वीकार किया है। लेकिन हैरतअंगेज तथ्य तो यह भी है कि इसी जौनपुर जिला मुख्यालय से मात्र तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित भगौतीपुर (शीतला माता मंदिर धाम-चौकियाँ) से एक मासिक पत्रिका ‘अम्बेडकर टुडे’ प्रकाशित होती है जिसके मुद्रक-प्रकाशक एवं सम्पादक हैं कोई डाक्टर राजीव रत्न। डॉ0 राजीव रत्न के सम्पादन में प्रकाशित होनें वाली मासिक पत्रिका का बहुत मजबूत दावा है कि उसे बहुजन समाज पार्टी के संगठन से लेकर बसपा सरकार तक का भरपूर संरक्षण प्राप्त है और यह पत्रिका बहुजन समाज पार्टी के वैचारिक पक्ष को इस देश-प्रदेश के आम आदमी के सामनें लानें के लिए ही एक सोची-समझी रणनीति के तहत प्रकाशित हो रही है।



यही कारण है कि इस पत्रिका के सम्पादक डॉ0 राजीव रत्न अपनी इस पत्रिका के विशेष संरक्षकों में मायावती मंत्रिमण्डल के पांच वरिष्ठ मंत्रियों क्रमशः स्वामी प्रसाद मौर्य (प्रदेश बसपा के अध्यक्ष भी हैं।), बाबू सिंह कुशवाहा, पारसनाथ मौर्य, नसीमुद्दीन सिद्दकी, एवं दद्दू प्रसाद का नाम बहुत ही गर्व के साथ घोषित करते हैं। पत्रिका का तो यहाँ तक दावा है कि पत्रिका का प्रकाशन व्यवसायिक न होकर पूर्ण रूप से बहुजन आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर जन-जन तक पहुँचानें एवं बुद्ध के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए किया जा रहा है। बावजूद इसके पत्रिका के इसी अंक में कानपुर विकास प्राधिकरण, मुरादाबाद विकास प्रधिकरण, आवास बन्धु-आवास एवं शहरी नियोजन विभाग, नगर निगम- कानपुर, नगर पंचायत- जलालपुर-बिजनौर एवं अन्य कई स्थानों के लाखों रूपयों का विज्ञापन छपा हुआ है। जाहिर है बसपाई मिशन में जी-जान से लगी इस पत्रिका को लाखों रूपयों का विज्ञापन देकर बसपा सरकार ही इसे इसे फलनें-फूलनें का मार्ग सुगमता पूर्वक उपलब्ध करा रही है। इस पत्रिका के कथनी-करनी का एक शर्मनाक तथ्य तो यह भी है कि पत्रिका के सम्पादक जहाँ यह दावा करते थक नहीं रहे हैं कि पत्रिका का उद्देश्य व्यवसायिक नही है, वहीं पत्रिका के इसी अंक के पृष्ठ संख्या- 29 पर सम्पादक की तरफ से एक सूचना प्रकाशित की गई है कि- ‘अम्बेडकर टुडे’ पत्रिका के जिन कार्ड धारकों के कार्ड की वैद्यता समाप्त हो गई है या फिर जो लोग पत्रिका का कार्ड चाहते हैं वे पांच सौ रूपये का बैंक ड्राफ्ट या फिर पोस्टल आर्डर ‘अम्बेडकर टुडे’ के नाम देकर कार्ड प्राप्त कर सकते हैं।



इतना ही नहीं ‘बसपाई मिशन’ को अंजाम तक पहुँचानें में लगी इस पत्रिका के गोरखधंधे एवं इसके चार सौ बीसी का इससे ज्यादा ज्वलंत साक्ष्य और क्या होगा कि- पत्रिका के पृष्ट संख्या- (विषय सूची के पेज पर) पर भारत सरकार का सिम्बल ‘मोनोग्राम’ ‘अशोक का लाट’ छपा हुआ है। जबकि यह जग जाहिर है एवं संविधान में भी यह स्पष्ट है कि- ‘इस देश का कोई भी नागरिक, व्यवसायिक प्रतिष्ठान या फिर संस्था अपनें व्यवसाय या फिर संस्था में भारत सरकार क सिम्बल ‘अशोक के लाट’ का उपयोग नही कर सकता। बावजूद इसके प्रदेश सरकार एवं उसक वरिष्ठ मंत्रियों के संरक्षण में यह पत्रिका खुलेआम उपरोक्त नियमों-कानूनों की धज्जियाँ उड़ाते हुए। ‘अशोक की लाट का प्रयोग धड़ल्ले से कर रही है। बसपाई मिशन में जी-जान होनें से जुटी इस पत्रिका के मई-2010 के पृष्ठ संख्या- 44 से पृष्ठ संख्या-55 (कुल 12 पेज) तक एक विस्तृत लेख ‘धर्म के नाम पर शोषण का धंधा- वेदों में अन्ध विश्वास’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है। इस लेख के लेखक कौशाम्बी जनपद के कोई बड़े लाल मौर्य हैं (जिनका मोबाइल नम्बर- 9838963187 है।) इस लेख के कथित विद्वान लेखक बड़ेलाल मार्य नें वेदों में मुख्यतः अथर्व वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद के अनेकोनेक श्लोकों का कुछ इस तरह से पास्टमार्टम किया है कि- यदि आज भगवान वेद व्यास होते और विद्वान लेखक की विद्वता को देखते तो शायद वे भी चकरा जाते।



विद्वान लेखकों नें अथर्ववेद में उल्लिखित-वेदों में वशीकरण, मंत्र, वेदों में हिंसा (ऋग्वेद) आदि का कुछ इस तरह से वर्णन किया है कि लेखक के विचार को पढ़कर ही पढ़ने वाला शर्मशार हो जाए। लेखक का कथन है कि- देवराज इन्द्र बैल का मांस खाते थे (पृष्ठ संख्या- 53)। पृष्ठ संख्या- 53 पर ही दिया गया है कि वैदिक काल में देवताओं और अतिथियों को तो गो मांस से ही तृप्त किया जाता था। पृष्ठ संख्या-54 पर विद्वान लेखक का कथन प्रकाशित है कि- ‘वेदों के अध्ययन से कहीं भी गंभीर चिन्तन, दर्शन और धर्म की व्याख्या प्रतीत नहीं होती। ऋग्वेद संहिता में कहीं से ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि यह देववाणी है, बल्कि इसके अध्ययन से पता चलता है कि यह पूरी शैतानी पोथियाँ हैं। आगे कहा गया है कि- वेदों में सुन्दरी और सुरा का भरपूर बखान है, जो भोग और उपभोग की सामग्री है। पत्रिका के इसी अंक के पृष्ठ संख्या- 31 पर मुरैना-मध्यप्रदेश के किसी आश्विनी कुमार शाक्य द्वारा हिन्दुओं खाशकर सवर्णों की अस्मिता, मानबिन्दुओं, हिन्दू मंदिरों, हिन्दू धर्म, वेद, उपनिषद, हिन्दू धर्म ग्रन्थ, रामायण, ईश्वर, 33 करोड़ देवता, सृष्टिकर्ता ब्रह्या, वैदिक युग, ब्राह्यण, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, को निम्न कोटि की भाषा शैली में गालियाँ देते हुए किस तरह लांक्षित एवं अपमानित किया गया है इसके लिए देखें पत्रिका में प्रकाशित बॉक्स की पठनीय सामग्री।



उत्तर प्रदेश की बसपा सरकार द्वारा पालित एवं वित्तीय रूप से पोषित ‘अम्बेडकर टुडे’ पत्रिका के इस भड़काऊ लेख नें प्रदेश में ‘सवर्ण बनाम अवर्ण’ के बीच भीषण टकराव का बीजारोपड़ तो निश्चित रूप से कर ही दिया है। पत्रिका के इस लेख पर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से मात्र अस्सी किलोमीटर दूर रायबरेली में 14 मई को अनेक हिन्दू संगठनों नें कड़ी आपत्ति दर्ज कराते हुए पत्रिका की होली जलाई जिस पर जिला प्रशासन नें पूरे इलाके को पुलिस छावनी के रूप में तब्दील कर दिया था। रायबरेली में स्थिति पर काबू तो पा लिया गया है पर यदि इसकी लपटें रायबरेली की सीमा से दूर निकली तो इस पर आसानी से काबू पाना मुश्किल होगा।



इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि-2007 के विधानसभा चुनाव के समय बसपा सुप्रिमों मायावती जिस ‘सोशल इन्जीनियरिंग’ कथित ‘सर्वजन’ के नारे के दम पर सवर्णों को आगे करके स्पष्ट बहुमत हाशिल कर प्रदेश की सत्ता पर काबिज हुई थीं। उनका सर्वजन का वह फार्मूला लोकसभा चुनाव आते-आते फुस्स होकर रह गया। राजनीति के चौसर की मंजी खिलाड़ी मायावती को अंततः यह समझानें में देर नहीं लगी कि- 2007 के विधानसभा के जिस चुनाव में दलित-ब्राह्यण गठजोड़ के कारण प्रदेश में पूर्ण बहुमत के साथ उनकी सरकार सत्तारूढ़ हुई वहीं गठजोड़ लोकसभा चुनाव आते-आते बुरी तरह से बिखर गया। कारण स्पष्ट था कि सवर्णाें के साथ मायावती की नजदीकियों के कारण दलित बसपा से दरकिनार हो कांग्रेस के पाले में खिसक गया था। स्थिति की गंभीरता को भांपते हुए मायावती नें अंततः एक बार फिर दलितों की ओर रूख करते हुए सवर्णों से किनारा करना शुरू कर दिया है। इसी क्रम में मायावती नें सोशल इन्जीनियरिंग के कथित जनक सतीश मिश्र को सत्ता के गलियारे से दूर तक दलितों को यह संदेश देनें का यह अथक प्रयास किया है कि- दलितों को छोड़कर राजनीति में टिके रहना बसपा के लिए असंभव है। बसपा का दलितों के प्रति पुनः उमड़ा प्रेम तथा सवर्णों को किनारे करनें की रणनीति एवं दलित आंदोलन में जुटी उक्त पत्रिका के संयुक्त प्रयास का सूक्ष्मतः अवलोकन पर अन्ततः यह स्पष्ट होनें में देर नहीं लगती कि मायावती सरकार का सर्वजन का नारा बुरी तरह से फ्लाप हो गया है तथा उसके मन में दलितों के प्रति मोह एक बार पुनः हिलोरें मारनें लगा है।



उपरोक्त तथ्यों को देखते हुए अंततः यहाँ यह कहना गलत न होगा कि श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज नें सही लिखा है- ‘उधरे अंत न होय निबाहू। कालिनेमि जिमि रावन राहू’। अर्थात- कोई राक्षस भले ही सन्त भेष धारण कर लोगों को दिग्भ्रमित करनें का दुष्चर्क रचे, कुछ समय तक वह भले ही अपनें स्वांग में कामयाब रहे पर बहुत जल्द ही उसका राक्षसी स्वरूप लोगों के सामनें आ ही पाता है। कुछ इसी तरह की लोकोक्ति आम जनमानस में प्रचलित हैं कि- लोहे पर सोनें की पालिस कर कुछ समय के लिए लोहे को सोना प्रदर्शित कर लिया जाय पर सोनें का रंग उतरते ही लोहा पुनः अपनें असली स्वरूप में आ ही जाता है। उपरोक्त दोनों ही तर्क उत्तर प्रदेश में तथाकथित ‘सर्वजन सरकार’ की मुखिया मायावती एवं उनके मंत्रिमण्डलीय सहयोगियों पर अक्षरशः फिट बैठ रही है।



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Saturday, April 17, 2010

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Friday, March 26, 2010

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Friday, February 19, 2010

अघोर साधना के मूल तत्व

भग बिच लिंग, लिंग बिच पारा \


जो राखे सो गुरु हमारा \\ "



इस पूरी धरती में आदिकाल से ही मानव जीवन के प्रति मुख्यतः दो दृष्टिकोण प्राप्त होते हैं । एक तो वे लोग हैं जो जीवन को भोग का अवसर मानकर तद् अनुरुप आचरण करते हैं । वे किसी परमसत्ता के अस्तित्व को, जो धरती पर के समस्त क्रियाकलापों का संचालन करता हो, स्वीकार नहीं करते । उनका तर्क है कि परमसत्ता के अस्तित्व का ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जो सार्वकालिक होने के साथ ही निर्विवाद भी हो । यह लोगों के मन की कल्पना मात्र है । कुछ प्रबुद्धजनों ने अपना हित साधन के उद्देश्य से परमसत्ता के प्रति भय का वातावरण बनाया और अपने मन की कल्पना को जन सामान्य के हृदय में बड़े ही चतुराई से प्रतिस्थापित कर दिया है । दूसरे प्रकार के लोग परमात्म तत्व की सत्ता को न केवल स्वीकार करते हैं वरन् स्वयं को परमात्मा का अंश आत्मन् के रुप में मानकर आत्मा के परमात्मा में मिलन के लिये चेष्टा करते है, जिसे साधना कहते हैं । इसी भित्ती पर संसार के समस्त धर्म, सम्प्रदाय, आदि खड़े हैं ।



भारत में आदिकाल से ही निष्ठा के आधार पर साधकों, श्रद्धालुओं, भक्तों, संतों, महात्माओं को पाँच प्रकार में बाँटा गया है ।



१, शैव, जिनके आराध्य देव शिव जी हैं ।



२, शाक्त, जिनके आराध्य देव शक्ति हैं ।



३, वैष्णव, आराध्य देव श्री विष्णु हैं ।



४, गाणपत्य, जिनके आराध्य देव गणेश हैं ।



५, सौर, जिनके आराध्य देव सूर्य देव हैं ।



जो एकनिष्ठ देव आराधक नहीं हैं उनमें या विशेष प्रयोजनवस पँच देवोपासना भी प्रचलित है ।



अघोरपथ इनमें शामिल नहीं हैं, क्योंकि अघोरियों का कोई एक देवता आराध्य नहीं है । अघोर आश्रमों में सामान्यतः देवी मंदिर के अलावा शिव लिंग, गणेश पीठ, पाये जाते हैं । अघोरेश्वर भगवान राम जी ने विष्णु यज्ञ भी कराया था । सूर्य देव तो प्रत्यक्ष देवता हैं ही ।



इस विषय में अघोरेश्वर भगवान राम जी ने अपने आशीर्वचनों में कहा हैः



" हम लोग शैव और शाक्त दोनों के मत में रहने वाले हैं । हम लोगों का अनुष्ठान शैव और शाक्त के मध्य से चलता है । औघड़ न शाक्त होते हें न शैव होते हैं । इनका मध्यम मार्ग है । शक्ति की भी उपासना करते हैं और रुद्र की भी उपासना करते है । हमारी भगवती जिसकी हम आराधना करते हैं, श्री सर्वेश्वरी, काली, या दुर्गा, इनकी मूर्तियाँ वैदिक युग की नहीं हैं क्योंकि वैदिक युग में शिव के यंत्रों की आकृति है और उसे ही माना गया है । उस युग से पहले की हो सकती है या उस युग में भी हो सकती है । यह ब्राह्मणों के ध्यान की मूर्ति नहीं है । यह योगियों के ध्यान की मूर्ती है । "



अघोरी जाति, वर्ण, धर्म, लिंग, आदि किसी में भेद नहीं करते । अघोर दीक्षा के पश्चात क्रीं कुण्ड स्थल के महंथ बाबा राजेश्वर राम जी ने किशोर अवधूत भगवान राम जी को समझाया था ।



" हमारी कोई जाति नहीं, हम सभी धर्मों के प्रति आदर रखते हैं । हम छूआछूत में विश्वास नहीं करते । हम प्रत्येक मनुष्य को अपना भाई और प्रत्येक स्त्री को माता समझते हैं । मानव मानव में कैसा भेद, कैसा दुराव ? "



अघोरी, औघड़, अवधूत विधि निषेध से परे होते हैं ।



१, शिष्य का अधिकार



अघोर पथ में गुरु का स्थान सर्वोपरी हैं । अध्यात्म के अन्य क्षेत्रों में सामान्यतः शिष्य गुरु बनाता है , लेकिन अघोर पथ में ऐसा नहीं है । श्रद्धालु का , भक्त का, औघड़, अवधूत से निवेदन करने से दीक्षा, संस्कार हो जावे यह अवश्यक नहीं है । यहाँ गुरु शिष्य को चुनता है । हमें यह प्रक्रिया अन्य सिद्धों के मामले में भी दिखाई देती है । पूर्व में लाहिड़ी महाशय का चुनाव उनके गुरु बाबा जी ने किया था और अपने पास बुलाकर उन्हें दीक्षा देकर साधना पथ पर अग्रसर कराया था । स्वामी विवेकानन्द जी का चुनाव रामकृष्ण देव ने किया था । और भी अनेक उदाहरण हैं । स्पष्ठ है कि यह शिष्य के अधिकार की बात है । अनेक जन्मों के संचित सत् संस्कार जब फलीभूत होते हैं तो शिष्य का क्षेत्र , अधिकार, पात्र तैयार हो जाता है और दीक्षादान हेतु गुरु के हृदय में करुणा का संचार हो जाता है । इस प्रकार दीक्षा घटित होती है ।



शिष्य के अधिकार के अनुसार गुरू उसका संस्कार करते हैं ।



२, दीक्षा



पूर्व में दीक्षा संस्कार की चर्चा हो चुकी है । अघोरपथ में गृहस्थों को तथा अधिकार के अनुसार विरक्तों को भी साधक दीक्षा प्रदान होती है । योगी दीक्षा सम्पन्न साधु मुड़िया कहलाते हैं । हम यहाँ दीक्षा के प्रकार की चर्चा एक बार पुनः कर लेते हैं ताकि विषय स्पष्ठ रहे ।



अघोर पथ में दीक्षा दो प्रकार की होती है ।



"अ, योगी दीक्षाः



योगी दीक्षा की प्रक्रिया थोड़ी अलग होती है । योगी की कुण्डलिनी को गुरुदेव दीक्षा के समय ही जगा देते हैं । योगी को कुण्डलिनी शक्ति साकार इष्टदेवता के रुप में प्राप्त हो जाती है, बाद में अपने कर्मों के द्वारा उसकी आराधना शुरु करता है । योगी अधिक सामर्थवान होता है । उसे वासना का त्याग नहीं करना पड़ता । योगी वासनादि को निर्मल बनाकर अपनी निज स्वरुप में नियोजित कर लेता है । वह शरीर से भी इष्टदेवता का दर्शन करने में समर्थ हो जाता है । योगी जब पूर्ण सिद्ध हो जाता है तब उन्हें निर्मल ज्ञान मिलता है या सत्य का साक्षात्कार हो जाता है । वह अलौकिक शक्ति का अधिकारी बन जाता है । इसमें तीन प्रधान शक्तियाँ हैं इच्छा, ज्ञान और क्रिया । ज्ञान शक्ति से वह सर्वज्ञ तथा क्रिया के प्रभाव से सर्वकर्ता बन जाता है । इच्छा शक्ति के प्रभाव से योगी कोई भी कार्य कर सकता है । इस शक्ति के उदय होने से ज्ञान तथा क्रिया की आवश्यकता नही् होती पर योगी के इच्छानुसार कार्य होता है । अघोर पथ में दीक्षा संस्कार के समय गुरु अधिकारी शिष्य की कुण्डलिनी जगाकर तीन चक्र ! मूलाधार, स्वाधिष्टान और मणिपुर तक उठा देते हैं । इसके बाद उस योगी का ईष्ट साकार हो जाता है और फिर शुरु हो जाती है उनकी बिलक्षण आराधना ।"



ब, साधक दीक्षाः



दीक्षादान होने पर गुरुपदिष्ठ बीजमन्त्र साधक के हृदयदेश में स्थापित होता है तथा साधक के द्वारा गोपनीय विधियों के द्वारा शोधित और रक्षित होकर पुष्ट होता रहता है । समयकाल पाकर बीज आकार धारण करता है और बाद में यही सत्ता साकार इष्टदेवता के रुप में प्रकट होता है । योगी दीक्षा और साधक दीक्षा दोनो में ही कुण्डलिनी जागरण होता है । साधक दीक्षा में शक्ति का इतना संचार हो जाता है कि जैसे ही पुरुषाकार का योग होता है कुण्डलिनी जाग जाती है । बाद में गुरु प्रदत्त कर्म के समुचित सम्पादन से उक्त जाग्रत शुद्ध तेज प्रज्वलित होकर साधक के वासना, संस्कार आदि के आवरण को भस्म कर देता है । साधक का विकास होते होते अन्त में सिद्धावस्था आती है जब वासनादि समस्त कल्मशों का सम्पूर्ण रुप से क्षय हो जाता है और कुण्डलिनी शक्ति इष्टदेवता के रुप में प्रकट होती है, पर उस समय साधक का देह नहीं रहता । साधक में सिद्धि के आविर्भाव के साथ साथ देहान्त हो जाता है ।



अघोरपथ में साधना विषयक समस्त बातें गोपनीय होती हैं । दीक्षा की प्रणाली, मन्त्र, बिधि, क्रिया, ओषधि समस्त बातें व्यक्तिनिष्ठ होने के कारण उन तक किसी की भी पहुँच असंभव है । अधिकारी सन्त, महापुरुष जितना अपने प्रवचनों में बतला देते हैं वही ज्ञात हो पाता है । दीक्षा का मूल मन्त्र कहा गया है, अतः कुछ चर्चा मन्त्र की भी आवश्यक हो जाती है ।



३, मन्त्र



भारत में मन्त्र का एक अलग शास्त्र है । मन्त्र विज्ञान इतना उन्नत है कि जीवन के प्रत्येक क्रियाकलाप हेतु अलग अलग मन्त्र हैं । हम मन्त्र के विषय में विशद चर्चा पूर्व में कर चुके हैं अतः उसे दुहराना आवश्यक नहीं है ।



अघोरमन्त्र को समस्त मन्त्रों में सर्वोपरि बतलाया गया है और कहा गया है किः



" ॥ अघोरान्ना परो मन्त्रः नास्ति तत्वं गुरो परम् ॥"



शिष्य को गुरु, उसकी प्रकृति, अधिकार, शक्ति तथा इष्ट के अनुरुप मन्त्र दान करते हैं । इसीलिये गुरु प्रदत्त इस मन्त्र को इष्टमन्त्र या गुरुमन्त्र भी कहते हैं । यह मन्त्र शिष्य के हृदय देश में स्थापित होकर उसकी सिद्धी तथा मुक्ति का वाहक बनता है । इष्ट मन्त्र के अलावा प्रयोजन के अनुसार साधक अन्य अनेक मन्त्रों का भी प्रयोग करता है ।



अघोरेश्वर भगवान राम जी ने मन्त्र के विषय में बतलाया हैः



" मन्त्रों में किसी का नाम नहीं दिया गया है । ॠषियों ने उन मन्त्रों का दर्शन किया है, और उस दर्शन में उन शब्दों का, जिससे उसमें आकर्षण होता है । वह द्रवित होता है, और वह उस महान आत्मा की तरफ झुकता है । और उस महान आत्मा की तरफ झुक कर इतना तेज, इतना काँति, बल, पौरुष पा जाता है । उसके शरीर की रश्मियाँ, उसके शरीर की वह दिव्य, तेजोमय कान्तियाँ, जिसके शरीर में वह छोड़ता है, यह सब कुछ देता है । "



४, क्रिया



इस शरीर से विधिपूर्वक निश्चित उद्देश्य से किये गये काम को क्रिया कहते हैं । जप, हवन, तर्पण आदि कार्य इसके अन्तर्गत शुमार होते हैं । यह एक विशद विषय है । अघोरपथ में क्रियाएँ गुरु प्रदान करते हैं ।



५, औषधि



फूल, फल, दूब, पत्र, दुधुवा आदि औषधि के भीतर गिनी जाती हैं । हर एक वस्तु का अपना प्रयोजन है । मदिरा या दुधुवा का प्रयोग साधना की उच्चावस्था में कतिपय मानसिक दुर्बलताओं पर विजय पाने के लिये किया जाता रहा है, परन्तु अघोरेश्वर भगवान राम जी ने मदिरा का सेवन निषिद्ध कर दिया है ।
बदल गई बीजेपी ?




आखिर ये क्या हो गया है बीजेपी को, लगातार दो लोकसभा चुनावों में मात खाने के बाद बदले बदले से क्यों नजर आ रहे हैं पार्टी के तेवर । संघ के पसंदीदा नए नवेले अध्यक्ष नितिन गडकरी तो मुसलमानों को साथ लाने की अपील कर रहे हैं वो कह रहे हैं कि मुसलमान भाई आगे आएँ और सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल कायम करते हुए विवादित स्थल पर एक भव्य राम मंदिर बननें दें । राम मंदिर आंदोलन के हीरो कहलाने वाले आडवाणी के सामने ही मंच पर दिल बड़ा करते हुए वो ये भी कहते हैं कि अगर बगल की कोई जगह मिल गई तो बीजेपी एक भव्य मस्जिद का भी निर्माण करवाने में पूरा सहयोग करेगी। वाकई जमीन आसमान का फर्क नजर आ रहा है बीजेपी की चाल ढाल में बात भले ही घुमा फिरा कर वही की गई हो पर इस बार पार्टी नेताओं के बयान में 'मंदिर वहीं बनाएंगे ' का उग्र हिंदुवाद नदारद है। वो उग्र हिंदुवाद जो आज भी देश के एक समुदाय को डराता है। वो उग्र हिंदुवाद जो अक्सर खुद को देश के कानून से ऊपर समझ बैठता है और जोश में होश खोकर 6 दिसंबर 1992 को देश के गौरवमई लोकतंत्र में एक काला अध्याय जोड़ देता है। हिंदुवादी पार्टी से धर्मनिरपेक्ष पार्टी बनने की दिशा में ये बीजेपी का पहला कदम है। उसे इस बात का देर से ही सही अहसास हो गया है कि देश के 14 करोड़ मुसलमान भी इस देश का अहम हिस्सा हैं और बिना उनको साथ लिए पार्टी का कल्याण मुमकिन नहीं है।



लेकिन अपसोस होता है ये जानकर कि सादगी का नाटक कर पांचसितारा तंबुओं में इतने दिनों की माथापच्ची करने के बाद भी पार्टी मंदिर-मस्जिद से ऊपर नहीं उठ पाई । इतने दिनों के चिंतन के बाद भी बीजेपी के नेता सिर्फ इस नतीजे पर पहुंच पाए कि जनता को एक मंदिर के साथ साथ मस्जिद का भी एक लॉलीपॉप पकड़ा देना चाहिए । आप ही बताइए क्या बढ़ती मंहगाई और मंदी का मार झेल रही देश की जनता को इस बात से कोई वास्ता है , जिस देश की आधी आबादी युवा हो वो देश के विकास, बेहतर शिक्षा व्यवस्था और बेरोजगारी से निजात दिलाने की फ्यूचर प्लानिंग को तवज्जो देगी या एक ऐसी पार्टी पर भरोसा करेगी जो आज भी 1989 की अपनी 21 साल पुरानी सोच से उबर पाने में नाकाम है । क्या वो कभी एक ऐसी पार्टी का साथ देगी जो खुद को बदलना भी नहीं चाहती और बदला हुआ नजर भी आना चाहती है ।



जरा सोचिए इससे पहले क्या हमारे देश का विपक्ष कभी इतना कमजोर रहा कि सरकार की गलत नीतियों का माकूल जवाब भी न दे पाए। ऐसे वक्त में जब देश में पिछले 6 सालों से कांग्रेस लेड यूपीए की सरकार हो और महंगाई ने देश के हर आमो खास की कमर तोड़ रखी हो बीजेपी इस मुद्दे को क्या इमानदारी से उठा पाई । देश की जनता को क्या ये बता पाई कि एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री बढ़ती इनफ्लेशन रेट को रोक पाने में इतने लाचार क्यों नजर आते हैं । नहीं....बिल्कुल नहीं ,क्योंकि काफी दिनों से सत्ता सुख का आनंद न भोगने वाली बीजेपी शायद अब जनता की नब्ज पकड़ना भी भूल गई है । और यही वजह है कि इन तमाम ज्वलंत मुद्दों को छोड़ , आरएसएस के कट्टर हिंदुवादी चेहरे से कभी खुद को करीब और कभी दूर साबित करने के अंतर्द्वद में फंसे पार्टी के नेता अब धर्मनिरपेक्ष होने का दिखावा कर रहे हैं... थोड़ा डरते हुए क्योंकि आडवाणी का जिन्ना प्रकरण और धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढने की जो कीमत उन्होंने चुकाई वो कोई भी अपने जेहन से निकाल नहीं पाया है।



उम्मीद तो थी कि एसी टेंट में ही सही लेकिन प्रकृति के थोड़े करीब आकर , नए युवा अध्यक्ष की अगुवाई में ये नेता कुछ नया सोचकर एक नई शुरूआत करेंगे पर बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि पार्टी की नेशनल एक्जेकेटिव में सुबह शाम चले मंथन के बाद भी ये नेता अपनी पार्टी के लिए अमृत नहीं निकाल पाए

Wednesday, February 17, 2010

नई दिल्ली से प्रकाशित एक प्रतिष्ठित सप्ताहिक ‘इंडिया टुडे’ ने हाल के अंक में कुछ दिनों पहले दिवंगत हुए पुराने कांग्रेसी नेता और मुस्लिम विचारक डा. रफीक जकारिया को उद्धृत करते हुए मोटे अक्षरों में लिखा कि इतिहास में कोई ऐसा साक्ष्य नहीं है कि जो सिद्ध कर सके कि किसी मुस्लिम ने कोई हिन्दू मंदिर तोड़ा हो। यही बात इतिहासकार डा. इरफान हबीब और रोमिला थापर भी दूसरे संदर्भ में कह चुके हैं। यह भी कहा गया है कि मुस्लिम आक्रमणकारी सिर्फ धन-संपत्ति की लूट के उद्देश्य से आक्रांता के रूप में भारत आते रहे और बस यही उनका मन्तव्य था। भारत के पिछले एक हजार साल के इतिहास को झुठलाते हुए हर छोटे-बड़े शहरों के सैकड़ों पुराने भग्नावशेषों को नकारते हुए जिसमें मुस्लिम आक्रमणों के बर्बर ध्वंस की निशानियाँ आज भी मौजूद हैं। इस तरह की दुष्प्रचारित की जा रही राजनीतिक टिप्पणियाँ हमें अनायास आहत कर आक्रोश से भर सकती है। कभी-कभी लगता है कि हम स्वयं इस बात के गुनाहगार हैं कि अपनी तटस्थता की आड़ में हम ऐसी टिप्पणियों का प्रतिरोध नहीं करते हैं। मेरे विचार में राजनीति प्रेरित दिग्भ्रमित करने वाले ऐसे लेखक इतिहास व पुरातत्व के अनुशासन से गिरकर सिर्फ असत्य के अलावा कुछ नहीं बोल सकते हैं।




कहते हैं कि झुठ की अनेक किस्में होती है – बुरा झूठ, सफेद झूठ, काला झूठ, आकड़ों का झूठ, राजनीतिक झूठ, आदि-आदि। पर यदि अपनें चारों ओर गौर से देखें तो पाएंगे कि एक चौथे प्रकार का झूठ भी होता है जिसकी प्रकृति उपर्युत्त प्रकार के झूठ से कई गुना भयानक होती है। इसे हम गजब का झूठ कह सकते हैं। जहाँ तक देश के इतिहास का संदर्भ है, झूठ बोलना उनकी फितरत में दाखिल है, लगता है, नस-नस में बस गया है।



मुस्लिम शासकों के स्वयं अपने इतिहासकार व वृत्तांत लेखक ,मध्य युग में भारत-भ्रमण के लिए आए विदेशी यात्री व स्वयं ब्रिटिश इतिहासकार सभी ने सदियों तक हिंदू मंदिरों के ध्वंस के बारे में जो लिखा है उसके बाद भी विकृत सोच द्वारा जो दुष्प्रचार हमारी पत्र-पत्रिकाओं में फैलाया जा रहा है वह अक्षम्य है। पुराने इतिवृत्त जैसे आज का पूर्वी अफगानिस्तान शैवपंथी था। उत्तरी पूर्वी सीमांत से लगे अनेक देश अपवा जहाँ हमारे मूल देश की सभ्यता की उपशाखाएं विद्यमान थीं उनको कैसे नेस्तनाबूद किया गया, यह भुला भी दिया जाए, पर आज भी देश के दूरदराज के हर कोने में स्वयं आप जाकर भग्न मंदिर या खण्डित मूर्तियां देख सकते हैं। मात्र एक छोटा सा उदाहरण है, चाहे आप जबलपुर के चौसठ योगिनी मंदिर जाएं या भेजपुर का शिव मंदिर अथवा हांपी, आपका हृदय विदीर्ण हुए बिना नहीं रह सकता। सोमनाथ, मथुरा, काशी या अयोध्या की बात ही क्या करना जिसका विनाश इस्लाम के विस्तार के लिए मनोवैज्ञानिक रूप कितना अपरिहार्य था। आज के पलायनवादी, तटस्थ शिक्षित हिन्दू की संवेदनशीलता मरती जा रही है और इसलिए वह इसे समझ नहीं सकता है।



क्या आप इसे घृणित मार्क्सवादी व्याख्या नहीं कहेंगे जिसे बार-बार हमारे अंग्रेजी अखबार प्रचारित करने से नहीं चूकते हैं कि हिन्दू मंदिरों में अपार स्वर्णराशि व सम्पत्ति इकट्ठा कर हिंदुओं ने जो एक अपराध किया था उससे इस्लामी आक्रमणकारियों का आकर्षित होना स्वाभाविक था। पर उसका यह फायदा भी हुआ कि उन्हाेंने भारतीय समाज में एक क्रांति भी लाई, जो एकात्मवाद को बढ़ावा देने के साथ जाति-व्यवस्था के विरुध्द भी जनमत तैयार कर सकी।



अत्यंत संक्षेप में, सन् 632 में भारत में इस्लाम के आगमन के बाद से किस तरह हजारों मंदिरों का ध्वंस हुआ इसको आज के मीडिया को साक्ष्यों से परिचित कराना जरूरी है जिससे वे हमारे ही देश में बहुसंख्यकों को बरगलान सकें। फ्रेंच इतिहासकार एलेन डेनिलू ने लिखा है कि प्रारम्भ से ही इस्लाम का इतिहास भारत के लिए विनाश, रक्तपात, लूट और मंदिरों के विध्वंस के लिए एक भूकं प की तरह सिध्द हुआ था। सन 1018 से लेकर सन 1024 तक मथुरा, कन्नौज, कालिंजंर और बनारस के साथ-साथ सोमनाथ के मंदिर क्रूरता से नष्ट किए गए। प्रसिध्द पत्रकार एम. वी. कामथ ने कुछ दिनों पहले 18 वीं शताब्दी के एक ब्रिटिश यात्री को उद्धृत करते हुए लिखा कि सूरत से दिल्ली तक के बीच उसने एक भी हिंदू मंदिर नहीं देखा क्योंकि वे सब नष्ट किए जा चुके थे। इस्लामी इतिहासकारों ने सैकड़ों साल पहले गर्व से लिखा है कि सल्लतनत और मुगल शासकों के समय उनकी सरकार का ‘मंदिर तोड़ने का विभाग ” कितना कुशलता और दक्षता से यह काम करता था।



सोमनाथ का मंदिर पहली बार महमूद गजनवी द्वारा 1024 में लूटा गया था और शिवलिंग तोड़ डाला गया था। मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार इस विशाल देवालय को नष्ट करने के बाद सोमनाथ के शिवलिंग के टुकड़े गजनी की जुम्मा मस्जिद की सॣढ़ियों में जड़े गए थे जिससे इस्लाम के अनुयाई उन्हें पैरों से रौंदें। वह सन् 1191 का समय था जब मुस्लिम आक्रांता मोहम्मद गोरी मध्य एशिया से अपने तुर्की घुड़सवारों की सेना के साथ भारत आया था। पहले पृथ्वीराज चौहान ने उसे तराईन के पहले युद्ध में मात दी और उसे क्षमादान भी दिया। पर 1192 में उसने पृथ्वीराज को पराजित करने के बाद विशाल लालकोट को कब्जा करने के बाद जलाकर धरती में मिला दिया। आज भी कु व्वतुल इस्लाम भारत की पहली मस्जिद के रूप में खड़ी है जिसे उस समय के 67 हिंदू मंदिरों के पत्थरों और मलवे को प्रयुक्त कर बनाया गया था। इस तरह पहली बार यह आस्था ध्वंस के प्रतीक के रूप में दिल्ली पहुची थी। स्वयं अनेक मुस्लिम इतिहासकारों ने इसका विस्तृत रूप से वर्णन किया है।



”तारीखे-फीरोजशाही” के इतिहासकार के अनुसार सुल्तान अल्तुतमिस (1210-1236)ने अपने मारवाड़ के आक्रमण के दौरान अनेक बड़े मंदिरों की मूर्तियों को लाकर दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढ़ियों में चुनवाया था। इसी तरह जलालुद्दीन खिलजी (1290-1296) ने रणथंभौर के आक्रमण के बाद किया था। दो अन्य मुस्लिम इतिहासकारों ने स्वतंत्र रूप से पुष्टि की है कि अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316) हर अभियान के बाद मूर्तियों को दिल्ली लाकर सीढ़ियों पर चुनवाने का एक धार्मिक कृत्य मानता था। बाद तक दर्जनों शासकों ने यह चाहे दिल्ली में हो या बहमनी, मालवा, बरार या दक्षिण के राज्य हों, यही दोहराया। इन अभिलेखित साक्ष्यों के बाद भी यदि आज के कुछ सेकुलर कहलाने वाले दुराग्रही और हठधर्मी इतिहासकार अथवा पत्रकार रट लगाते रहें कि मंदिर कभी ध्वस्त नहीं किए गए, कभी बलात धर्मांतरण नहीं हुआ तो यह मात्र कुटिल मानसिकता ही मानी जा सकती है।



हमारे देश में अपने अतीत के प्रति अधिकांश शिक्षित वर्ग इतना उदासीन है कि विद्रूषीकरण के साथ-साथ घोर सतही और असत्य वक्तव्य भी बिना किसी प्रतिरोध के छापे जा सकते हैं। कदाचित इसीलिए नोबेल पुरस्कार विजेता वी.एस. नागपाल ने कुछ दिनों पहले एक साक्षात्कार में रोमिला थापर को ‘फ्रॉड’ तक कह डाला था।



आज हिंदू हीनताग्रंथिवश अपनी सभ्यता की प्रमुखता को भी अभिव्यक्त करने की स्थिति में नहीं हैं और कदाचित इतिहास की बाध्यताओं व उसके सही अनुशासन को नहीं समझ पाते हैं। उसके मन में कूट-कूटकर भर दिया गया है कि उनका अपना अतीत, आज की नजरों में, सांप्रदायिक इतिहास है।

Sunday, February 14, 2010

एक और आतंकी घटना और पिछली घटनाओं की भांति संदेह के घेरे में सर्वप्रथम मुसलमान। नाम मोहसिन चैधरी। मात्र एक घण्टे के अन्दर ए0टी0एस0 मुम्बई ने आतंकी घटना के मोहरे को ढूँढ़ निकाला, जबकि घटना आर0एस0एस0 के गढ़ में हुई, जहाँ मालेगाँव व अन्य विस्फोटों के आरोपी कर्नल पुरोहित ने अभिनव भारत नाम के संगठन का गठन किया था, और जहाँ आचार्य रजनीश का ओशो आश्रम व अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर आतंक के जन्मदाता यहूदी समुदाय का भी प्रार्थना स्थल ‘खबाद’ मौजूद है। अमरीकी खुफिया संगठन सी0आई0ए0 व बाद में आई0एस0आई0 पाकिस्तान से जुड़ा रहा जासूस डेविड कोलीन हेडली का भी इन्हीं स्थानों पर बराबर आना जाना रहा।


पूणे के जर्मन बेकरी रेस्टोरेन्ट में शनिवार की शाम लगभग 7.30 बजे एक धमाका हुआ। पहले पुलिस की ओर से यह समाचार आया कि यह बेकरी के किचन में फटे गैस सिलण्डर के कारण हुआ है, परन्तु बाद में वहाँ पहुँची ए0टी0एस0 व बम निरोधक दस्ते ने जानकारी दी कि एक पीठ पर टाँगने वाले बैग में रखी गई विस्फोटक सामग्री ने इस घटना को अंजाम दिया है, और यह एक आतंकी घटना है। इस घटना में प्रारम्भिक तौर पर जो समाचार प्राप्त हुए हैं, उसके मुताबिक लगभग एक दर्जन व्यक्ति हलाक हो गये और 40 व्यक्ति जख्मी हुए। मरने वालों में एक विदेशी नागरिक भी है जिसकी नागरिकता और उसकी खुद की शिनाख्त होनी अभी बाकी है।

गौरतलब बात यह है कि यह घटना तब घटी जब पूरे महाराष्ट्र में सम्प्रादायिक्ता व अलगाववाद की बात करने वाले संगठनों की थू-थू हो रही थी, और ‘‘माई नेम इज खान’’ के हीरो शाहरूख खान की जय जयकार। यानि धर्म निरपेक्ष ताकतों की फतह और सम्प्रदायिक शक्तियों की शिकस्त। यह घटना पाकिस्तान से होने वाली हमारे देश की वार्ता से मात्र 12 दिन पूर्व हुई है जब पाकिस्तान से वार्ता करने का विरोध हिन्दुवादी संगठन कर रहे थे। वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान अपने एजेण्डे यानि कश्मीर के मुद्दे को भी वार्ता में शामिल करने की बात पर अड़ा हुआ था। उसे आतंकवाद के मुद्दे को भी बातचीत में शामिल करने पर एतराज था। यह घटना उस समय घटी है, जब भले ही राजनीतिक आवश्यकता के कारण ही सही, बाटला हाउस एनकाउण्टर पर कांग्रेस की ओर से ही अंगुलियाँ उठने लगी थीं, और जामा मस्जिद दिल्ली के पेश ईमाम अहमद बुखारी भी एक बयान के साथ बयानबाजी के मैदान में कूद पड़े थे।

घटना के मात्र एक घण्टे उपरान्त ही देश की सुरक्षा व खुफिया एजेन्सियों ने घटना के सूत्रधार व उसके संगठन को ढूंढ़ निकाला। इण्डियन मुजाहिदीन व लश्करे तोएबा नाम के आतंकी संगठनों का नाम सामने आया साथ में मोहसिन चैधरी नाम के एक कथित आतंकवादी का फोटो राष्ट्रीय चैनलों पर उभर कर सामने आ गया उसके शेष साथियों की तलाश, और आजमगढ़ से पकड़े गये तथाकथित आतंकवादी शहजाद से उसके तार जोड़ने की कवायद प्रारम्भ हो गई।

घटनास्थल के पास विश्व प्रसिद्ध ओशो आश्रम है जहाँ विदेशी सैलानियों का सिलसिला कायम रहता है फिर यहूदियों का प्रार्थना स्थल खबाद भी यहाँ से चन्द कदम की दूरी पर है। इसके अतिरिक्त सूर्या होटल भी यहीं है, जहाँ अमरीकी-पाकिस्तानी जासूस डेविड हेडली आकर रुकता था। बावजूद इसके शक के दायरे में किसी विदेशी का नाम पहले ए0टी0एस0 की जुबान पर नही आया। स्मरण रहे कि 26/11 की मुम्बई घटना स्थल के पास भी यहूदियों की काॅलोनी नारीमन हाउस थी और यहाँ भी खबाद के रूप में यहूदियों की उपस्थिति।

महाराष्ट्र प्रान्त का यह नगर

पुणे स्वतंत्रता संग्राम से भी पहले से हिन्दूवादी संगठनों का मुख्यालय रहा है और मालेगाँव बम काण्ड के जनक लेफ्टीनेन्ट कर्नल पुरोहित का अपने संगठन अभिनव भारत के कारसेवकों की ‘‘तरबियतगाह’’ भी इसी नगर में रही है। इनमें से किसी का नाम पहले जुबान पर नहीं आया मुसलमान का नाम पहले आया। शायद इस कारण कि राम मंदिर आन्दोलन के नायक भाजपा के वरिष्ठ लीडर लालकृष्ण आडवाणी के शब्दों में Every muslim is not terrorist but, the terrorist who is being caught is aways Muslim .

तुष्टिकरण की यह कैसी राजनीति

रविवारीय मंथनकाठियावाड़ा (गुजरात) के मोहनदास करमचंद गांधी जी को देश ने महात्मा कहकर संबोधित किया, उन्हें भारत रत्न क्यों नहीं? यह सवाल इन दिनों बार-बार पूछा जा रहा है। इसका जवाब क्यों नहीं आ रहा? निजी बातचीत में सत्तारूढ़ नेता फुसफुसा देते हैं कि यह जिम्मेदारी तो आजादी के बाद पं. जवाहरलाल नेहरु की सरकार की ही थी। ब्रिटिश शासकों के चंगुल से देश को आजादी दिलाने वाले और फिर 6 माह के अंदर आजाद हिन्दुस्तान के एक हिन्दू की गोली खाकर शहीद हो जाने वाले महात्मा को तो प्रथम भारत रत्न से सम्मानित किया जाना चाहिए था। पंडित नेहरु तो महात्मा के प्रिय शिष्य थे। कांग्रेस पार्टी सहित पूरा देश महात्मा गांधी का ऋणी था। सैंकड़ों वर्षों की गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले महात्मा गांधी को पार्टी या सरकार कैसे भूल गई? पिछले दिनों शासकीय अलंकरणों पर उठे कतिपय विवादों के बीच उस बिंदु पर महात्मा की उपेक्षा को लेकर सवाल पूछे जा रहे हैं। चूंकि पिछले 6 दशक से सत्ता की ओर से इस सवाल का जवाब नहीं आया, अब उम्मीद करना बेकार है। तो क्या सवाल को अनुत्तरित छोड़ देना चाहिए? देश की जिज्ञासा को मौत देने के पक्ष में हम नहीं।सत्तापक्ष के मौन से विस्मित समीक्षक अपने अनुमान के लिए स्वतंत्र हैं। इस प्रक्रिया में संभावित गलतियों के लिए दोषी उन्हें नहीं ठहराया जा सकता। कहते हैं कि आजादी के बाद देश के कर्णधारों ने जिस धर्म निरपेक्षता को संविधान में शामिल किया वह सत्तापक्ष का चुनावी हथियार बन गया। सत्तापक्ष इस हथियार को सुरक्षित रखना चाहते थे। गांधी की हत्या का सच यह था कि उनके हत्यारे हिन्दू थे। विभाजन की शर्तों व वायदों सेे पीछे हटते हुए नेहरु की सरकार ने पाकिस्तान को न केवल तयशुदा राशि देने से इंकार कर दिया था बल्कि पाकिस्तान को सैन्य सामग्री की आपूर्ति भी बंद कर दी। इससे नाराज महात्मा गांधी ने अनिश्चितकालीन अनशन की घोषणा कर दी थी। नेहरु की सरकार जहां इससे परेशान हुई, देश चकित था। उन्हीं दिनों अफवाह फैली कि गांधी चाहते हैं कि पाकिस्तान से हिन्दुस्तान आए लगभग 70 लाख शरणार्थी वापस पाकिस्तान अपने घरों को लौट जाएं ताकि जो मुसलमान पाकिस्तान चले गए वे वापस हिन्दुस्तान लौटकर हिन्दुओं के साथ शांतिपूर्वक रहे। वह काल एक अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण काल के रूप में इतिहास में दर्ज हुआ। गांधी, जो महात्मा बन चुके थे, देश के रक्षक थे, स्वतंत्रता सेनानी थे, संत थे और जो कभी कुछ गलत नहीं कर सकते थे, अचानक शरणार्थियों की नजरों में हिन्दुओं के प्रति घृणा करने वाले और मुसलमानों को प्यार करने वाले बन गए। रोटी और छत की तलाश में जब पाकिस्तान से आए हिन्दू शरणार्थी दिल्ली की गलियों में भटकते रहे थे तब उन्होंने विस्मित नेत्रों से बड़ी संख्या में अल्पसंख्यकों को साधिकार मोहल्लों में रहते देखा। उन दिनों सत्ता में, व्यवसाय में, सरकारी कार्यालयों में प्रभावशाली अल्पसंख्यक मौजूद थे। गांधी उन शरणार्थी शिविरों में स्वयं जाकर अल्पसंख्यकों को प्रोत्साहित करते थे। गांधी ने तब नेहरु और पटेल पर दबाव डाला था कि हिन्दुओं और सिखों को हथियारों से वंचित कर दिया जाए ताकि अल्पसंख्यक मुस्लिम निर्भय वहां रह सकें। महात्मा गांधी की हत्या का एक बड़ा कारण अल्पसंख्यकों के खिलाफ उत्पन्न आक्रोश था। तो क्या वर्ग विशेष की नाराजगी के भय से देश के नवशासकों ने महात्मा गांधी को भारत रत्न से अलंकृत नहीं किया। तुष्टिकरण व वोट की राजनीति पर आज चिल्ल-पों करने वाले इतिहास के इन पन्नों पर गौर करें। इस 'राजनीतिÓ के जन्म को याद रखें। जब महात्मा गांधी को इस 'राजनीतिÓ का शिकार बनाने से शासक नहीं चूके तब औरों की क्या बिसात! आजाद भारत की कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति बदले हुए स्वरूप में आज भी देश, समाज को बांट रही है। तुष्टिकरण का बेशर्म खेल चुनावी राजनीति का खतरनाक किंतु मजबूत हथियार बन गया है। बाल ठाकरे ने शाहरुख खान को निशाने पर इसलिए नहीं लिया कि शाहरुख ने पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाडिय़ों के हक में दो शब्द बोले थे, ठाकरे की परेशानी का सबब वह 'खानÓ शब्द बना जो पूरे संसार में अचानक लोकप्रिय बन बैठा। फिल्म में किरदार शाहरुख गर्व से कहते हैं कि हां, मेरा नाम खान है, किन्तु मैं आतंकवादी नहीं। पूरे संसार में संदेश गया कि सभी मुस्लिम आतंकवादी नहीं हैं। मुस्लिम विरोध की सांप्रदायिक राजनीति करने वाले बाल ठाकरे को भला यह कैसे बर्दाश्त होता? यह वोट की ही राजनीति है, जिसमें सत्ता पक्ष को शाहरुख का बचाव करना पड़ा। यही आज की राजनीति का कड़वा सच है। और यही कारण है राजनीति के प्रति सभ्य-शिक्षित युवा वर्ग की घृणा का। किसी ने ठीक कहा है कि मछली पकडऩे और राजनीति करने में कोई फर्क नहीं है। ------------------------

kya bharat me deshbhakto ki kami hai

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एक २२ साल का युवा जिसे देशभक्ति की सोच हासिल है तभी आर्मी ज्वाइन करने की चाह जगी लेकिन फिजिकल में असफल होने के बाद वापस पढ़ रहा है और अब एक नई सोच नेवी ज्वाइन करने की शोक लिखना ,पढना और सोच की गह्रइयो में ख़ुद को झोककर मोती निकाल लाना और इसमें सफल होने की चाह